ज्ञान-यज्ञ को अधिकाधिक व्यापक बनाया जाय

January 1968

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मनुष्य का सरल सुखद और उल्लासपूर्ण जीवन जिस कारण कष्ट-साध्य, विक्षुब्ध और अभावग्रस्त बना हुआ है वह और कुछ नहीं केवल कुत्सित दृष्टिकोण ही है। हमारी विचार पद्धति उल्टी हो गई है। समस्याओं पर जिस ढंग से सोचना चाहिए उस ढंग से नहीं सोचते। सोचते उस तरह हैं जिस तरह नहीं सोचना चाहिये। कुछ ऐसा बुद्धिभ्रम इन दिनों उत्पन्न हो गया है कि दिशा भूलकर लक्ष्य से ठीक उल्टी दिशा में हम चल पड़े हैं। फलस्वरूप जो मिलना चाहिए था वह नहीं मिल रहा है और वह मिल रहा है जिसकी न आवश्यकता है और न उपयोगिता। इस बुद्धि-भ्रम ने ही हमें भूल-भुलैयों में भटकाया और जंजालों में उलझाया है। इस उलझन से निकलने के लिये बुद्धि-भ्रम का निराकरण करने के अतिरिक्त और कोई भी ऐसा मार्ग नहीं।

जिस दिन हम सही ढंग पर विचार करना और सही आधारों का अपनाना आरम्भ करेंगे उसी दिन हमारी शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान बड़ी सरलता-पूर्वक हो जायेगा। इस युग की यही सबसे बड़ी आवश्यकता है। स्वस्थ विचारों की प्रतिष्ठापना करके ही समर्थ व्यक्ति और समर्थ समाज की रचना की जा सकती है। औंधे विचारों को पलटकर सही विचार का साहस जन-साधारण में उत्पन्न करना- यही हमारी उस विचार-क्रान्ति का स्वरूप है जो नये युग का- नये व्यक्ति का- नये समाज का- नव-निर्माण करने में समर्थ हो सकती है। संक्षिप्त में विचार-क्रान्ति ही इस युग की सर्वोपरि आवश्यकता और साधना है।

युग-निर्माण योजना का प्रथम सृजन और प्रथम चरण यही है। जिन उत्कृष्ट सम्भावनाओं के स्वप्न हम देखते हैं उनका बीजारोपण विचार क्रान्ति के द्वारा ही सम्भव है। अपना ज्ञान-यज्ञ अभियान इसी प्रयोजन की पूर्ति के लिये है। इस पुण्य प्रयोजन में सम्मिलित- भागीदार होने के लिए ‘अखण्ड-ज्योति’ के समस्त परिजनों का आह्वान इसीलिये किया गया है कि वे अग्रणी बनकर नव प्रभात का यह संचार करें जिससे अगले क्षणों हर किसी को प्रखर प्रकाश से लाभान्वित होने का अवसर मिल सके।

एक छोटी साधना हममें से हर एक को अनिवार्य रूप से करनी है कि अपने संपर्क के लोगों को विचार शुद्धि के लिए प्रयत्नपूर्वक विवश करें। युग-निर्माण योजना के अंतर्गत जिन साहित्य का सृजन किया जा रहा है वह अपने ढंग का अभिनव, अद्भुत है। यों धर्म, सदाचार, अध्यात्म आदि के नाम पर बहुत विचार और बहुत साहित्य उपलब्ध हैं, पर ‘युग-निर्माण’ की विचारणा अपने आपमें मौलिक है। उसके अंतर्गत युग की हर समस्या पर सूक्ष्म विवेचन किया गया है और समाधान इस ढंग से उपस्थित किया गया है जिसे बेजोड़ कहा जा सकता है। प्रचलित कुत्सित मान्यताओं पर पग-पग पर प्रहार किये गये हैं और नीर-क्षीर विवेक की एक स्वस्थ दृष्टि, लोक मानस को प्रदान की है। यह विचारणा हर मस्तिष्क को- हर दिल को- झकझोर डालने में समर्थ है। व्यक्ति को बदल देने की, उसके विचारों और क्रिया-कलापों को उलट देने की परिपूर्ण क्षमता इस विचारणा में विद्यमान है।

