सेवा-धर्म हमारे जीवन का अंग बने

January 1968

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सेवा धर्म ही अध्यात्म का प्रतिफल है। परमार्थ पथ पर अग्रसर होने वाले को सेवा-धर्म अपनाना होता है। जिसके हृदय में दया, करुणा, प्रेम और उदारता है वही सच्चा अध्यात्मवादी है। इन सद्गुणों को- दिव्य विभूतियों को- जीवन क्रम में समाविष्ट करने के लिए सेवा धर्म अपनाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। भारतीय धर्म में दान का अत्यधिक महत्व है। छोटे से लेकर बड़े तक- संकल्प छोड़ने से लेकर देव दर्शन तक कोई काम दान के बिना आरम्भ नहीं होता। दान-पुण्य यह दोनों शब्द एक तरह से पर्यायवाची बन गये हैं। दान में ही पुण्य है, पुण्य तभी होगा जब दान किया जाय। यह मान्यता सिद्धांततः ठीक है। भगवान किसी की आन्तरिक उदारता देख कर ही प्रसन्न होते हैं। आत्मा का साक्षात्कार सद्गुणों के बिना सम्भव नहीं। उत्कृष्टता और उदारता का समन्वय सेवा धर्म में है। दान सेवा का ही एक छोटा रूप है।

मोटी परिभाषा में किसी को धन देने का नाम दान माना जाता है, पर यह दान का बहुत ही भौंड़ा अर्थ है। अविवेकपूर्वक प्रयोग से तो यह अर्थ एक प्रकार से अनर्थ ही उत्पन्न कर देता है। दान के नाम पर आजकल तथाकथित धर्मजीवी लोगों का व्यवसाय चलता है। मुफ्त के माल पर गुलछर्रे उड़ाकर यह निकम्मे लोग, जनता को अन्धविश्वास एवं भ्रम जंजाल में फँसाते हैं। यह दान नहीं दान के अर्थ का अनर्थ है। आपत्तिग्रस्त लोगों की उतनी सहायता करनी चाहिए जिससे वे अपने पैरों पर खड़े होने लायक हो जायें, जो लोक-मंगल में अपना सारा जीवन निछावर किये हुए हैं ऐसे ब्राह्मणों की निर्वाह व्यवस्था करना भी दान है। व्यक्तिगत रूप से इन दो ही प्रयोजनों के लिए खर्च किया धन दान है। असली दान तो जनमानस में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए होने वाले प्रयासों में है। दान केवल धन का ही नहीं होता, धन दे सकने की स्थिति तो इस घोर आर्थिक तेजी के जमाने में किन्हीं विरलों में ही होती है। फिर ऐसे अधिकारी पात्र भी ढूंढ़ें नहीं मिलते जिन्हें देने पर धन की सार्थकता मानी जाय। सर्व साधारण के लिए उपयुक्त दान पुण्य, श्रम, समय, बुद्धि देकर किये जाने वाले पारमार्थिक कार्यों से ही हो सकता है। अपनी आजीविका का एक अंश भी इस प्रकार के सत्कार्यों में लगाया जा सकता है। सेवा धर्म का यही स्वरूप है। जिन प्रयत्नों से यह संसार अधिक सुन्दर, अधिक समुन्नत, अधिक उत्कृष्ट, अधिक सद्भावना युक्त, अधिक समर्थ बने वे ही सेवा धर्म की सच्ची भूमिका प्रस्तुत करते हैं। मुफ्त में अनधिकारियों को लाभ देने के प्रयास सस्ती वाहवाही दे सकते हैं पर उससे मुफ्तखोरी की दुष्प्रवृत्ति ही बढ़ती है। अन्न-क्षेत्र, प्याऊ, धर्मशालाएँ चलाने और ब्रह्मभोज करने में लोग दान पुण्य का आभास मान लेते हैं। वस्तुतः होना यह चाहिए कि श्रम करके भोजन पाने की, रस्सी बाल्टी से पानी खींच कर पानी पीने की, उचित किराया देकर ठहरने की और जो लोक-मंगल में लगे हैं उन्हीं ‘ब्राह्मणों’ के निर्वाह की व्यवस्था की जाय। जो आसानी से अपना काम चला सकते हैं, आर्थिक तंगी में नहीं हैं, उन्हें मुफ्त में लाभ देना एक निरर्थक ही नहीं, हानिकारक प्रयोग है। इसलिए लोग दूसरों का दान निर्लज्ज होकर स्वीकार करते हैं जबकि उसे स्वीकार करना केवल अपंग, असमर्थों अथवा लोकसेवियों को ही चाहिये।

