विचार बदलें-तो युग बदले

January 1968

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मनुष्य जैसा कुछ दिखाई पड़ता है-समाज का जैसा भी कुछ स्वरूप है, वह उसमें सन्निहित तात्कालिक विचारधाराओं का प्रतिबिंब मात्र है। मान्यताएँ एवं आस्थाएँ ही हैं जो अन्तःकरण में आकाँक्षा, प्रेरणा बनकर विकसित होती है और उन्हीं के आधार पर क्रिया-कलापों का सृजन होने लगता है। व्यक्ति जो कुछ करता दिखाई पड़ता है वस्तुतः उसकी जड़ में वे मान्यता ही हैं जो उसके अन्तःकरण में बद्धमूल होकर प्रतिष्ठापित हो गई हैं। विभिन्न मनुष्यों और विभिन्न समाजों के बीच क्रियाकलाप एवं रहन-सहन का जो स्तर दिखाई पड़ता है उसका कारण और कुछ नहीं उनकी आस्थाओं में सन्निहित भिन्नता मात्र ही है। जिन आदर्शों और मान्यताओं को मनुष्य अपना लेता है, उसी के अनुरूप उसकी गतिविधियों का सृजन होता रहता है।

सन्त इमरसन ने एक महत्वपूर्ण भविष्य-वाणी की थी कि “भविष्य में संसार से युद्धों का अन्त सदा के लिए हो जायेगा” उनका कथन था कि आज लोगों के मनों में शत्रु, आक्रमण, योद्धा, संपत्ति, संघर्ष, विजय की जो विचारणा उत्पन्न और प्रतिष्ठापित करदी गई है वही युद्धों का कारण है। भविष्य में विश्व-बन्धुत्व, विश्व-नागरिकता, विश्व परिवार के विचार उत्पन्न होंगे और विजय के स्थान पर त्याग और सेवा में लोग रस लेने लगेंगे। तब कोई किसी का शत्रु न रहेगा। हर कोई किसी की सहायता करने की बात सोचेगा। मानवीय प्रकृति में इस प्रकार का अंतर लाया जाना पूर्णतया संभव है। संसार का बुद्धिजीवी वर्ग प्रबल प्रयत्नों के द्वारा यह कर सकता है। विचारधाराओं और आस्थाओं के परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य की प्रकृति बदल आयेगी। फलतः युद्धों का भी अन्त हो जायेगा।”

यह भविष्य-वाणी केवल कल्पना नहीं एक सुनिश्चित सचाई है। भविष्य में जन-मानस का वन निर्माण होगा। विचार-क्राँति का एक तूफान आयेगा और उस तूफान में आज की समस्त कुंठाएं और विकृतियाँ हलके-फुलके तिनकों की तरह उड़ कर तितर-बितर हो जायेंगी। नये विचारों के अनुरूप नया समाज बनेगा। नया व्यक्ति ढलेगा। नई परम्परायें प्रतिष्ठापित होंगी और नई गतिविधियों की नई हलचलें सर्वत्र दृष्टिगोचर होने लगेंगी।

यह सोचना ठीक नहीं कि वर्तमान कुत्सित मान्यताओं में मनुष्य को कोई सुविधा, आकर्षण, सुख अथवा लाभ है और भावी उत्कृष्ट विचारधाराएँ अपनाने पर उसे असुविधाओं एवं कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा, इसलिए लोग वर्तमान रीति-नीति छोड़ कर नई रीति-नीति अपनाने के लिए प्रस्तुत न होंगे। सचाई कुछ दूसरी ही है। आज की मान्यताएँ जीवन को बहुत ही भारी, बहुत ही खर्चीला, बहुत उलझा हुआ और कष्टसाध्य बनाए हुए हैं। इस भार को ढोने में उसकी कमर टूटी जा रही है। बाहर से कोई जरा भी शौक-मौज की बात भले ही कहले, करले पर अन्तरंग खोल कर देखा जाय जो वहाँ कष्ट, व्यथा, कुढ़न, झुँझलाहट, अशाँति, खीज और असन्तोष के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। हर स्तर का व्यक्ति अपने अन्तरंग में अपने ढंग की लगभग ऐसी ही स्थिति बनाये बैठा है। अपने साथियों से-अपनी परिस्थितियों से-किसी को सन्तोष नहीं है। बाह्य और अन्तरंग जीवन में हर व्यक्ति असंतुष्ट पाया जायेगा।