अस्तु, ज्ञान-यज्ञ के अंतर्गत हमें स्वयम् स्वाध्यायशील बनना है। बहुत ध्यानपूर्वक दोनों पत्रिकाओं और ट्रैक्टों को पढ़ना है ताकि अपना अन्तरंग और बहिरंग जीवन सुदृढ़ आधार पर विनिर्मित करने की प्रेरणा मिल सके। इसके साथ ही परिवार के हर शिक्षित अशिक्षित सदस्य को इस विचारणा के संपर्क में लाने का पूरा-पूरा प्रयत्न करना है। जो शिक्षित हैं उन्हें अनुरोध और आग्रहपूर्वक इस विचार पद्धति को पढ़ने समझने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और जो पढ़े नहीं हैं उन्हें सुनाने के लिये परिवार गोष्ठी का आयोजन किया जाना चाहिये। निबन्ध व ट्रैक्ट, जीवन चरित्र, कथा साहित्य सभी में रोचकता है। यदि उसे प्रतिदिन सुनाने का क्रम ठीक तरह जमा लिया जाय तो परिवार का हर सदस्य अधिक सुनने के लिये स्वयं लालायित रहने लगेगा और सुनाने के लिए आग्रह करेगा। परिवार के सदस्यों के विचार बदलने से ही अपना विचार परिवर्तन समग्र माना जा सकता है। अन्यथा एक घर में रहने वालों की दिशायें ही जब पृथक-पृथक हों तो सम्मिलित रहना एक विडम्बना मात्र रह जायेगा। परिवार का आनन्द तब है जब सब के विचार एक से हों और उस एकता में भी उत्कृष्टता समाई हुई हो। ऐसे परिवारों में ही स्वर्गीय आनन्द रहता है। ज्ञान-यज्ञ के हर अध्वर्यु को अपने परिवार के साथ इस प्रकार का प्रयत्न करना ही चाहिये। जिस प्रकार घर के लोगों के लिये भोजन, वस्त्र, दवा, शिक्षा, मनोरंजन आदि का प्रबन्ध करते हैं उसी प्रकार उनके भावनात्मक उत्कर्ष के लिये उत्कृष्ट विचारणा उपलब्ध करने का भी साधन अवश्य जुटाना चाहिये।

मित्रों और परिचितों से मिलना होता ही है। काम की और बेकाम की बहुत-सी बातें उनसे की जाती हैं। इसी संदर्भ में युग-निर्माण विचारणा की चर्चा, प्रशंसा भी की जा सकती है और उनमें उत्सुकता उत्पन्न कर तद्विषयक पुस्तकें पढ़ने दी जा सकती है। यह कार्य लगता ही रूखा और झंझट जैसा है, वस्तुतः व्यवहार में अति सरल और आकर्षक है। दो-चार अंक या ट्रैक्ट मनोयोग से पढ़ने के बाद ही मित्रों की चर्चा का विषय वही बन जाता है और फिर बातचीत का प्रधान विषय वही रहने लगता है। इस प्रकार दिशा के मुड़ने में अपना, मित्रों का और समस्त संसार का लाभ है। थोड़ा प्रयत्न किया जाय तो मित्रों में नव-निर्माण की विचारणा का प्रवेश कोई भी बड़ी आसानी से करा सकता है। यह कराया ही जाना चाहिये।