सेवा धर्म अपनाये बिना किसी श्रेयार्थी का लक्ष्य पूरा नहीं हो सकता। इसलिए उसका समावेश जीवन क्रम में निश्चित रूप में करना चाहिए पर साथ ही यह भी परख लेना चाहिए कि अपना प्रयत्न संसार में सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए- विश्व-मानव की भावनात्मक सेवा की कसौटी पर खरा उतर रहा है या नहीं? युग-निर्माण योजना एक प्रकार की सार्वभौम आध्यात्मिक उपासना है। शतसूत्री कार्यक्रम इसी दृष्टि से हैं कि मनुष्य उन्हें अपनाकर सेवा धर्म की सार्थक साधना कर सके और अपना तथा समस्त संसार का सच्चा हित साधन कर सके। परिस्थिति के अनुरूप कौन क्या सेवा कर सकता है इस बात को ध्यान में रखकर अनेक प्रकार के सेवा कार्यों की एक सूची बनाई गई है, जिनमें सौ तरह के सेवा कार्य हैं। उनका विस्तृत उल्लेख एक रुपया मूल्य की ‘हमारी युग-निर्माण योजना’ पुस्तक में है। उनमें से कुछ चुने हुये सूत्र इस लेख में प्रस्तुत किये जा रहे हैं ताकि सामूहिक सत्प्रयत्नों के अंतर्गत उनका समावेश करके सेवा धर्म की सार्थक साधना कर सकें-

(1) सबसे पहली और सबसे आवश्यक सेवा अपनी है। अपने भीतर उत्कृष्टता का अभिवर्धन करना संसार की तथा ईश्वर की सबसे बड़ी सेवा है। हम उत्तम बनें तो ही समाज संसार तथा वातावरण उत्तम बनेगा। इसके लिए गत अंक में पाँच वैयक्तिक साधना कार्यक्रमों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों के परिष्कार के लिए कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग की साधना सर्वोपयोगी और सर्व सुलभ है। इस प्रक्रिया को हम सभी अपनावें। निष्ठापूर्वक इसे नित्य कार्यान्वित करें। इस माध्यम से हमारी अन्तःभूमिका दिन-दिन उत्कृष्ट, पवित्र और समर्थ बनती चली जायेगी। इस उपलब्धि द्वारा हम आत्मा और परमात्मा की सच्ची सेवा कर सकेंगे। पाँच वैयक्तिक कार्यक्रम ये हैं-(1) हर दिन नया जन्म हर रात नई मृत्यु (2) जन्म दिवस की प्रेरणा (3) ज्ञानयज्ञ के लिए एक घण्टा समय, दस पैसा नित्य खर्च (4) अविवेक के विरुद्ध सत्याग्रह संघर्ष (5) उपासना में भावना का समावेश।

(2) दूसरा सेवा कार्य सामूहिक स्तर पर नवनिर्माण की आधार शिला रखने वाले कार्यक्रमों को हर जगह उत्पन्न एवं गतिवान बनाने का है। ऐसे पाँच आयोजनों का विस्तृत वर्णन इसी अंक में है। (1) सज्जनों को संगठन सूत्र में संबद्ध करना (2) ज्ञानयज्ञ का व्यापक विस्तार (3) गायत्री जप और यज्ञ आयोजनों का विस्तार (4) किशोरों के लिए एक वर्षीय, वयस्क लोगों के लिए 6 दिवसीय, कार्यनिवृत्तों के लिए चातुर्मासीय प्रशिक्षण (5) रचनात्मक सेवा कार्यों में योगदान। यह प्रवृत्तियां हर जगह चल पड़े ऐसा प्रयत्न किया जाय तो युग-निर्माण योजना की नींव सुदृढ़ आधार पर रखी जा सकती है। और यह प्रक्रिया वह प्रवाह उत्पन्न कर सकती है जिससे सर्वत्र असंख्य रचनात्मक कार्य आगे बढ़ते और सफल होते दृष्टिगोचर होने लगें।

(3) सच्चे देवमन्दिर- ज्ञान मन्दिर- पुस्तकालयों की स्थापना। प्रचलित ढंग के सड़े-गले कूड़ा करकट से भरे पुस्तकालय व्यर्थ हैं, जिनमें दूध थोड़ा और विष अधिक रहता है। श्रेयस्कर पुस्तकें, पत्रिकाएं थोड़ी और विचारोत्तेजक साहित्य भरपूर। ऐसे पुस्तकालय ज्ञानवर्धन नहीं करते वरन् दुष्प्रवृत्तियाँ फैलाते हैं। हमें हर जगह ऐसे पुस्तकालय स्थापित कराने चाहिये जिनमें केवल सृजनात्मक साहित्य हो। चूंकि ऐसी चीजें पढ़ने की जनता में रुचि नहीं, इसलिए पुस्तकें इकट्ठी कर देने से काम न चलेगा। हर पुस्तकालय में एक व्यक्ति ऐसा अवश्य हो जो घर-घर जाकर पुस्तक देने और वापिस लाने का क्रम चलाता हो। उत्तम साहित्य इसी प्रकार लोकप्रिय हो सकता है। और जिनमें ऐसी व्यवस्था है वही पुस्तकालय सार्थक हैं। अब देव मन्दिर नहीं, ज्ञान-मन्दिर बनने चाहिये। इनका पुष्य सर्वोपरि है। कोई नगर पुस्तकालय रहित न हो ऐसा प्रयत्न करें।

