जिस समय में हम लोग जी रहे हैं वह भारी उथल-पुथल का है। शताब्दियों और सहस्राब्दियों से मानव-जाति जिस अनीति का आश्रय लिये हुए है उसके प्रायश्चित का ठीक समय यही है। मानव-जाति एक श्रृंखला में बंधी हुई है। उसकी प्रगति का आधार पारस्परिक सहयोग है। इस सहयोग को नैतिक उत्तरदायित्व उठाने में भी स्थिर रखना चाहिये। यदि कुछ लोग अनीति, अनाचार एवं दुर्बुद्धि का आचरण करते हैं तो शेष लोगों का परम पवित्र कर्तव्य है कि उसे रोकें। कोई व्यक्ति अपने घर में आग लगावे तो उसे रोकना पड़ेगा अन्यथा सारे गाँव, मुहल्ले के जल जाने की आशंका है। इसी प्रकार समाज के किसी भाग में अनाचार उत्पन्न हो तो उसे रोकने की जिम्मेदारी सभी लोगों पर है। ठीक है यह कार्य शासन द्वारा पुलिस और न्यायालयों के माध्यम से भी किया जाता है पर वह प्रयोग बहुत ही अधूरा है। उसमें केवल कानून निर्धारित कुछ थोड़े से भयावह समझे जाने वाले अपराध ही पकड़े जा सकते हैं। उसमें भी 90 प्रतिशत दण्ड पाने से बचे रहते हैं। छुटपुट वैयक्तिक अनाचारों के विरुद्ध कोई कानून नहीं, उन्हें तो तभी रोका जा सकता है जब अन्य लोग अपने नैतिक बल, दबाव, भर्त्सना, निन्दा, प्रतिरोध, असहयोग आदि द्वारा उसे रोकें। यदि अन्य लोग उपेक्षा करें “हमें अपने काम से काम- हमें दूसरों से क्या मतलब” की नीति लेकर अनाचार के प्रति जो समाज उपेक्षा बरतता है वह वस्तुतः अपना कर्तव्य पालन न करने का, उपेक्षा बरतकर अपराधों को बढ़ने में सहायता करने का अपराधी होता है और उसे समयानुसार ईश्वरीय दण्ड मिलता है।
लोग शताब्दियों से विकृत दृष्टिकोण लेकर जीवन जी रहे हैं। फलस्वरूप सामाजिक परंपरायें भी भ्रष्ट होती चली आ रही है। भावनात्मक और क्रियात्मक अवसाद व्यापक पतन का रूप धारण कर मानव जाति को दानवीय स्तर पर घसीटता चला आया है और अब उसकी प्रतिक्रिया इतनी भयावह हो गई है कि हर व्यक्ति सुख-शांति गँवा बैठा है। उत्साह और उल्लास के कारक समाप्त हो गये। जिधर देखें उधर अविश्वास और छल-छिद्रों से- अनैतिकता और दुर्भावना से सारा वातावरण दुर्गन्धित हुआ दिखता है। फलस्वरूप लोग नारकीय परिस्थिति में रहने का- रोक-शोक, क्लेश-कलह, दुख-दारिद्र, उद्वेग, सन्ताप भरी परिस्थितियों का कटु अनुभव कर रहे हैं। फिर भी मानव-जाति चेती नहीं, अनाचार को बढ़ने न देने का सामूहिक उत्तरदायित्व सम्भाला नहीं, अपने मतलब से मतलब रखने की घृणित संकीर्णता अपनाकर लोग पड़ौस में घटने वाली दुर्घटनाओं- अनीति और प्रवंचनाओं की ओर से आँखें मूँदे मुँह मोड़े बैठे रहे।
ईश्वर की दृष्टि में यह महान् पातक है। पातकी को दण्ड देने की वह अपनी नीति सदा से सुस्थिर रखे हुए है। मनुष्य में परस्पर मिलजुलकर काम करने की उसने विशेषता उत्पन्न की है। उसी के बल पर वह बोलने, लिखने, सोचने, उपार्जन करने, सुख साधन उपलब्ध करने के लाभ ले सका है। यह विशेषता न मिली होती तो वह भी जंगली जानवरों की तरह एकाकी अभावग्रस्त निकृष्ट जीवन जी रहा होता। सामूहिक सहयोग ही वह विशेषता है जिसके आधार पर मानव समाज आगे बढ़ा, ऊपर चढ़ा है। इस ईश्वर प्रदत्त महान् वरदान का उपयोग भौतिक सुविधायें कमाने तक ही सीमित रखा जाय यह उचित नहीं। इसके साथ-साथ एक नैतिक उत्तरदायित्व यह भी जुड़ा हुआ है कि एक दूसरे को सन्मार्ग पर चलने की- कुमार्ग पर बढ़ने से रोकने की जिम्मेदारी उठाये।