दस पैसा प्रतिदिन इस प्रयोजन के लिये निकालते रहना उन्हें तनिक भी कष्टकर प्रतीत न होगा जिन्होंने उत्कृष्ट विचारणा का महत्व और उसके द्वारा उपस्थित होने वाले महान् सत्यपरिणाम को ठीक तरह समझ लिया है। हाँ, जिनकी समझ में यह तथ्य आया ही नहीं, उन्हें आर्थिक तंगी का- फुरसत न मिलने का बहाना बनाकर झूठा आत्म-सन्तोष कर लेने में संकोच न होगा। वे इसे झंझट भी समझेंगे और बेकार भी मानेंगे। ‘अखण्ड-ज्योति’ के पाठकों की मनोभूमि इतनी घटिया नहीं हो सकती। इसलिये उनसे सहज ही आशा की जायेगी कि ज्ञान-यज्ञ में भागीदार रहकर अपना, अपने परिवार का, अपने मित्रों का भावनास्तर ऊँचा उठाने में निश्चित रूप से तत्पर रहेंगे और इस महान् प्रयोजन के लिये एक घण्टा समय और इस पैसा रोज खर्च करने में संकोच न करेंगे। प्रसन्नता की बात है कि यह प्रक्रिया लगभग सभी परिजनों ने अपना ली है, जो शेष हैं वे इस बसन्त पंचमी से अपना लेंगे, यह आशा सहज ही की जा सकती है।

ज्ञान-यज्ञ का यह वैयक्तिक स्वरूप हुआ। इसे और भी बड़ा रूप मिल जाना चाहिए। हर केन्द्रीय स्थान पर, हर, कस्बे में कम से कम एक रिटायर्ड सुशिक्षित, स्वाध्यायशील व्यक्ति ऐसा उत्पन्न किया जाना चाहिए जो परमार्थ बुद्धि से महान कार्य में अपना पूरा समय लगाने लगे। प्रातःकाल से लेकर मध्याह्न अथवा तीसरे पहर तक उन्हें अपना झोला-पुस्तकालय लेकर अपने क्षेत्र के शिक्षित व्यक्तियों के पास जाना चाहिए और नवनिर्माण साहित्य का महत्व समझाकर उनमें पढ़ने की उत्सुकता उत्पन्न करनी चाहिए। तब जिस व्यक्ति की जैसी मनोभूमि हो, उसके अनुरूप उसे वह पुस्तक पढ़ने देनी चाहिए। मनुष्य की रुचि, प्रवृत्ति और आवश्यकता के अनुरूप साहित्य देने का मनोविज्ञान जिसकी समझ में आ गया वह घर-घर में उत्सुक रहने वाले पाठक उत्पन्न कर लेगा। जो यह न समझ सका, रुचि से विपरीत साहित्य बाँटने लगा वह असफल रहेगा। उसकी उपेक्षा होगी और श्रम व्यर्थ चला जायेगा। इसलिये आरंभ पाठक की रुचि और आवश्यकता को देखकर करना चाहिए और पीछे धीरे-धीरे सभी साहित्य पढ़ाने की स्थिति लानी चाहिए। अध्यापक, अध्यापिकाएं, वयस्क छात्र और छात्राएं इस साहित्य के अच्छे पाठक हो सकते हैं। इस वर्ग में पहुँचने का विशेष रूप से प्रयत्न किया जाना चाहिए। युवक समाज में यह साहित्य अधिक लोकप्रिय होता है। जिन्हें पढ़ने में रुचि नहीं, जिनकी उम्र ऐसे ही बीत चुकी, ऐसे लोगों में उत्सुकता उत्पन्न करना कठिन तो अवश्य है पर असम्भव नहीं।

प्रातःकाल वे प्रचारक महोदय इस प्रकार झोला पुस्तकालय कन्धे पर लटकाकर निकलें और लोगों की सुविधा के समय का ध्यान रखते हुए उनसे मिलें। पुस्तकें पढ़ने देने और वापिस लेने का काम चलावें। साँयकाल किसी मन्दिर, पार्क, चौराहे, घाट अथवा हाट बाजार में जहाँ सुरुचिपूर्ण व्यक्तियों का अधिक आवागमन रहता हो एक स्थान नियत कर अपनी दुकान लगा लिया करे। दुकान के चारों ओर आकर्षक बोर्ड लगे हों, जो उस साहित्य का महत्व बताते हों। सुसज्जा का ध्यान रखने से आकर्षण बढ़ता है और लोगों का ध्यान खिंचता है, इस तथ्य को जो भी ध्यान में रखेगा वह अधिक ग्राहक प्राप्त करेगा। जो पुस्तक देखे उसे आवश्यक जानकारी भी देते रहा जाय तो अधिक पुस्तकें ग्राहक को थमाई जा सकती हैं। जहाँ सम्भव हो निश्चित दुकान भी खोली जा सकती है। पहियेदार गाड़ी पर भी दुकान लगाई जा सकती है। हर जगह एक प्रशिक्षित प्रचारक ऐसा होना ही चाहिए जो नवनिर्माण के सत्साहित्य को लोगों तक पहुँचाने में अपनी सारी सामर्थ्य लगाता रहे। झोला-पुस्तकालय में मुफ्त पुस्तकें पढ़ने वाले भी अक्सर प्रिय लगने वाली पुस्तकें खरीदते रहते हैं। उनमें जो अधिक प्रभावित हो उन्हें कुछ किफायत खर्च करके अपने घर में नवनिर्माण पुस्तकालय रखने की प्रेरणा की जा सकती है। इस तरह भी कुछ साहित्य बिकता रह सकता है।

