आमंत्रण

January 1968

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(श्रीमती मायादेवी सक्सेना)

वीर देश की ओ संतानो! तुम्हें निमन्त्रण,सेतुबंध की नींव आज तुमको रखनी है।

एक राम थे जिनकी सीता गई चुराईकिया बहुत उद्योग तभी वह वापस आई।एकाकी थे राम उस समय निर्जन वन मेंपर प्रतिबिंबित हुये रीछ बानर के मन में।और आज भी अपनी संस्कृति की सीता को,हर ले गया प्रपंची कोई परदेसी हो।

वीर देश के ओ सिपाहियो! तुम्हें निमंत्रण,अब रावण से नहीं स्वयं से ही लड़ना है।

अपना घर? हाँ साथी अपना ही घर है यह,किन्तु कहाँ अपनत्व रह गया है जीवन में?भाई में भ्रातृत्व कहाँ है आज भरत-सा?शक्ति कहाँ? अंजनि सुत जैसी-मन लक्ष्मण-सीकहाँ गई वे मर्यादायें वर्णाश्रम की?पावनता खो गई कहाँ मुनि के आश्रम की?

भारत के ओ धर्म जीवियो! तुम्हें निमन्त्रण,जन-जन को फिर आज मनुजता सिखलाना है।

सत्कर्मों की पुण्य पताका हम फहरायें,सज्जनता और प्यार आज घर-घर में लायें,परित्यक्ता सी अपनी संस्कृति की सीता को,करके मृदु मनुहार, चलो वापस ले आयें,फिर चाहे जितने बिद्द जायें काँटे पथ पर,कितनी ही बाधायें आयें विविध वेष घर,

सद् पथ के ओ सुदृढ़ राहियो! तुम्हें निमंत्रण।अपने जैसे ही अनेक निर्मित करना है॥

*समाप्त*


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