कहीं से भी आनन्द खोज निकालने की कला

September 1968

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राबर्ट लुई स्टीवेन्स ने एक स्थान पर लिखा है-

“आनन्द किसी गन्तव्य स्थान पर पहुँच जाने में नहीं है। वरन् वह तो चलने की क्रिया में- सतत उद्योग में है। प्रसन्नता और हमारा आनन्द, प्रतिदिन, प्रतिपल, बिखरा पड़ा है यदि हम आज आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते, आज जीवन का रसपान नहीं कर सकते, तो चाहे हमारा वेतन दुगना क्यों न हो जाए, चाहे हम बहुमूल्य वस्त्र क्यों न धारण करलें, भविष्य में हमें आनन्द उपलब्ध होने वाला नहीं है।”

आनन्द अथवा प्रसन्नता प्रत्येक व्यक्ति को वाँछनीय है। दुखी अथवा अप्रसन्न कोई भी नहीं रहना चाहता। सभी जीवन में आनन्द प्राप्त करना चाहते हैं।

सामान्यतः लोग अपने आनन्द को भविष्य की किसी उपलब्धि, परिस्थिति अथवा अवसर में निहित देखते हैं। वे कुछ इस प्रकार सोचा करते हैं कि आज यदि कष्ट है- तो कोई बात नहीं, जैसे-तैसे रो-धोकर काट लेंगे। लेकिन जब निकट भविष्य में हमारा वेतन अथवा आय बढ़ जायगी तब तो फिर आनन्द ही आनन्द रहेगा। कभी सोचते हैं- बच्चे पढ़ रहे हैं, अभी तो कुछ कष्ट रहेगा ही। लेकिन जब पढ़-लिखकर वे काम-धन्धे में लग जायेंगे तो फिर आनन्द की कमी न रहेगी। कभी विचारते हैं- लड़के, लड़की की शादी करनी है। चिन्ता ही चिन्ता सिर पर सवार रहती है- सुख कैसे मिल सकता है? हाँ जब उनका विवाह हो जाएगा तब चिन्ता का कोई कारण नहीं रहेगा और जिन्दगी आनन्द से भर जाएगी। इसी प्रकार कोई पेन्शन पा जाने पर, बंगला, मोटर, मकान पा जाने पर अपने आनन्द को निर्भर समझता है। तात्पर्य यह है कि ज्यादातर लोग अपने आनन्द को किसी दूर भविष्य के किसी उद्देश्य, गन्तव्य अथवा कामना पूर्ति में देखा करते हैं।

इस प्रकार दूर भविष्य में आनन्द की सम्भावना देखने वालों को राबर्ट लुई स्टीवेन्स के कथन का सार समझने का प्रयत्न करना चाहिए। उनके कथन का सार यही है कि मनुष्य का अपना आनन्द भविष्य के किसी गन्तव्य अथवा मन्तव्य में नहीं है बल्कि वह तो वर्तमान में ही है और वहीं प्राप्त किया जा सकता है। जो वर्तमान में आनंद नहीं पा सकता वह भविष्य में भी नहीं पा सकता।

मानिए किसी ने सोचा कि जब उसको पेंशन मिल जाएगी और बच्चे अपने काम-धन्धे में लग जाएंगे तब सुख मिलेगा। इसके लिए देखना और सोचना चाहिए कि जिनके बच्चे काम-काज में लग गये हैं और जिन्हें पेन्शन भी मिल गई है क्या वे वास्तव में सुखी और आनन्दित हैं? खोज करने पर शायद एक प्रतिशत लोग भी ऐसे नहीं मिलेंगे जो इस स्थिति में आकर आनन्द पाने लगे हों। किसी स्थिति को अथवा गन्तव्य को पा लेने पर आनन्द मिलने ही लगे यह निश्चित नहीं। एक स्थिति पा लेने के बाद दूसरी स्थिति की कामना, जिज्ञासा अथवा आवश्यकता हो सकती है। तब फिर वही आनन्द की प्रतीक्षा प्रारम्भ हो जाएगी। दूसरी के बाद तीसरी और तीसरी के बाद चौथी स्थिति की आवश्यकता सता सकती है। इस प्रकार किसी एक स्थिति पा लेने से आनन्द मिलने ही लगे ऐसा हो नहीं सकता। मनुष्य की कामनाओं, आवश्यकताओं और जिज्ञासाओं की कमी नहीं, उनका कोई अन्त भी नहीं। आनन्द के लिए किसी गन्तव्य अथवा मन्तव्य की प्रतीक्षा करते रहने वाले कदापि सुखी नहीं रह सकते और न आनंद पा सकते हैं।