भविष्य में इन साहित्य प्रचारकों के माध्यम से हर क्षेत्र में सुविधापूर्वक साहित्य पहुंचाया जाना संभव होगा। इसलिए प्रयत्न हर जगह कम से कम एक प्रचारक उत्पन्न करने का किया जाय। उनके लिए कमीशन की व्यवस्था भी की गयी है। जिससे हाथ खर्च के लिए थोड़ी आजीविका भी मिलती रह सके। यों यह कार्य कोई बहुत बड़े लाभ का नहीं है, बड़ी कमाई के उत्सुक व्यक्तियों को इसमें कुछ विशेष आकर्षण नहीं है, पर जो लोग मंगल की दृष्टि से- मानवीय दृष्टिकोण के परिष्कार की दृष्टि से यह कार्य करेंगे उन्हें आत्मसन्तोष बहुत अधिक होगा। जो थोड़ी-सी आजीविका मिल जायेगी उसे भी वे एक दिव्य प्रसाद समझ कर सन्तुष्ट रह सकेंगे। जिन्हें इस कार्य में रुचि हो, वे कमीशन आदि के संबंध में पत्र व्यवहार कर सकते हैं।

जहाँ पूरा समय देने वाले प्रचारक न मिल सकें, वहाँ सामान्य पुस्तक विक्रेता अथवा दूसरे दुकानदार अपने यहाँ अन्य वस्तुओं के साथ-साथ यह साहित्य भी विक्रय के लिए रख सकते हैं। पर ध्यान यही रखना होगा कि यह साहित्य अपने आप कम ही बिकेगा। जहाँ रखा जाय वहाँ आकर्षक ढंग से काँच की आलमारी आदि में सजाया जाय। ग्राहकों को उसका महत्व समझाया जाय और खरीदने पढ़ने का अनुरोध किया जाय तभी उसे लोगों के गले उतारा जा सकता है। जिनमें इस प्रकार की प्रतिभा हो केवल वे ही इस प्रचार की- विक्रय की बात सोचें। बहुत सीधे, संकोची, बातचीत करने में झिझकने वाले जिन्होंने पूरी तरह यह साहित्य पढ़ा न हो, वे प्रचारक बनने की बात न सोचें। उन्हें सफलता न मिलेगी। क्योंकि यह जनता की माँग का साहित्य नहीं है, इसे तो किसी प्रकार लोगों के गले मढ़ना है। जिनमें इतनी चतुरता हो वे ही इस उलझन भरे कार्य में सफल हो सकते हैं।

ज्ञान यज्ञ को अधिकाधिक व्यापक बनाया जाना चाहिए। हममें से हर व्यक्ति, व्यक्तिगत रूप से तो इस पुण्य प्रयोजन में एक घण्टा समय और दस पैसा प्रति दिन लगावे ही। साथ ही सामूहिक प्रचार कार्य की व्यवस्था भी हर जगह होनी चाहिए। एक छोटी दुकान, एक रिटायर्ड प्रचारक हर स्थान पर नियमित रूप से काम करे तो समझना चाहिए कि विचार क्रांति की दिशा में एक बहुत बड़ा परिवर्तन हो चला। और नवनिर्माण की आधारशिला मजबूती के साथ रख जाने की व्यवस्था बन गई।


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