उपासना और साधना का प्रखर समन्वय

January 1968

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‘अखण्ड-ज्योति’ इस अंक से 29 वें वर्ष में चल रही है। गत 28 वर्षों में वह अपने पाठकों की नीति, धर्म, सदाचार, संयम, प्रेम, परमार्थ जैसे मानवीय सद्गुणों की शिक्षा देती रही है। विभिन्न स्तर के विभिन्न आधार पर लिखे गये उसमें जो लेख छपते रहें हैं उनके दो ही प्रयोजन रहे हैं, कि व्यक्ति अपने अन्तरंग जीवन में अधिक सद्भावना-सम्पन्न और बाह्य जीवन में परमार्थ-परायण बने। यही मार्ग ईश्वर प्राप्ति का है, यही आत्म कल्याण है। इसी पर चलने से लौकिक सुख मिलता है और पारलौकिक शाँति। समस्त ऋद्धि सिद्धियाँ उसके करतलगत हैं जिसने तपस्यायुक्त और उत्कृष्ट जीवन पद्धति अपनाई। जिसने यह राजमार्ग छोड़कर किसी मंत्र-तंत्र या पूजा पत्री के सहारे श्रेय साधन की पगडंडी ढूंढ़ी और उत्कृष्टता की उपेक्षा की, उसे मन बहलाने का क्षणिक आधार भले ही मिल गया हो, अन्ततः खाली हाथ रहना पड़ा। यही विचार पद्धति लगातार हमने कई वर्षों तक दी है और अपने प्रिय पाठकों की सद्गुण सम्पन्न, सत्कर्म परायण बनाने की लिए प्रयास किया है। इसी प्रयोजन के लिए विभिन्न लेख लिखे हैं।

अब यही पिष्टपेषण सदा जारी नहीं रखा जा सकता है। आखिर एक ही शिक्षा की पुनरावृत्ति कब तक ही जाती रहे? देखना होगा कि इतनी लम्बी अवधि का परिश्रम पाठकों का मनोरंजन एवं ज्ञानवर्धन करने तक ही सीमित रहा या उसने अन्तःकरण में भी कुछ ही दूरी तक प्रवेश करने में सफलता पाई। उन्हीं विचारों की सार्थकता है जो अन्तःकरण में प्रवेश कर, कार्य रूप में परिणित हो सकें। अन्यथा जिस प्रकार अन्य अनेक व्यसन हैं उसी प्रकार पढ़ना भी एक व्यसन मात्र ही कहा जायेगा। पसन्दगी की बात दूसरी है, किसी को तिलस्मी उपन्यास पसन्द आते हैं किसी को धर्म-चर्चा रुचिकर लगती है। हम लोग यही पठन-पाठन के एक व्यसन को ही बढ़ाते रहे तो समझना चाहिये इतनी लम्बी अवधि तक किया गया, इतना कठोर प्रयत्न एक प्रकार से निष्फल ही चला गया।

यदि ऐसा ही हो तो इस विडम्बना की और भी अधिक जारी रखने से क्या लाभ? हमारा चन्द वर्ष कार्य काल रहा है उसे ऐसे ही प्रयत्नों में हमें खर्च करना चाहिये, जिनकी कुछ उपयोगिता हो। अतएव अब प्रशिक्षण मात्र न करते रहकर परिवार का व्यवहारिक मार्ग दर्शन करने की प्रक्रिया अपनाई जा रही है। जो अब तक पढ़ा, सुना, लिखा, कहा गया है, उसे अब कार्यान्वित किया जाना चाहिए। जो खाया गया है उसे हजम किया जाना चाहिए।