अनाचार का बढ़ना तभी सम्भव होता है जब दूसरे लोग उसे सहन करते हैं अथवा रोकने में उपेक्षा बरतते हैं। दुष्टता को प्रोत्साहन उसी आधार पर मिलता है। स्वार्थपरता और संकीर्णता और कायरता अनीति की जननी है। देखने में यह दोनों बातें साधारण-सी लगती हैं पर वस्तुतः अनीति की जननी यही हैं। कानून की दृष्टि में जिस प्रकार हत्या, लूट, डकैती, बलात्कार आदि दण्डनीय अपराध हैं उसी प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से- ईश्वरीय कानून की दृष्टि से संकीर्ण स्वार्थपरता तक सीमित रहना और सामाजिक उत्तरदायित्वों की उपेक्षा करना भी एक भयावह पाप है। लोगों की इन्हीं दुष्प्रवृत्तियों के कारण व्यक्ति और समाज का पतन होता है और फिर सभी को इसका दुष्परिणाम भोगना पड़ता है। पिछले दिनों यही होता रहा है। दुर्बुद्धि बढ़ती रही है, समाज कुमार्गगामी होता रहा है। शेष लोग चुपचाप अपने बिलों में बैठे-बैठे दिन गुजारते और तमाशा देखते रहे हैं। छोटे-बड़े प्रतिरोधों द्वारा रोकने के लिये जो प्रयत्न किया जा सकता था वह नहीं हुआ है।
जिन्हें प्रतिभा उपलब्ध थी उन्हें समाज को संगठित कर अनीति का प्रतिरोध करना चाहिये था, पर उन्होंने भी वैसा कुछ नहीं किया। तथाकथित सन्त, महन्त, सिद्ध, भक्त, धनी, विद्वान और कलाकार बहुत हुए हैं पर वे अपनी शक्ति बुद्धि-कौशल दिखाने और अपनी प्रतिभा को चमकाने में ही सन्तुष्ट रहे हैं। व्यक्ति और समाज की बढ़ती हुई दृष्प्रवृत्तियों का नियंत्रण महान् आत्माओं का यही एक मात्र पवित्र कर्त्तव्य है। इस दृष्टि से लगता है पिछली शताब्दियां अभावग्रस्त असफल रहीं। उन्होंने इस स्तर की महान् आत्मायें नहीं के बराबर उगाईं। जो उत्पन्न हुई वे इतनी कम हैं कि उन्हें उंगलियों पर गिने जाने लायक अपवाद ही समझा जा सकता है।
ईश्वरीय दृष्टि में यही महानतम पातक है। जो समाज अपने भीतर सुधारक और संघर्षशील नेता उत्पन्न नहीं कर सकता वह बन्ध्या है। शताब्दियों से यह कलंक हमारे समाज के मुँह पर पुता है। इस अनुत्पादन ने ही सुख व शान्ति का दुर्भिक्ष पैदा कर दिया, अब उसका दण्ड प्रतिफल सबको भोगना पड़ रहा है। शास्त्रों के द्वारा, अन्तःकरण की पुकार के द्वारा ईश्वर हर व्यक्ति को उसके कर्तव्यों का उद्बोधन होता रहता है। पर जिसने उपेक्षा और अवज्ञा करना ही ठान लिया हो उनके लिये दण्ड के अतिरिक्त और मार्ग ही कौन सा शेष रहा जाता है।
