जीवन कला और शिक्षा का समन्वित शिक्षण

January 1968

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प्रशिक्षण में दो वस्तु काम करती हैं- एक विचार दूसरा प्राण। विचार सुदूर प्रदेशों तक आसानी से जा पहुँचते हैं किन्तु प्राण की एक निर्धारित सीमा है। वह एक समीपवर्ती सीमित क्षेत्र तक ही अपना प्रभाव छोड़ता है इसलिए प्रेरक प्रशिक्षण के लिए सत्संग एवं सान्निध्य की भी आवश्यकता पड़ती है। विचारों को रेडियो, टेपरिकार्डर आदि वाणी माध्यमों द्वारा, अथवा पत्र, पुस्तक आदि लेखन माध्यमों द्वारा, सुदूर स्थानों तक भेजा जा सकता है। व्यक्ति के न रहने पर भी यह माध्यम किसी मनस्वी व्यक्ति के विचारों द्वारा चिरकाल तक लोगों तक पहुँचते रहते हैं। व्यासजी अब नहीं हैं पर उनकी विचारधारा महाभारत द्वारा- वाल्मीकि की रामायण द्वारा और वशिष्ठ की योगवशिष्ठ द्वारा हम अभी भी प्राप्त कर सकते हैं। किन्तु उन प्रखर आत्माओं द्वारा अपने मुख से अपने समीपवर्ती लोगों को जो कुछ स्वयं सुनाया, सिखाया होगा, उसका लाभ अब प्राप्त नहीं किया जा सकता। क्योंकि अब वे विचार ही उपलब्ध हैं, उन प्राणवानों का प्राण तिरोहित हो गया। अतएव सान्निध्य में ही जो उपलब्ध हो सकता है उस प्राण का लाभ प्राप्त कर सकना हमारे लिए कठिन है।

ऋषियों के आश्रम में गाय-सिंह एक घाट पानी पीते हैं। किन्तु आश्रम से दूर चले जाने पर उसी जंगल में उनका स्वाभाविक बैर फिर उभर आता है और अवसर मिलने पर वही सिंह उसी गाय को चीर-फाड़ कर खा जाता है। कारण स्पष्ट है। ऋषि का प्राण एक सीमित क्षेत्र में- आश्रम की परिधि में उसी प्रकार सक्षम था जैसे भट्टी की गर्मी हवा को थोड़ी दूर तक ही गरम रखती है। वह दायरा समाप्त होते ही विशेषता रहित सामान्य स्थिति आ जाती है। भगवान श्रीकृष्ण ने जो उपदेश अर्जुन को दिये थे वे शब्द अभी भी हमें पढ़ने सुनने को गीता में मिल जाते हैं, पर कृष्ण के व्यक्तित्व और सान्निध्य का प्रभाव पाकर अर्जुन को जो प्रकाश एवं उत्साह मिला था वह हमें नहीं मिलता क्योंकि अब केवल विचार ही उपलब्ध हैं- वह प्रेरक प्राण जो उस समय मौजूद था इस समय प्राप्त नहीं। फलस्वरूप गीता का वह लाभ नहीं मिल पाता जो अर्जुन को मिला था। भगवान बुद्ध के प्रवचन अभी भी उपलब्ध हैं पर उन्हें सुन कर कितने अंगुलिमाल साधु और कितनी अम्बपाली साध्वी बन पाती होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। नारद की शिक्षायें पुस्तकों में लिखी हैं पर उन्हें सुन कर कोई ध्रुव, प्रहलाद, वाल्मीकि जैसी करवट ले पाता होगा यह कहना कठिन है, क्योंकि अब उनके विचार ही उपलब्ध हैं- प्राण नहीं। और यह तथ्य स्पष्ट है कि विचार ही नहीं प्राण भरा व्यक्तित्व भी प्रभाव प्रेरित करने में अपनी उपयोगिता रखता है।