उच्च विचारों की उपयोगिता तब है जब वे कार्य रूप में परिणित हों। किसी ने उन विचारों का सम्मान किया है इसकी परख भी उन्हें कार्यान्वित किये जाने से ही होती है। अब पढ़ाई बहुत दिन हो चुकी, कितना सीखा, क्या सीखा अब उसकी परीक्षा होनी है। परीक्षा के बिना खरे-खोटे की परख कैसे हो? अब हमें यही रीति-नीति अपनानी होगी। जिन उच्च विचारों को अपनाकर हमने समुन्नत जीवन जिया है उसी प्रकार का लाभ अपने प्रियजनों को भी मिले, इसी कामना से हमारी शिक्षण व्यवस्था चल रही है। यदि उसे इस कान से सुन उस कान से निकाल दिया गया तो फिर वह लाभ कैसे मिलेगा जो उत्कृष्ट विचारधारा का सान्निध्य लाभ करने वाले को मिलना चाहिये? निदान, हमें अब सारी शक्ति इस केन्द्र बिन्दु पर एकत्रित करनी चाहिये कि जो उत्तम है, जो सही है, जो लाभकर है उसे अपनाया भी जाय। कर्म पर अब सारा जोर देना होगा। क्योंकि उसी का अवलम्बन करने से कुछ प्रयोजन सिद्ध होने की सम्भावना है।

विगत अंक में पाँच व्यक्तिगत साधन प्रस्तुत किये गये हैं और प्रत्येक परिजन से अनुरोध किया गया है कि वह उन्हें मनोरंजन के लिये लिखा गया लेख मात्र न समझें वरन् कार्य रूप में परिणित करने का प्रयत्न करें। यह पंचसूत्री साधना पद्धति अति सरल है, उसमें कोई ऐसी कठिनाई नहीं है जो किसी को भारभूत प्रतीत हो, या जिसे करने में असमर्थता प्रकट करनी पड़े। अति सरल होते हुए भी वह अति प्रभावशाली है। उसे यदि श्रद्धा, तत्परता और नियमिततापूर्वक कार्यान्वित किया जाता रहे तो थोड़े ही समय में यह दिखाई पड़ने लगेगा कि अपने भीतर कितनी अधिक उत्कृष्टता का, कितनी तेजी से अभिवर्धन हो रहा है। यह अनुभूत प्रक्रिया है। अपने व्यक्तिगत जीवन में हम देर से इन्हीं प्रयोगों को चला रहे हैं। अतएव चिर-संचित अनुभव के आधार पर यह कह सकते हैं कि इस दिशा में उठाया हुआ प्रत्येक कदम आशाजनक सफलता उपस्थित करता है।

हम तीन शरीर धारण किये हुए हैं स्थूल, सूक्ष्म और कारण। इन तीनों के परिष्कार का राजमार्ग कर्म-योग, ज्ञान-योग और भक्ति ही अनादि काल से प्रचलित है। अन्य साधनों में किन्हीं विशिष्ट व्यक्तियों को ही सफलता मिलती है पर यह त्रियोग साधन पद्धति सर्व साधारण के लिये है। हर आयु का, हर स्थिति का, हर व्यक्ति समान रूप से इसका लाभ उठा सकता है। इसलिए परिजनों को कहा गया है कि वे उसे अपनायें। हम उनकी भरपूर सहायता करेंगे और उस सफलता के समीप तक पहुँचाने की चेष्टा करेंगे, जहाँ वे अपने भीतर नवजीवन, नव प्रकाश एवं नव-उल्लास का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकें।

(1) कर्मयोग की साधना का गुरु मन्त्र है- “हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत”। प्रातःकाल उठते ही कल्पना करें कि हमें आज का नया जन्म मिलेगा और उसे भावना तथा व्यवहार दोनों स्तरों का आदर्श एवं उत्कृष्ट बनाने का प्रयत्न करेंगे। दिनभर की ऐसी दिनचर्या चारपाई पर पड़े-पड़े ही तैयार करली जाय, जिसमें एक क्षण भी समय बर्बाद करने की गुंजाइश न हो, आलस्य और प्रमाद के लिए कोई अवसर न हो, और उस दिनचर्या की पूरी सावधानी एवं पूरी कड़ाई के साथ दिन भर ठीक तरह से चलते रहने ही तत्परता बरती जाय। इसी प्रकार सवेरे ही सोच लिया जाय कि आज दिन में किस अवसर पर किस प्रकार ही दुर्भावना मन में उठने की गुंजाइश है। उस अवसर पर किन उच्च विचारों से उन दुर्भावनाओं का समाधान किया जाय, इसकी मानसिक रूपरेखा भी ली जाय। इस प्रकार सारा दिन परिपूर्ण पवित्रता और कर्तव्य परायणता के साथ निर्धारित कार्य पद्धति के अनुसार व्यतीत किया जाय। रात को सोते समय अपनी हर सम्पदा, हर प्रिय वस्तु एवं हर स्वजन सम्बन्धी को, भगवान् की धरोहर मात्र समझ कर उस पर से ममता हटाते हुए वैराग्य भाव से निद्रा देवी की गोद में-भगवती माता के आंचल में अपनी चेतना को लय कर दिया जाय। इसे उस आदर्श दिन की आदर्श-मृत्यु माना जाय।