चूँकि उत्कृष्ट विचारों की दुनियां का व्यावहारिक स्वरूप हमारी आँखों के आगे स्पष्ट नहीं है, वैसी स्थिति देखने को कहाँ मिले- कहीं वैसे दृश्य आँखों के आगे नहीं आते, इसलिए बात पूरी तरह समझ में नहीं आती। यदि कहीं ऐसा समाज अथवा वातावरण सामने आ जाय जिसे देखकर उत्कृष्ट जीवन की सुविधाओं का अनुमान लगाया जा सके तो निश्चित रूप से लोग उन स्थितियों में अपने को बदलने के लिये तैयार हो जायेंगे और यह अनुभव स्पष्टतया करेंगे कि कुत्सित आस्थाओं को लेकर भारभूत जीवन जीने की अपेक्षा उत्कृष्ट विचारणाओं को अपना कर जीना कितना सरल, सुखद, शाँति और उल्लास से परिपूर्ण है। वह दिन आयेगा-लाया जायेगा-जबकि लोग निकृष्टता की कष्टकर विभीषिका ही हानि को समझेंगे और उसे घृणापूर्वक परित्याग करेंगे। वह दिन आयेगा-लाया जायेगा-जबकि लोग उत्कृष्टता की सुखद सम्भावनाओं का मूर्तिमान देखेंगे और उसे निष्ठापूर्वक हृदयंगम करने के लिए तत्पर होंगे। नवयुग बदला हुआ दृष्टिगोचर होगा। तब सन्त इमर्सन की भविष्य-वाणी के अनुसार केवल युद्धों का ही अन्त नहीं होगा, वरन् रोग, शोक, ईर्ष्या, उद्वेग, अभाव, असन्तोष आदि सभी विकृतियों का समाधान हो जायेगा। तब मनुष्य परस्पर परिपूर्ण स्नेह सद्भाव के साथ रहेंगे। उन परिस्थितियों में मनुष्य को देवता और समाज को स्वर्ग कहने-मानने-में किसी को कोई आपत्ति न रह जायेगी।

यह परिवर्तन तोप, तलवारों से संभव नहीं। दण्ड, कानून के प्रतिबन्धों का प्रभाव केवल शरीर पर पड़ता है। शरीर रोक, रखा जाय और मन प्रतिकूल दिशा में चले तो वह प्रतिबन्ध देर तक कायम नहीं रह सकते। मनुष्य इतना चतुर है कि अपनी अन्तरंग आकाँक्षाओं की पूर्ति के लिये प्रतिबन्धों को तोड़ कर कोई न कोई गुप्त-प्रकट मार्ग निकाल लेता है। किसी को मार भी डाला जाय तो उसकी आत्मा नये जन्म में फिर उन्हीं पूर्व संचित संस्कारों के अनुरूप काम करना शुरू कर देती है। व्यक्ति का परिवर्तन उसके विचारों का परिवर्तन ही है। आस्थाएँ बदलने से व्यक्ति का दृष्टिकोण बदलता है और उसकी सारी क्रिया पद्धति ही बदल जाती है। जो व्यक्ति आज नरक में पड़ा हुआ है- दूसरों को नरक में घसीट रहा है- वह यदि भावनात्मक स्तर पर पलटा खा जाय तो उसकी सारी गतिविधियाँ उलटी हो सकती हैं। वही अपने लिए स्वर्गीय दृष्टिकोण सृजन करके उत्कृष्ट जीवन जी सकता है और अपने समीपवर्ती वातावरण में स्वर्गीय सुगन्ध से हर किसी को आनन्द विभोर कर सकता है। असली परिवर्तन दृष्टिकोण का-विचारधाराओं का परिवर्तन ही है, जिसके आधार पर व्यक्ति ही नहीं समाज संसार और युग सब कुछ बदला जा सकता है।