जुलाई 67 की ‘अखण्ड ज्योति’ जिन्होंने ध्यानपूर्वक पढ़ी होगी उन्हें इस तथ्य का आभास हुआ होगा कि अगले दिन विश्व संकट की भयावह सम्भावनाओं से भरपूर है। उनमें अनेक अप्रत्याशित विपत्तियों के पहाड़ टूटेंगे और कुचल-कुचल कर मनुष्य को यह शिक्षा देंगे कि उसे सुख-सुविधायें उपलब्ध कर वासना और तृष्णा संकुलित घृणित जीवन जीने में ही मदमस्त नहीं रहना चाहिये वरन् सामाजिक उत्कृष्टता स्थिर रखने के लिये पुरुषार्थ करते रहने का, अपने महान् कर्त्तव्य को भी ध्यान में रखना ही चाहिए। इस तथ्य की उपेक्षा करके संसार को वर्तमान दुर्गति तक पहुँचा देने की जिम्मेदारी हम सब की है। इसलिये उस पाप का प्रायश्चित भी सामूहिक रूप से करना होगा। दैवी विपत्तियों के मर्मभेदी प्रहार हम सबको इसी कारण सहने के लिये विवश होना पड़ेगा।
दूरदर्शी तत्ववेत्ताओं ने सूक्ष्म जगत् में बन रही सम्भावनाओं का पूर्णाभास पाया है और उसकी पूर्व सूचना अपनी भविष्य वाणियों में दी है। ईसाई धर्म के अध्यात्म वेत्ताओं ने ‘सेविन टाइम्स’ की चर्चा करते हुए सन् 2000 के लगभग प्रलयंकर परिस्थितियाँ उत्पन्न होने का संकेत दिया है। मुसलमान धर्म में 14 वीं सदी कयामत की सदी कहकर पुकारी गई है। हिजरी सन् के हिसाब से यह 14 वीं सदी है। हिन्दू-धर्म के अगणित तत्व दर्शियों ने इस सम्बन्ध में विविध ग्रन्थों में लिखा है। अंतर्राष्ट्रीय युद्ध साधनों और दाववातों के क्रम को देखते हुए सूक्ष्मदर्शी राजनीतिज्ञों को भी यही आशंका है कि इस शताब्दी के दो रोमाँचकारी महायुद्ध चण्डी की रक्त पिपासा नहीं बुझा सके, अब एक सर्वनाशी तीसरा महायुद्ध होगा और वह अन्तिम युद्ध होगा। इसके बाद न किसी में लड़ने की शक्ति रह जायेगी और न उत्सुकता।
अक्टूबर 67 की ‘अखण्ड-ज्योति’ में महाकाल की इस विनाशलीला का कारण, आधार तथा माध्यम और भी अधिक विस्तारपूर्वक बताया गया है। उसमें कहा गया है कि- युद्ध ही एक मात्र महाकाल का दण्ड माध्यम नहीं वरन् और भी अनेक आधार हैं। रक्तपात के लिये युद्ध मोर्चे पर होने वाला घमासान ही नहीं- गृह युद्ध भी ऐसा आधार है जिससे फलस्वरूप उससे भी भयानक लोक सन्ताप उत्पन्न हो सकता है। पिछले दो युद्धों में करोड़ों लोग मारे गये और घायल हुए, इस बीच रूस, चीन जैसे कम्युनिस्ट देशों में आन्तरिक संघर्ष में- साम्यवादी सिद्धान्त स्वीकार न करने के अपराध में करोड़ों ही लोगों का वध कर दिया गया है। अभी-अभी गत वर्ष इन्डोनेशियाई उथल-पुथल में लगभग 50 लाख नागरिकों के मारे जाने का अनुमान लगाया गया है।
एक स्थान पर लड़े जाने वाला विश्व युद्ध तो अभी नहीं छिड़ा, पर पिछले दिनों काँगो, भारत, पाकिस्तान, तिब्बत, इन्डोनेशिया, वियतनाम, मिश्र, इसराइल आदि से जो संघर्ष हुए हैं उनमें विश्व युद्ध की भूमिका मौजूद है। छुटपुट बहुत लड़ाइयाँ मिलकर भी संसार में विश्व युद्ध जैसा संकट ही पैदा कर सकती हैं। देश में अराजकता अनेक स्तरों पर देखी जा सकती है और उसमें होने वाली हानि का भयावह अनुमान लगाया जायेगा। संसार के अन्य भागों में भी ऐसी ही उथल पुथल है। यह विभीषिका आगे और भी बढ़ सकती है और जन संहार की सम्भावनाओं को प्रत्यक्ष कर सकती है। रक्तपात के अतिरिक्त दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, महामारी, दुर्घटनायें, बढ़ते हुए अपराध वे आधार हैं जिनसे मनुष्य जाति के सामने भयावह सम्भावनायें आ उपस्थित हों।