आनन्द के लिए भविष्य की प्रतीक्षा करना व्यर्थ है। उसे तो वर्तमान में ही खोजना और पाना होगा। आज की परिस्थितियाँ जब कल बदल जाएँगी तब आनन्द मिलने लगेगा- यह भ्रम है, मृग तृष्णा है। परिस्थितियाँ, परिस्थितियाँ हैं। वे बदलती रहने पर भी बदलने की आवश्यकता लिए रहती हैं। परिस्थितियों में से ही दूसरी परिस्थितियों की शाखा-प्रशाखाएँ फूलती-फैलती रहती हैं। उनके बदलने पर सुख और आनन्द की आशा लिए बैठे रहने वाले जीवन में कभी सुख नहीं पाते। सुख तो वर्तमान और वर्तमान परिस्थितियों में ही खोज निकालना होगा।

जैसा कि राबर्ट लुई ब्रस्वेन्स ने कहा है कि सुख गन्तव्य में नहीं बल्कि उसकी ओर सतत चलते रहने के उद्योग में है। अवश्य ही इस कथन में वास्तविकता है। जब तक मनुष्य गन्तव्य की ओर बढ़ता रहता है उसे सुख की आशा का आनन्द मिलता रहता है। गन्तव्य पर पहुँचने पर एक सामयिक संतोष तो मिलता है किन्तु सतत आशा का आनंद मिट जाता है। जल्दी ही गन्तव्य पर पहुँचने का सन्तोष पुराना हो जाता है और फिर वही आनन्द और सुख का अभाव सताने लगता है। इस प्रकार देखा जा सकता है कि आनन्द का निवास गन्तव्य में नहीं बल्कि उसकी ओर बढ़ते रहने में है। इसलिये सुख का आधार भविष्य में पाए जाने वाले किसी गन्तव्य अथवा उद्देश्य को न मानकर उसकी ओर निरन्तर चलते रहने को मानना चाहिए।

ऐसी मान्यता के लोग जीवन में अविराम सुख का आस्वादन कर सकते हैं। इस प्रकार कि अपनी गति की कोई सीमा अथवा अवधि न बाँधी जाए और एक के बाद एक गन्तव्य पार करते हुए चला जाए, मार्ग में जो भी जैसी परिस्थितियाँ आएँ उन्हीं में आनन्द ढूँढ़ते रहा जाए। सच्ची बात तो यह है कि आनन्द कोई ऐसी वस्तु नहीं है जो किसी निश्चित स्थान अथवा परिस्थिति में पाई जा सके। आनन्द प्राप्त कर लेना एक कला है। जो लोग इस कला को जानते हैं वे हर समय और हर स्थिति में आनन्द पा लेते हैं। जहाँ इस कला से अनभिज्ञ लोग अपार धन-संपत्ति में भी आनन्द नहीं पा-पाते वहाँ इस कला को जानकार अपनी स्वल्प आय में भी आनन्द भोगता रहता है। जहाँ इस कला का जानकार कोठी, बँगला, मोटर आदि साधनों में भी आनन्द नहीं पाता वहाँ इस कला का जानकार एक छोटे मकान और पदयात्रा में भी आनन्द की खोज कर लेता है। आनन्द के लिये परिस्थितियों अथवा साधन सामग्री पर निर्भर रहने वाले अपनी न्यूनता का परिचय देते और आजीवन उसके लिये लालायित ही बने रहते हैं।

आनन्द का रहस्य न जानने वाले बहुत से लोग उसे आरामतलबी में समझते और खोजते हैं। उनका विचार होता है कि अच्छा खाने-पहनने कि लिए मिलता रहे, बिना कुछ काम किये आराम से रहने को मिलता रहे बस सारा आनन्द इसी में है। आलस्य, अकर्मण्यता और प्रमादपूर्ण जीवन में आनन्द देखने वाले वस्तुतः आनन्द का रहस्य जानते ही नहीं। आनन्द आल्य और आराम करने में नहीं काम करने में है। अपनी रुचि का सबसे प्रिय कोई काम खोज लिया जाए और उसको पूरी लगन, तन्मयता और दक्षता के साथ निरन्तर करता रहा जाए आनन्द इसी में है। प्रिय कार्य ही प्रगति पूर्णता और चारुता से आनन्द की तरंगें उठ-उठकर कर्ता के हृदय में हर्ष, उल्लास और प्रसन्नता भरती ही रहती हैं।

आनन्द का अमृत जीवन में पग-पग पर फैला पड़ा है उसे उठाने और पाने की विशेषता मनुष्य में होनी चाहिए। आनन्द एक ईश्वरीय तत्व है। वह उसी की तरह सब जगह व्याप्त है। कोई स्थान और कोई परिस्थिति उससे खाली नहीं है। यदि मनुष्य उसे पाने की पात्रता पैदा कर ले तो कोई कारण नहीं कि वह जीवन के प्रत्येक पग पर आनन्द न पाता चले। आनन्द पाने की पात्रता है सन्तोष, निस्पृहता, निरपेक्षता और निरतिशयता आदिक गुण अपने में उत्पन्न कर लेना।