(4) व्यायामशालाओं की हर जगह स्थापना। व्यायाम की उपयोगिता बताकर हर नर-नारी, बाल-वृद्ध को उनके उपयुक्त मार्गदर्शन करना। स्वास्थ्य मेले तथा प्रतियोगिताओं का प्रचलन। लाठी तथा अस्त्र-शस्त्र सिखाने की शिक्षा। आसन, प्राणायाम, सूर्य नमस्कार का प्रशिक्षण। नारियों को वैयक्तिक व्यायाम की प्रेरणा। बाल क्रीड़ा उद्यान बनाना। युवकों में सामूहिक व्यायाम के लिए रुचि उत्पन्न करना।

(5) शिक्षा का प्रसार। अपने देश में 20 फीसदी शिक्षा है और 80 प्रतिशत अशिक्षित हैं। इस कलंक को धोना, विशेषतया प्रौढ़ शिक्षा एवं रात्रि पाठशालाओं द्वारा बड़ी आयु के नर-नारियों की शिक्षा व्यवस्था। स्कूलों का अभिवर्धन एवं उनकी उन्नति।

(6) साक्षरता एवं सामान्य ज्ञान अभिवर्धन की व्यवस्था। कन्या पाठशालाओं की स्थापना, घर-घर जाकर कन्याओं को पढ़ाने की प्रेरणा, सिलाई तथा अन्य कुटीर उद्योगों की शिक्षा, प्रेरणाप्रद गीत याद कराना, विचार गोष्ठियां, तीसरे पहर उन्हें एकत्रित होकर उपयोगी सामाजिक शिक्षा प्राप्त करने की व्यवस्था। प्रौढ़ महिलाओं को शिक्षा देकर प्राइवेट रूप से सरकारी परीक्षाओं में सम्मिलित कराने की पाठशालाएँ।

(7) विवाहों में जेवर, दहेज एवं अपव्यय का विरोध, मृत्यु भोज, अन्धविश्वास, बाल-विवाह, अनमेल विवाह आदि कुरीतियों का उन्मूलन, भिक्षा व्यवसाय को मिटाना, नर-नारी को समान नागरिक अवसर मिल सके ऐसी विचारणा को प्रोत्साहन। फैशनपरस्ती मिटाकर सादगी का सम्मान, जाति-पाँति के नाम पर ऊँच-नीच की भावना को हटाना। कन्या पुत्र में भेद न करना। सीमित संतानोत्पादन। मूढ़ताओं को हटाकर विवेकशील समाज की रचना।

(8) चोरी, बेईमानी, छल, शोषण, हराम की कमाई रिश्वत, अकीर्ति, उच्छृंखलता, आलस, श्रमशीलता को हेय मानना। कायरता, अश्लीलता, गाली बकना, विलासिता आदि दृष्प्रवृत्तियों का उन्मूलन। सदाचार, सचाई, सज्जनता, पुरुषार्थ, ईमानदारी, मधुरता जैसी सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन।

(9) माँसाहार तथा जीवों को मार कर बनाई जाने वाली औषधियों का निषेध। पशुओं के साथ निर्दयता न होने देना। मारे हुये पशुओं के चमड़े का त्याग, शिकार खेलने के दुर्व्यसन की रोक, घायल घोड़े, गधे, बैल आदि से काम न लेना न दूसरों को लेने देना। देवताओं को पशु बलि से कलंकित न करने देना, गौ-रक्षण, जीव दया जैसी मानवोचित सत्प्रवृत्तियों का अभिवर्धन।

(10) शराब, गाँजा, चरस, अफीम, तम्बाकू पान दुर्व्यसनों का प्रतिरोध।

(11) शाक, भाजी, फूल एवं वृक्षों का आरोपण, वनस्पति हरियाली बढ़ाना, जहाँ खाली जगह हो वहाँ अन्न उगाना। गो दुग्ध की डेरियाँ चलाना। झूठन छोड़ने की बर्बादी की रोक।

(12) हाथ की चक्की, भाप से पका भोजन, मसालों का प्रचलन घटाना, स्वच्छता की आदत, मुँह ढक कर न सोना, ब्रह्मचर्य पालन जैसे स्वास्थ्यवर्धक नियमों की आदत उत्पन्न करना। साप्ताहिक उपवास का प्रचलन।