देखने सुनने में यह साधारण-सी बात है, पर इस प्रयोग को नित्य नियमित रूप से सतर्कता एवं तत्परता के साथ जारी रखा जाय तो थोड़े ही दिनों में अपनी मनोभूमि में आशाजनक परिवर्तन होता है और लगता है कि महा मानवों जैसी अन्तःचेतना अपने भीतर उत्पन्न एवं विकसित हो रही है। कलुषित एवं गया गुजरा जीवन क्रम तेजी से बदल जाता है और ऐसा अनुभव होता है मानों आन्तरिक कायाकल्प ही हो चला, यही स्थिति सच्चे अध्यात्मवादी की होती है। इस स्थिति में कितना सन्तोष, आनन्द एवं उल्लास बढ़ता चलता है, इसे कोई भी साधक प्रत्यक्ष अनुभव कर सकता है।

(2) ज्ञानयोग की साधना के अंतर्गत दो कार्यक्रम हैं, एक जन्म दिन मनाना, दूसरा स्वाध्याय-सम्वर्धन। नियत जन्म तिथि पर एक छोटा उत्सव आयोजन हर साधक करे और उस दिन अपने जीवन का स्वरूप, उद्देश्य एवं उपयोग के बारे में बारंबार गम्भीर विचार किया जाय।

जन्मोत्सव तो एक दिन का होता है, जो घण्टे में उत्सव समारोह और एक दिन में उत्साह आनन्द समाप्त हो जाता है। पर जन्म दिन की स्मृति में अपने आप से तीन प्रश्न हर दिन या जब भी अवसर मिले पूछते रहा जाय। (1) भगवान् को सभी प्राणी समान रूप से प्रिय हैं, फिर मनुष्य को ही बोलने, सोचने, लिखने एवं असंख्य सुविधायें उपलब्ध रखने का अनुदान क्यों मिला? मनुष्य को हर दृष्टि से उत्कृष्ट स्तर का प्राणी बनाने में उतना श्रम क्यों किया? (2) जो सुविधायें, विभूतियाँ, सम्पदायें हमें उपलब्ध हैं उनका लाभ यदि हम अकेले ही उठाते हैं तो क्या यह उचित है? (3) क्या इस सुर दुर्लभ मानव शरीर का यही सदुपयोग है जो हम कर रहे हैं? इन तीनों प्रश्नों का उत्तर सहज ही अन्तःकरण में इस प्रकार उठेगा। (1) अपने उद्यान, इस संसार को अधिक सुन्दर और अधिक सुव्यवस्थित बनाने के लिये परमेश्वर को साथी सहचरों की जरूरत पड़ी, फलतः अपनी क्षमताओं से सुसज्जित एक सर्वांगपूर्ण प्राणी- मनुष्य इस प्रयोजन की पूर्ति के लिये बनाया। उसे विशेष साधन सुविधायें इसलिये दीं कि उनके द्वारा ईश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में वह ठीक तरह समर्थ हो सकें। (2) अन्य प्राणियों के अतिरिक्त जितनी बौद्धिक, आर्थिक, प्रतिभा साधन अथवा विशेषतायें हैं वे सब विश्व-मानव की ही पवित्र अमानत हैं। इनका उपयोग लोक मंगल के लिए ही किया जाना चाहिये। शरीर रक्षा भर के आवश्यक उपकरण मात्र लेकर शेष साधनों का उपयोग विश्व कल्याण के लिये ही किया जाना चाहिये। (3) हम सदाचारी संयमी, परिश्रमी, उदार, सज्जन, हँसमुख, सेवा-भावी बने बिना मानव-जीवन को सार्थक नहीं बना सकते। इसलिये इन सद्गुणों का अभ्यास बढ़ाने के लिए जीवन या मन की रीति-नीति में उत्कृष्टता और आदर्शवादिता का-सभ्यता और सज्जनता का- पुरुषार्थ और साहस का समुचित समावेश अवश्य करना चाहिये।