नालन्दा विश्वविद्यालय में प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए संसार-भर के छात्र इसलिए भी आते थे कि वहाँ महामनीषी आचार्यों का व्यक्तित्व विद्यमान था। सुकरात की पाठशाला में राजकुमार पढ़ने आते थे। ऋषियों के गुरुकुलों में उच्च परिवारों के बालक पढ़ने जाते थे, इसलिए नहीं कि पढ़ाई कोई और नहीं पढ़ा सकता था वरन् कारण यह था कि तेजस्वी व्यक्तियों का सान्निध्य अपने आप में एक शिक्षा है। वे वाणी से एक शब्द भी न पढावें तो भी परोक्ष रूप से एक प्रेरक प्रभाव छोड़ते हैं और उस प्रभाव से प्रभावित व्यक्तियों को एक नया प्रकाश, एक नया प्रभाव प्राप्त करने का अवसर मिलता है। यह बीजाँकुर कालान्तर में उन प्रभावित व्यक्तियों को अनेक प्रकार उत्कर्ष प्राप्त करने की सुविधा प्रदान करता है।

संस्कारवान आत्माओं की मूर्च्छा जगाते और स्फुरण भरने के उद्देश्य से एक विशेष तपश्चर्या में चले जाने का हमारा समय अब समीप आ पहुँचा है। केवल साड़े तीन वर्ष शेष हैं। इस अवधि में हमारी यह उत्कट अभिलाषा है कि ‘अखण्ड-ज्योति’ के परिजनों को कुछ समय अपने पास रखकर प्रशिक्षण प्रदान करें। अब घूमना-फिरना हमारे लिए कठिन दिखता है। शरीर अभी से गड़बड़ी फैलाने लगा है। विचार था कि इस अवधि में देशव्यापी दौरा करके परिवार के समस्त परिजनों से मिलने भेंटने का क्रम बनायेंगे, पर अब वह बनता नहीं दिखता। अब इस अवधि का उपयोग गायत्री तपोभूमि में रहकर परिजनों के प्रशिक्षण में करेंगे। अतएव विचार यही किया गया है कि कुछ कार्यक्रमों के अंतर्गत विभिन्न परिस्थितियों और मनोभूमियों के परिजनों को मथुरा बुलाया जाय और उन्हें वह प्राणपूर्ण प्रकाश प्रदान किया जाय जो दूर रहकर केवल पत्र पुस्तकों के माध्यम से प्रदान कर सकना सम्भव नहीं हो सकता।

एक प्रशिक्षण क्रम किशोर बालकों और युवकों के लिए एक वर्षीय प्रशिक्षण का बनाया गया है जो जेष्ठ में गायत्री जयन्ती से आरंभ होकर उसी तिथि तक चला करेगा। इसमें जीवन जीने की कला प्रशिक्षण प्रमुख है। साथ ही कुछ शिल्प भी जोड़ दिए गए हैं ताकि इस शिक्षा के साथ-साथ स्वावलंबनपूर्वक आजीविका कमाने की बात भी सिखाई जा सके। पहले सोचा गया था कि तीन वर्षीय और चार वर्षीय शिक्षण क्रम भी चलाये जायें, पर तपोभूमि में स्थान की कमी है। लम्बी अवधि के शिक्षणों में वह स्थान थोड़े ही छात्र घेरे रहेंगे और बहुत से उत्सुक छात्र उस लाभ से वंचित रह जायेंगे। इसलिए थोड़ों को बहुत लाभ देने की अपेक्षा बहुतों को थोड़ा-थोड़ा लाभ देने की बात अधिक उपयुक्त समझी गई। तदनुसार अब यही तय हुआ है कि एक वर्ष के ‘जीवन क्रिया’ प्रशिक्षण चला करें। इनमें अपने परिवार के जितने युवक किशोरों के लायक स्थान है उतने हर वर्ष बुला लिए जाया करें और उन्हें शिल्प गौण रूप से और जीवन कला प्रधान रूप से सिखा कर एक आदर्श व्यक्ति- नर-रत्न बनाने का प्रयत्न किया जाया करे। इस प्रशिक्षण में एक बहुत ही भावनाशील कर्मठ इंजीनियर भोपाल पोलिटैकनिक में लेक्चरार की ऊँचे वेतन की गजेस्ट्रेड पोस्ट छोड़कर रूखी रोटी खाने के लिए गत एक वर्ष से तपोभूमि में आ गये हैं। श्री बीरेस्वर उपाध्याय इस ‘युग निर्माण विद्यालय’ के प्राचार्य हैं। भगवानदास सुर्यवंशी और श्री केशवदेव उपाध्याय जैसे सज्जनों ने भी अपनी अच्छी नौकरियाँ छोड़कर सेवा भाव से इस विद्यालय के संचालन में अपनी सेवायें दी हैं और अध्यापन कार्य कर रहे हैं। यह ‘टीम’ छात्रों को एक सुसंस्कृत नागरिक ढालने के साथ-साथ शिल्प शिक्षा का उत्तरदायित्व प्रधान रूप से उठाये हुये है। हमारा प्रत्यक्ष और परोक्ष शिक्षण तो है ही। आशा की जानी चाहिये कि जो भी छात्र, एक वर्ष यहाँ रहकर जायेंगे वे अपने साथियों की तुलना में बहुत कुछ ऊँचे स्तर की स्थिति में पहुँचेंगे और अपना तथा अपने परिवार का सच्चे अर्थों में हित साधन करेंगे।