इन दिनों वैज्ञानिक क्षेत्र में एक भारी हलचल मची हुई है। खगोल शास्त्र के सभी ज्ञाता इससे चिन्तित हैं कि इसी वर्ष कहीं समस्त भूलोक के नष्ट हो जाने की दुर्घटना घटित न हो जाय। विश्वविख्यात वैज्ञानिक डा. स्टुअर्ट टामस बटलर ने अपने एक लेख में कहा है कि- एक नया तारा इकारस पृथ्वी की ओर बड़ी तेजी से लपकता आ रहा है और यदि वह अधिक समीप आ गया तो प्रलय उपस्थित कर सकता है। सन् 1942 में इसकी दूरी पृथ्वी से लगभग 42 लाख मील थी। सन् 57 में वह 4 लाख मील और समीप आ गया। आशंका है कि जून 68 के किसी दिन वह पृथ्वी के अति निकट होकर गुजरेगा तब यदि वह अपनी धुरी से जरा-सा भी धरती के आकर्षण से प्रभावित होकर झुक गया तो एक हजार हाइड्रोजन बमों के बराबर विस्फोट होगा और उससे सारी पृथ्वी विनाश के गर्त में समा जायेगी।
इकारस यदि पृथ्वी से टकराया तो सारी धरती अन्ततः बर्फ से ढके ध्रुव क्षेत्र में परिणित हो जायेगी। गिरते समय समुद्र उबलने लगेगा और आकाश जहरीली गैसों से भर जायेगा। यदि उसका आघात ध्रुव क्षेत्र को लगे तो उस भयंकर ऊर्जा से वहाँ की सारी बर्फ पिघल जायेगी और उसका पानी हजारों फुट ऊँचा फैलकर सारी धरती को जलमग्न कर देगा।
वैज्ञानिकों का यह भी कहना है कि यदि वह पृथ्वी से न भी टकराया तो भी अन्य नक्षत्रों के साथ उसका टकराव होगा और उसका प्रभाव भूलोक पर पड़ेगा। जो हो यह आशंकायें मूर्तिमान न भी हों, पृथ्वी नष्ट न भी हो तो भी अगले दिनों प्रकृति-कृत अथवा मनुष्य-कृत ऐसी विपन्न परिस्थितियां विनिर्मित होने की पूरी सम्भावना है, जिनके फल से मनुष्य को भारी झकझोरा लगे और वह अपनी वर्तमान रीति-नीति को बदलने को विवश हो जाय।
इन विभीषिकाओं को एक कौतूहल मात्र न समझना चाहिये और न यह सोचना चाहिये कि उन्हें देखने में बड़ा मजा आयेगा। यह विपत्ति हमारे और हमारे परिजनों पर आ सकती है। इसलिये समय रहते हमें वे उपाय करने चाहिये जिनसे भावी विपत्तियों से बचाव हो सके। यह हो सकता है। यदि हम महाकाल के प्रयोजन को समझें और जिस उद्देश्य से वे विपत्तियों का दण्ड विधान रच रहे हैं उस उद्देश्य को समझकर समय रहते उसी की पूर्ति में लग जायें तो हम अपना, अपने संसार का ही नहीं परमेश्वर का भी एक बड़ा बोझ हलका कर सकते हैं।