मानव-जन्म का यह दर्शन, आदर्श और उद्देश्य पूरे साल भर तक हर दिन, हर घड़ी, हमारी दृष्टि में घूमता रहे ऐसी प्रेरणा जन्म-दिन के अवसर पर ग्रहण करनी चाहिए।

(3) ज्ञानयोग का दूसरा पक्ष है स्वाध्याय संवर्धन। आज व्यक्ति और समाज को बुरी तरह अज्ञान ने-विपरीत धारणाओं ने जकड़ रखा है। इस अन्धकार का निराकरण और विवेक-सम्मत विचारणा प्रदान करने वाले प्रकाश की आज महती आवश्यकता है। इस आवश्यकता की पूर्ति किये बिना दुःखद परिस्थितियों से- शोक सन्तापों से छुटकारा न मिल सकेगा। इसलिये हमें ऐसी प्रखर विचारणा एवं प्रेरणा उपलब्ध करनी चाहिए जो मनोभूमि को झकझोर कर रखदे और उल्टे मार्ग पर चलने से रोक कर सन्मार्ग पर चलने का साहस प्रदान करे। ऐसी विचार पद्धति युग निर्माण-योजना के अंतर्गत सत्साहित्य के रूप में सृजन की जा रही है। सो हमें ‘अखण्ड ज्योति’ तथा ‘युग निर्माण पत्रिका’ और छोटे ट्रैक्ट मनोयोगपूर्वक स्वयम् पढ़ने चाहिए, अपने परिवार के हर शिक्षित को पढ़ाने और अशिक्षित को सुनाने चाहिये। तथा परिचितों से संपर्क बनाकर इसे पढ़ने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिए।

हर घर में एक छोटा ज्ञान मंदिर- युगनिर्माण पुस्तकालय रहना चाहिये। यही किसी परिवार की वास्तविक सम्पदा है। इस श्रेय साधन के लिये हर व्यक्ति दस पैसा और एक घण्टा समय अनिवार्य रूप से निकाले। ज्ञान यज्ञ की इस साधना को, युग परिवर्तन की आधार शिला समझ कर पूरी श्रद्धा और तत्परता से सम्पन्न करता रहे। झोला पुस्तकालय, इस युग की सबसे बड़ी लोक सेवा है। ज्ञान का प्रसाद बाँटने से बढ़कर और कोई परमार्थ नहीं हो सकता। इसलिये हर कोई झिझक छोड़कर विचार-क्रान्ति के लिये, लोक-मानस निर्माण करने के लिये इस पुण्य प्रक्रिया में उत्साहपूर्ण भाग ले।

(4) भक्तियोग में दो साधना हैं- औचित्य एवं विवेक को स्वीकार एवं कार्यान्वित करने का भावनात्मक साहस और प्रेम तत्व का अन्तःकरण में अभिवर्धन।

भक्त साहसी और शूरवीर होता है, वह प्रलोभनों एवं भयों के आगे झुकता नहीं। जो उचित है, जो सत्य है, उसी का समर्थन करता है। उस पर दृढ़ बना रहता है और उसी को अपनाने में दुनियादारों की सम्पत्ति की परवाह न करते हुए जो विवेक सम्मत है उसी पर अड़ा रहता है। सत् प्रवृत्तियों को अभ्यास में लाते समय अपनी बुरी आदतों से जो संघर्ष करना पड़ता है उसे वीर योद्धा की तरह करता है। अभावग्रस्त और कष्टग्रस्त जीवन जीकर भी वह आदर्शवादिता की रक्षा करता है, इसलिये वह तपस्वी कहलाता है। भक्त को ऐसा अनिवार्य रूप से तपस्वी बनना पड़ता है और वह खुशी-खुशी ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने का यह मूल्य चुकाता भी है।