जन आस्थाएँ बदलने के लिए ऐसे दृश्य और अवसर विनिर्मित किए जाने चाहिये जिन्हें प्रत्यक्ष देख कर लोग यह अनुमान लगा सकें कि उत्कृष्ट विचारणाएँ एवं आस्थाएँ किस प्रकार की परिस्थितियाँ उत्पन्न कर सकती हैं। यह प्रयोग और परीक्षण लोगों को वस्तुस्थिति समझाने में सहायक सिद्ध होंगे। ऐसे आश्रमों की, परिवारों की, छात्रावासों की, सहकारी निर्वाह समितियों की स्थापना इस दृष्टि से बहुत उपयोगी रहेगी, जिसमें उत्कृष्ट जीवन स्तर के दृष्टिकोण सम्पन्न व्यक्ति साथ-साथ रह कर उत्कृष्ट जीवन जियें और उपलब्ध सुविधाओं की जानकारी सर्व साधारण को देकर उन्हें वैसे ही अनुकरण की प्रेरणा दें। लोग बुरी बातों की नकल कर सकते हैं तो अच्छाई की भी नकल करेंगे। बुराई से अच्छाई की शक्ति अधिक है। इसलिए बुराई जिस तेजी से फैलती है अच्छाई यदि ठोस तथ्यों पर आधारित हो तो उससे भी अधिक तेजी के साथ फैल सकती है।

पर यहां तो बहुत आगे की बात हो गई। अभी तो हमें क-ख-ग-घ शुरू करना है। उत्कृष्ट मनोभूमि के लोग हैं कहाँ, जिनका समूह एकत्रित किया जाय? उत्कृष्टता एक दिन में पैदा नहीं होती वह बहुत समय के स्वाध्याय, सत्संग, चिंतन, मनन से क्रमशः उत्पन्न और परिपक्व होती है। जो भावावेश में एक ही क्षण दुर्जन से सज्जन बन जाते हैं उन्हें फिर फिसल कर दूसरे ही दिन अपनी पुरानी जगह पहुँचने में देर नहीं लगती। इसलिए नई दुनियाँ बसाने के लिए आज जो क्रम शुरू किया जाता है वह यह है कि उत्कृष्टता की विचारणा का वैज्ञानिक और बुद्धिसंगत, तर्क और प्रयासों से परिपुष्ट स्वरूप जन साधारण की मनोभूमि तक पहुँचाने के लिए अथक प्रयत्न किया जाय।

पिछले दिनों धर्म और अध्यात्म की शिक्षा शास्त्र वचन, ऋद्धि-सिद्धि, देवता की प्रसन्नता, स्वर्ग-मुक्ति जैसे पारलौकिक अप्रत्यक्ष आधारों पर दी जाती रही है। अभी भी कथा प्रवचनों का वही आधार चल रहा है। इस बुद्धिवादी युग में वे आधार अप्रामाणिक माने जा रहे हैं और उनकी उपेक्षा की जा रही है। इस उपेक्षा के पीछे एक कारण धर्म का वह स्वरूप भी है जो किसी समय श्रद्धालु मनोभूमि के लिए समाधानकारक रहा होगा पर आज बुद्धिवादी युग में तर्क और प्रमाण की कसौटी पर अपनी उपयोगिता सिद्ध नहीं कर पाता। फलतः लोग उसे संदिग्ध प्रामाणिक एवं काल्पनिक कहकर उपेक्षा में डाल देते हैं। धर्म का वास्तविक स्वरूप वैसा पोला नहीं है जैसा कि आज समझा और समझाया जाता है। उसके पीछे ठोस आधार है। तर्क, प्रमाण और सच्चाई के आधार पर धर्म में अध्यात्म के सिद्धांत पूरी तरह खरे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि समय के अनुरूप बुद्धिसंगत ढंग से उस उत्कृष्ट विचारधारा को प्रस्तुत किया जाय। यह आवश्यकता और ठीक ढंग से पूरी की जा सके तो कोई कारण नहीं कि वर्तमान पीढ़ी उसे स्वीकार न करे। साम्यवाद की नई विचारधारा बुद्धि संगत ढंग से प्रस्तुत की गई तो मास वर्ष के भीतर संसार की आधी से अधिक आबादी ने उसे स्वीकार ही नहीं कार्य रूप में परिणत करना भी आरम्भ कर दिया। अध्यात्मवाद-साम्यवाद की तुलना में कहीं अधिक स्थायी, कहीं अधिक उत्कृष्ट- कहीं अधिक सर्वांगपूर्ण- कहीं अधिक भावनात्मक है। इसलिए यदि उसे बुद्धिसंगत ढंग से प्रस्तुत किया जा सके तो कोई कारण नहीं कि जनता उसे स्वीकार न करे और लोक रीति में उसे उचित स्थान न मिले।