‘युग-निर्माण विद्यालय’ के शिल्प विभाग में चार शिक्षण हैं।

(1) प्रेस सम्बन्धी परिपूर्ण जानकारी जिसके आधार पर स्वयं अपना प्रेस चलाना, किसी प्रेस का मैनेजर बनना अथवा कोई नौकरी पा लेना सरल हो सकता है। प्रेस का उद्योग ऐसा है जो 5-6 हजार की छोटी पूँजी में आरंभ किया जा सकता है। और आसानी से 200 रुपये मासिक के करीब आजीविका हो सकती है। घर के भाई-भतीजों को इस काम में खपाया जा सकता है और स्त्री बच्चे तक को बाइंडिंग की मजूरी मिलती रह सकती है। अगले दिनों शिक्षा प्रसार के साथ-साथ प्रेस काम भी बढ़ने वाला है। इसलिए उद्योग के न तो फेल होने की आशंका है न महंगी सस्ती के चक्कर में घाटा पड़ने की सम्भावना है। सम्मान का पेशा है। नौकरी करनी हो तो भी कम्पोज छपाई आदि की नौकरी कहीं भी मिल सकती है। जो व्यापारिक रहस्य कहीं भी नहीं सिखाये जाते वे हमारे यहाँ इस तरह बता दिये जाते हैं जिनसे सफलता असंदिग्ध हो सके।

(2) दूसरा प्रशिक्षण बिजली विभाग का है। बिजली का करोबार अब दिन-दिन बढ़ फैल रहा है। बिजली से चलने वाले हर तरह के यंत्रों की, मोटरों की मरम्मत, फिटिंग, सुधार, निर्माण, मशीनों में बिजली की फिटिंग आदि हर कार्य भले प्रकार व्यवहारिक और सैद्धांतिक रूप से समझा दिया जाता है। पंखा, रेडियो, हीटर, मोटर आदि बिजली की मुलम्मासाजी, हर बिजली के यन्त्र की ऐसी जानकारी करा दी जाती है जिससे इन सब यन्त्रों को सुधारना लगाना एवं बनाना सम्भव हो सके। इस कारीगरी को जानने वाला कोई भी व्यक्ति कहीं भी अच्छी आजीविका कमाने में सफल हो सकता है। बहुत ही कम पूँजी में इस प्रकार की दुकान खोल सकता है।

(3) कुटीर उद्योगों में- प्लास्टिक के फाउन्टेन पेन, पेन्सिल, खिलौने, बटन, शीशी बनाना। नहाने और धोने के साबुन बनाना। फिनायल, वैसलीन, बूट पालिश, तरह-तरह की स्याहियाँ, माथे की बिंदी आदि रासायनिक वस्तुएँ बनाना। मोजे बुनने की मशीनें चलाना, फीते बुनना, तरह-तरह के खिलौने बनाना, नट-बोल्ट, पेच, कब्जे आदि डाई यन्त्र से बनने वाली बीसियों चीजें काटना। लकड़ी की खराद पर तरह-तरह की वस्तुएं बनाना। जैसे कुटीर उद्योग आदि सिखाये जाते हैं। अभी इस विभाग में ऐसी छोटी-छोटी और भी बिजली तथा हाथ से चलने वाली मशीन लगाई जा रही हैं जो एक हजार से कम पूँजी में चल सकें और चलाने वाले को अच्छी आजीविका दे सकें।