अपने अन्तःकरण और बाह्य जीवन में आये दिन ऐसे संघर्ष आते रहते हैं जिनमें विवेक को मूढ़ता और सत्य को स्वार्थपरता परास्त करना चाहती है। ऐसे अवसर जब भी आवें हम शूरवीर, साहसी और संघर्षशील अर्जुन की भूमिका प्रस्तुत करना ईश्वरीय सन्देश समझें।

(5) भक्तियोग की दूसरी साधना प्रेमतत्व का भावनात्मक क्षेत्र में अभिवर्धन है। हम चिरकाल से ईश्वर के नाम का उच्चारण और स्वरूप का दर्शन एवं ध्यान मात्र करते रहे हैं। अब हमें उसे एक अभिन्न सहचर और अनन्य प्रेमी के रूप में देखना होगा। इस एकता और आत्मीयता से अन्तःकरण में प्रेम भावना बढ़ेगी। प्रेम ही परमेश्वर है। सच्चे प्रेम की अनुभूति ही ईश्वर की वास्तविक झाँकी है। दीपक पर पतंगा जल कर जैसे द्वैत को अद्वैत में बदलता है एवं जिस प्रकार दो अबोध बालक एक दूसरे के के गले लिपट कर समीपवर्ती बनते हैं उसी प्रकार हमें ईश्वर को अपनी अनन्य श्रद्धा प्रदान करनी चाहिये और बदले में उत्कृष्ट जीवन जीने के लिए आवश्यक प्रेरणा से भरा प्रकाश पाने की अनुभूति करनी चाहिये। हम ईश्वर को श्रद्धा समन्वित आत्म समर्पण करें, वह हमें प्रकाश प्रदान कर रोम-रोम प्रकाशित करे यह ध्यान बहुत ही उच्च स्थिति का है। सखा सहचर और मित्र ही नहीं, ईश्वर को हर घड़ी का साथी और सहयोगी समझें, निर्भय रहें और पवित्र बनें। ऐसी ध्यान भूमिका किसी भी साधक के मन में असाधारण उल्लास उत्पन्न कर सकती है।

ईश्वर के माध्यम से उत्पन्न और अभिवर्धन किया हुआ यह प्रेम तत्व हमारे जीवन के हर क्षेत्र में विकसित हो। हम दयालु, सहृदय, स्नेही, उदार और उपकारी बनें। जो भी अपने संपर्क में आवे उससे भावना भरी सज्जनता का व्यवहार करें। तो हम सच्चे ईश्वर भक्त और भक्तियोग के मर्मज्ञ कहला सकते हैं।

उपासना के समय अथवा जब भी अवसर हो भगवान का ऐसा भावपूर्ण ध्यान करना चाहिये। उपासना भावना का समावेश जितना-जितना होता जायेगा उतनी ही एकाग्रता तन्मयता बढ़ती जायेगी और आत्मा में अनिवर्चनीय आनन्द का अनुभव होने लगेगा।

यह पंचसूत्री साधना क्रम गत दिसम्बर अंक में बताया जा चुका है। यह उसी का सार है। उपासना और साधना दोनों का इसमें समन्वय है। पूजा और अर्चा यह दो साधना के पक्ष हैं। एक में भगवान के सान्निध्य का क्रम किसी निर्धारित समय पर चलाया जाता है। दूसरे में जीवन शोधन और लोकमंगल के लिये तपश्चर्या का परिचय दिया जाता है। जब तक यह उभयपक्षीय पूजा अर्चा एकत्रित नहीं होती तब तक बिजली के दोनों तार मिले बिना प्रकाश न होने की तरह अंतःकरण में अंधेरा ही बना रहता है। इसलिये अखण्ड-ज्योति परिवार के परिजनों को यह समन्वित साधना प्रक्रिया बताई गई है।

आत्म कल्याण के लिए बहुत लेख पढ़े जा चुके और बहुत प्रवचन सुने जा सके। यदि कुछ वास्तविक लाभ प्राप्त करना है तो इस राजमार्ग पर चलने का साहस करना चाहिये, जिस पर चलते हुए हम जीवन का अधिकाँश भाग लगा चुके। इसी प्रयास ने हमें सन्तोषजनक और उल्लास पूर्ण उपलब्धियाँ प्रदान की हैं।


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