‘युग-निर्माण-योजना’ के अंतर्गत इसी महत्वपूर्ण कार्य को सर्वोपरि तत्परता के साथ हाथ में लिया गया है। उत्कृष्टता की अध्यात्म विचारधारा को आज की परिस्थितियों के साथ मिलाकर इस ढंग से विनिर्मित किया जा रहा है कि उसे हर व्यक्ति ठीक तरह समझ सके और उसकी उपयोगिता स्वीकार कर सके। नई दुनियाँ बना सकने योग्य- उत्कृष्ट विचारधारा के निर्माण का कार्य जिस ढंग से किया जा रहा है उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा हर विचारशील और दूरदर्शी बुद्धिजीवी ने की है। यह तथ्य एक स्वर से स्वीकार किया जा रहा है कि युग-निर्माण की विचारधारा यदि ठीक तरह समझी और समझाई जा सके तो निश्चित रूप से लोगों के दृष्टिकोण बदल सकते हैं, उन्हें नए ढंग से सोचने का आधार मिल सकता है। इस आधार पर व्यक्ति और समाज की नई गतिविधियों का- नई रीति-नीतियों का सृजन किया जा सकता है।

ऐसी विचारधाराओं के निर्माण का कार्य अत्यन्त सस्ते और अत्यन्त प्रेरक साहित्य के रूप में ‘युग-निर्माण योजना’ के केन्द्रीय कार्यालय द्वारा किया जा रहा है। 200 के लगभग निबन्ध तथा 100 के करीब जीवन-चरित्रों की ट्रैक्ट सीरीजें प्रस्तुत हो चला। और भी बहुत कुछ लिखा जाने को है। अनेक भाषाओं में इनके अनुवाद की तैयारियाँ हैं। पर लिखते या छापते चलने से ही कुछ काम नहीं बनने वाला है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण कार्य है-इन विचारों को जन-जन के मन-मन तक पहुँचाने की प्रचार प्रक्रिया। यदि उसकी व्यवस्था न हो सकी तो यह सारी लिखाई, छपाई कूड़े-कचरे के ढेर में पड़ी सड़ती रहेगी और चूहे दीमकों की खुराक बन कर-पंसारियों के यहाँ रही की पुड़ियाओं में बँध कर नष्ट हो जायगी। निर्माण जितना महत्वपूर्ण है-प्रसार उससे भी महत्वपूर्ण है। निर्माण एक या कुछ व्यक्ति भी कर सकते हैं पर प्रसार के लिए तो अनेक व्यक्तियों का श्रम एवं मनोयोग चाहिये। यदि हम यह व्यवस्था ठीक तरह बना सकें तो समझना चाहिए कि व्यक्ति-निर्माण की समाज-निर्माण की एक बहुत बड़ी मंजिल पार करली।

यह भली-भाँति समझ लिया जाना चाहिए कि व्यक्ति और कुछ नहीं विचारणाओं और आस्थाओं का प्रतीक मात्र है। उसकी समस्त गतिविधियों उसकी अन्तःनिष्ठा की प्रतिबिंब है। समाज व्यक्तियों का समूह ही तो है। जिस स्तर के व्यक्ति होंगे समूह समाज भी वैसा ही होगा। यदि हमें उत्कृष्ट व्यक्ति, उत्कृष्ट-समाज एवं उत्कृष्ट युग अपेक्षित हो तो उसका एकमात्र उपाय यही है कि हर मनुष्य की उत्कृष्ट विचार-धाराओं से लगातार सम्बन्ध रखने की एक सुनियोजित व्यवस्था बनाई जाय। उत्कृष्ट विचारणाओं से प्रभावित व्यक्ति ही- उत्कृष्ट रीति-नीति स्थिर रूप से अपना सकते हैं और उन्हीं की संख्या वृद्धि उत्कृष्टता के नये युग का सृजन कर सकती है।


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