(13) मन्दिरों को सामाजिक एवं भावनात्मक प्रेरणा का केन्द्र बनाना, साधु और पुरोहितों को लोक सेवा के कार्य करने की प्रेरणा देना, वानप्रस्थ-आश्रम का पुनः प्रचलन। दीवारों पर आदर्श वाक्य लिखने का आँदोलन।

(14) जन्म दिवसोत्सवों और विवाह दिवसोत्सवों का व्यापक प्रचलन, पुंसवन, सीमन्त, नामकरण, अन्न प्राशन, विद्यारम्भ, यज्ञोपवीत, विवाह, वानप्रस्थ आदि संस्कारों को उत्साहपूर्वक मनाने की प्रथा आरम्भ करना और इन माध्यमों से वैयक्तिक एवं पारिवारिक जीवन उत्कृष्ट बनाने की समग्र शिक्षा देना। आदर्श विवाहों के आयोजन इस उद्देश्य के लिए प्रगतिशील जातीय सम्मेलनों की व्यवस्था।

(15) श्रावणी, कृष्ण जन्माष्टमी, विजयादशमी, दिवाली, गीता जयन्ती, बसन्त पंचमी, शिवरात्रि, होली, गायत्री जयन्ती, गुरु पूर्णिमा आदि पर्वों का सामूहिक रूप से मनाना और उनके माध्यम से जन साधारण को समुचित समाज निर्माण की शिक्षा देना।

(16) हर व्यक्ति को नियमित ईश्वर उपासना करने तथा स्वाध्याय के लिए समय नियत रखने की आवश्यकता अनुभव कराना।

(17) सत्कार्यों का अभिनन्दन, सहकारी उपभोक्ता भण्डार स्थापना, कविता सम्मेलन, अंताक्षरी सम्मेलन, संगीत शिक्षा, प्रेरक गीतों का प्रचलन, आदर्श चित्रों की प्रदर्शनी, प्रेरक अभिनयों की व्यवस्था, जीवन कला के शिक्षण शिविर, धर्म प्रचार की पद यात्रा, गीता सम्मेलन और रामायण सम्मेलनों का आयोजन, प्रेरक सत्य नारायण कथा का प्रवचन।

(18) दुष्प्रवृत्तियों के निवारण और सत्प्रवृत्तियों के हृदयंगम करने के लिए लोगों को तैयार करना और उनसे इस प्रकार के प्रतिज्ञापत्रों पर हस्ताक्षर कराना।

(19) युग-निर्माण शाखाओं के वार्षिकोत्सवों का सर्वत्र आयोजन।

(20) नवनिर्माण के लिए जीवन अर्पण करने वाले सुयोग्य नर-नारियों की एक बढ़ी सेना संगठित करना। जिनकी निजी आजीविका है वे उससे गुजर करते हुये सामाजिक कार्य करें। जिन पर पारिवारिक जिम्मेदारी नहीं है वे निर्वाह मात्र लेकर समाज का काम करें। जिनके ऊपर बड़े परिवार की जिम्मेदारी है वे थोड़ा समय उसी में से निकाला करें। इस प्रकार नवनिर्माण के लिए समय देने वाले जितने सुयोग्य और ईमानदार व्यक्ति मिल सकें उन्हें ढूढँना चाहिए। और नवनिर्माण के लिए उत्साहपूर्वक जुट जाने की प्रेरणा देनी चाहिए। युग निर्माताओं की एक बड़ी सेना संगठित करना निताँत आवश्यक समझा जाय।

संक्षिप्त में यह बीस आधार ऐसे हैं जिनमें शतसूत्री योजना का सार आ जाता है। हममें से हर व्यक्ति को इन कार्यों के लिए सचेष्ट रहना चाहिए। शाखा संगठन के द्वारा मिल-जुल कर इन प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिए स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप कुछ काम करने का उपाय सोचना चाहिए और जहाँ जो बन पड़े उसे कार्यान्वित करना चाहिए। नवनिर्माण का क्षेत्र व्यापक है। शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, राजनैतिक हर क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है। जिनकी क्षमता जैसी है वे वैसी प्रवृत्तियाँ अपने क्षेत्र में बढ़ावें। संगठित और सामूहिक रूप से हर कार्य अधिक अच्छी तरह होता है, इसलिए एकाकी ही न लगे रहकर संगठन करना चाहिए और सम्मिलित रूप से कार्य करना चाहिए। शाखाओं के संगठन इसी उद्देश्य से किये जाते हैं। रचनात्मक कार्य में रुचि लेकर हम सेवा धर्म के सच्चे अनुयायी और अनुगामी बन सकते हैं। इसी मार्ग पर चलते हुए अपना और सबका कल्याण किया जा सकता है।


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