युगनिर्माण योजना का यही प्रयोजन है। वह हर प्रबुद्ध को सचेत करती है कि अपनी गति-विधियों को बदलें। अपने महान मानवीय उत्तरदायित्वों को समझें और व्यक्तिगत सुख सुविधायें बढ़ाने की संकीर्णता में उलझे न रहकर इस आपत्तिकाल में विश्व मंगल के लिये योगदान करने की महानता अपनावें। यह सुनिश्चित है कि अगले तीस वर्षों में वैयक्तिक संपत्ति नाम कोई चीज न रह जायेगी। जमीन, जायदाद, मकान, जेवर एवं नोट किसी व्यक्ति के स्वामित्व में न रहेंगे वरन् वे सार्वजनिक सम्पत्ति बन जायेंगे। हर व्यक्ति श्रम करेगा और जीवन के आवश्यक साधन प्राप्त करने का अधिकारी रहेगा। इन सम्भावनाओं के बीच दौलत को बेटे पोतों के लिए जोड़ते जमा करने की हविस में किसी को भी अपना मूल्यवान् समय नष्ट नहीं करना चाहिये। व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं बढ़ाना और उनकी पूर्ति के लिये सिर फोड़ते रहना अगले दिनों मूर्खतापूर्ण ढर्रा सिद्ध होगा। जो विवश होकर किया जाने वाला है वह हमें स्वेच्छापूर्वक अभी से कर लेना चाहिये। पेट भरने को मुट्ठी भर साधन जुटाने के अतिरिक्त हमें अपना सारा समय, सारा मस्तिष्क, सारा श्रम और सारा धन व्यक्ति और समाज को उत्कृष्ट बनाने के लिए नियोजित करना चाहिये। समय की माँग हर प्रबुद्ध व्यक्ति से अपने में ऐसा परिवर्तन करने की है। जो स्वयं बदल सकेगा, वही युग को बदलने की भूमिका भी सम्पादित करेगा। जो स्वयं कीचड़ में डूबा हुआ खड़ा है, वह अन्य किसी को स्वच्छ कैसे करेगा? युग परिवर्तन की इस पुण्य वेला में यदि हम अपनी आस्थाओं, कामनाओं और गतिविधियों को बदल डालें तो समझना चाहिये कि युग परिवर्तन के एक महान केन्द्र स्वयं बन गये और अपने संपर्क में आने वालों में भी वह पुण्य प्रक्रिया प्रचलित प्रसारित होने लगेगी। यदि हमने अपने को तो बदला नहीं और दूसरों को उपदेश करने का पाण्डित्य दिखाना जारी रखा तो यह एक उपहासास्पद विडम्बना होगी। परिणाम तो इसका हो ही क्या सकता है?
भावी विपत्तियों का जो दण्ड विधान मानवीय गतिविधियों में परिवर्तन लाने के लिये बन रहा है, उसे रोकना एवं हलका करना सम्भव है। अतीत के सामाजिक पापों का प्रायश्चित्त करने के लिये सबसे पहले हम स्वयं आगे बढ़ें, तृष्णाओं और वासनाओं से छुटकारा पाकर आत्म-सुधार और लोक-कल्याण के लिए समय निकालें। अपनी गतिविधियाँ सुधारें और संसार-हित में नियोजित करें, तो सत्परिणाम निश्चित रूप से सामने आयेगा। पाप जितना घटेगा, सुधारात्मक प्रयोग जितना अधिक प्रखर होगा उसी अनुपात से भावी विपत्तियाँ भी घटेगी। यही सबसे बड़ा परमार्थ है। हम परमार्थी रीति-नीति अपनायें, संकीर्ण-स्वार्थपरता की उपेक्षा कर नव-निर्माण के लिए अपना समर्पण करें तो यह त्याग, बलिदान अन्य असंख्यों की विपत्ति निवारण करने का माध्यम बन सकता है।
जिनके मन में इस प्रकार का दिव्य स्फुरण उठे उनके लिये व्यक्ति निर्माण के पाँच कार्यक्रम पिछले लेख में- और विस्तारपूर्वक दिसम्बर अंक में प्रस्तुत किये जा चुके हैं। व्यक्ति निर्माण के आवश्यक सद्गुणों का विकास लोक निर्माण के परमार्थ प्रयोजनों में लगने से ही सम्भव होता है। उसकी पंचसूत्री योजना इस अंक के अगले लेखों में है। हमें व्यक्ति निर्माण और समाज निर्माण के समन्वित 5+5 = 10 कार्यक्रमों में जुटना चाहिये। इसी प्रकार हम अपना और समस्त संसार का कल्याण कर सकेंगे।