(4) गृह-शिल्प- इसमें घरेलू काम-काज की हर जानकारी दी जायेगी। सूती, ऊनी, रेशमी कपड़ों की सिलाई, धुलाई, रँगाई, रफू करना, बर्तनों की मरम्मत, रँजाई, भलाई, कलई करना। लालटेन, गैस बत्ती, स्टोव आदि की मरम्मत। पलँग, चारपाई तरह-तरह की डिजाइन से बुनना। टूटी चारपाइयों की मरम्मत। ऊनी स्वेटर बुनना। मकानों की पुताई, किवाड़ तथा फर्नीचरों की रँगाई तथा वार्निश, फाउन्टेन पेन, टार्च आदि की मरम्मत, घड़ीसाजी, निर्धूम चूल्हा, दुर्गंध रहित टट्टी, वाष्प द्वारा भोजन पकाना, घर में पुष्प और शाक-भाजी का उत्पादन, घरेलू औषधियाँ आदि अनेक परिवार उपयोगी क्रिया-कौशल।

यह चार वर्ग शिल्प शिक्षण के रहेंगे। इनमें से प्रेस और बिजली के प्रमुख हैं। इनमें से एक में विशेषता प्राप्त करनी होगी। शेष तीन की सामान्य जानकारी करा दी जायेगी। इस तरह एक प्रकार से बीस-तीस छोटे शिल्पों का सामान्य ज्ञान और एक बड़े शिल्प का विशेष ज्ञान उपलब्ध करने वाला छात्र किन्हीं भी परिस्थितियों में कहीं भी अपनी आजीविका अर्जित कर सकता है। उसकी निर्माण बुद्धि का ऐसा विकास हो सकता है जिसके आधार पर उसकी सूझ-बूझ रचनात्मक कार्यों में गतिशील होकर सफलता की अनेक सम्भावनाएँ प्रशस्त कर सके।

जीवन जीने की कला- जिसमें शारीरिक, मानसिक, पारिवारिक, आर्थिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक, साँस्कृतिक, राजनीतिक समस्याओं का समाधान और सुख शांतिमय प्रगतिशील जीवन की सभी कुंजियां उपलब्ध की जा सकती हैं। इस शिक्षण की अपनी विशेषता है। शिल्प भी यों आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है पर वस्तुतः यह शिक्षा ‘जीवन निर्माण’ की ही है जिसकी उपयोगिता एवं महत्ता संसार की अन्य किसी सफलता एवं विभूति के साथ नहीं तोली जा सकतीं।

विचार यह है कि इन चार वर्षों में 60 छात्र प्रति वर्ष के हिसाब से 240 छात्रों का एक वर्षीय प्रशिक्षण हम अपनी देख-रेख में चलायेंगे। यों यह विद्यालय तो पीछे भी चलता रहेगा पर 240 घरों में 240 छात्ररूपी ऐसे चन्दन वृक्ष हम अपने हाथों लगा जाना चाहते हैं जिनकी सुगन्ध से वह परिवार, नगर एवं क्षेत्र सुवासित होता रहे। अस्तु परिवार के हर सदस्य से कहा गया है कि हर घर से कम से कम एक छात्र एक वर्ष के लिए हमें अवश्य दिया जाय। समझ लेना चाहिये लड़का 1 वर्ष फेल हो गया। पीछे उस छूटी हुई शिक्षा में भर्ती किया जा सकता है। यह एक वर्ष किसी भी छात्र के जीवन में एक ऐसी अनुपम उपलब्धि सिद्ध हो सकता है जिसे वह आजीवन स्मरण रखे और सराहे।

यह शिक्षा पूर्णतया निःशुल्क है। शिक्षा, रोशनी, पलंग, फर्नीचर, पुस्तकालय आदि का कोई खर्च नहीं। हां भोजन, वस्त्र का अपना खर्च स्वयं करना होगा। दो-दो छात्र मिल कर भोजन बना लेते हैं, इसमें किफायत भी रहती है और सुविधा भी। हर स्तर के छात्र अर्थ व्यवस्था के अनुरूप निर्वाह की व्यवस्था बना सकें और भोजन बनाना भी सीख लें इस दृष्टि से यह पद्धति अधिक उपयोगी सिद्ध हुई है।

इस वर्ष का प्रथम सत्र चल रहा है। अगला सत्र जेष्ठ- जून से आरम्भ होगा। इसके लिए नियमावली तथा आवेदन-पत्र मँगाकर इच्छुक छात्रों का दाखिला अभी से करा लेना चाहिए। सीमित स्थान और शिक्षार्थियों की संख्या अधिक रहने से पूर्व ही स्थान प्राप्त कर लेना उत्तम है।


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