सन्तोष, सुख का बहुत बड़ा आधार है। कहा भी गया है- ‘सन्तोषी सदा सुखी।’ हृदय में सन्तोष रहने से सामान्य परिस्थितियों और स्वल्प साधनों में भी काम सुचारु रूप से चलता रहता है। सन्तोष के अभाव में धन-सम्पत्ति और साधन-सुविधाओं की प्रचुरता में भी अभाव अनुभव होता रहता है। जो कुछ प्राप्त होता है उससे अधिक और अधिक प्राप्त करने की तृषा बनी रहती है। ऐसी दशा में सुख मिलना सम्भव नहीं। निस्पृहता एक ऐसा गुण है जिसके आधार पर मनुष्य बहुत-सी कष्टदायक बातों से बच जाता है। निस्पृहता मनुष्य को लोभ और ईर्ष्या से बचाती है। निस्पृह व्यक्ति दूसरों की देखा-देखी अपना रहन-सहन बनाने के लिये उत्सुक नहीं होता। वस्तुओं और साधनों में लिप्सा न होने से वह अपनी परिस्थितियों की तुलना दूसरों की परिस्थितियों से नहीं करता। अपनी ही परिस्थितियों में ही सन्तुष्ट और मगन रहता है।

निरपेक्षता वह गुण है जो संकट और प्रतिकूलताओं में भी व्यग्र एवं व्याकुल नहीं होने देता। निरपेक्ष व्यक्ति अरुचिता, बाधा, विरोध, आलोचना आदि द्वेष मूलक बातों पर न ध्यान देता और उनको न कोई महत्व देता है। इस प्रकार जब वह बहुत-सी उलझनों से बचा रहता है तो उसका सुखी और शान्त स्वाभाविक ही है। अतिरेकता मनुष्य के सुख-शान्ति और सन्तोष की बहुत बड़ी शत्रु है। अतिरेकी व्यक्ति जिस वस्तु की इच्छा करता है उसे आवश्यकता से अधिक पाना चाहता है। वह भोजन चाहता है तो उत्तम, वस्त्र चाहता है तो उत्तम और अधिक। बात करता है तो करता ही चला जाता है। किसी से नाराज होता है तो क्रोध की सीमा ही नहीं रहती। अतिरेकी के लिये कोई मात्रा और कोई भी परिणाम कम ही लगता है। किसी बात में उसे पूर्णता का आभास होता ही नहीं। ऐसी दशा में उसका असन्तुष्ट, दुखी और अशान्त रहना स्वाभाविक है। निरतिरेक स्वभाव का विकास हो जाने पर व्यक्ति अपनी वर्तमान उपलब्धियों में ही संतोष करता है। वह वस्तुओं और साधन-सुविधाओं में हठात् कभी नहीं देखता। जो कुछ पाता है उन्हें ही बहुत समझता है और आगे अधिक पाने का प्रयत्न करता है। ऐसा व्यक्ति सामान्यतावादी होता है। उसमें लोभ, लालच, लिप्सा और विवृषणाओं की दुर्बलता नहीं होती। जो इन दुखद पाशों से बचा रहेगा उसका सुखी रहना निश्चित है।

बहुत से लोग विषय-वासनाओं और भोग-विलासों में आनन्द की खोज करना चाहते हैं और प्रयत्न भी करते हैं। किन्तु यह प्रयत्न बालू में तेल खोजने जैसा है। विषयों में आनन्द का निवास नहीं होता। अपितु विषय-वासनाएँ मनुष्य के सारे सुखों को ही नष्ट कर देती हैं। धन, स्वास्थ्य, समय, स्फूर्ति, स्निग्धता, शक्ति, क्षमता आदि सारी विशेषताएँ विषयों और वासनाओं की आग में जलकर भस्म हो जाती हैं। जीवन का हरा-भरा वृक्ष सूखकर ठूंठ जैसा हो जाता है। विषयों, व्यसनों और विलासों में सुख खोजना और पाने की आशा करना भयानक दुराशा है।

सुख है स्वास्थ्य, परिश्रम, सन्तोष, निस्पृहता, निरपेक्षता और निरतिरेकता में। इनको विकसित कर अपने जीवन को कम से कम बोझिल बनाना चाहिए और किसी दूरस्थ उद्देश्य की प्रतीक्षा करते रहने के बजाय अपनी वर्तमान परिस्थितियों में ही सुख की खोज करना चाहिए। सुख अनुभव करने की एक रीति, एक कला है जिसे कोई भी थोड़े नियमों के साथ सरलता पूर्वक सीख सकता है।


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