जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए इतना तो करना ही होगा

January 1968

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जीवनोद्देश्य की प्राप्ति के लिये भजन ही नहीं व्यक्तित्व की उत्कृष्टता का अभिवर्धन भी आवश्यक है। ओछे और कमीने व्यक्तित्व दिन रात भजन करने पर भी रतीभर आत्मिक प्राप्ति नहीं कर सकते। इसके विपरीत जिनने अपना अन्तःकरण पवित्र और व्यक्तित्व समुन्नत बनाया है उनका दस-बीस मिनट भजन भी ईश्वर की उपलब्धि और आत्म-साक्षात्कार का लाभ दे सकता है। इस तथ्य को ‘अखण्ड-ज्योति’ परिजनों को हृदयंगम कराते हुये उन्हें आत्म-निरीक्षण, आत्म-शोधन और आत्म-निर्माण की दिशा में अग्रसर होने के लिए प्रोत्साहित, प्रेरित किया जा रहा है। पूजा, उपासना के सम्बन्ध में जितना सीखा सिखाया जा चुका है वह पर्याप्त है। उपासना के लिए यदि आधा घण्टा नित्य निकाला जा कसे तो पर्याप्त है। गाँधी जी की प्रार्थना आधा घण्टा ही होती थी पर उतनी ही देर में ईश्वर से सम्बन्ध जोड़ लेते थे। सन्त विनोबा जी की उपासना का भी थोड़ा-सा ही समय निर्धारित है। सच्चे मन और सच्चे ढंग से की गई थोड़ी-सी पूजा प्रार्थना भी चमत्कारी परिणाम उत्पन्न करती है। किन्तु यदि भावना-रहित, लक्ष्य-रहित, विवेक-रहित टंट-घंट दिन भर भी करते रहा जाय तो उसका परिणाम बालू से तेल निकालने की तरह ही होगा।

उपासना जीवन की अनिवार्य आवश्यकता है। इसके अनेक विधान हैं। इन सब विधानों में हमें गायत्री महामंत्र का जप और ध्यान सर्वोत्तम प्रतीत हुआ है। शास्त्र, पूर्वजों के निर्देश और हमारे व्यक्तिगत अनुभव तीनों का सम्मिलित निष्कर्ष गायत्री उपासना के पक्ष में ही जाता है। जो अन्य उपासना करते हैं वह भले ही उसे भी करते रहें पर हमारा अनुरोध है कि उसके साथ गायत्री उपासना अवश्य जोड़ दें। उचित तो यही है कि नियत समय पर, नियत विधि-विधान के साथ उपासना की जाय। पर जिनको किन्हीं कठिनाइयों के कारण इसमें अड़चन दिखाई पड़ती हो वे बिना स्नान के भी मानसिक जप और ध्यान करके काम चला सकते हैं। पूरा नहीं तो आधा परिणाम इसका भी होता है। 108 मन्त्र युगनिर्माण अभियान की सफलता में योगदान देने के लिये और 108 मन्त्र व्यक्तिगत आत्म-कल्याण के लिये हममें से हर एक को जपने चाहिये। माला न हो तो गणना उंगलियों पर की जा सकती है। नवरात्रियों में एक 24 हजार अनुष्ठान करने का प्रयत्न करना चाहिये। उच्चस्तरीय साधनाएं, पंचकोशी उपासना विशिष्ट साधकों के लिये हैं। उनका मार्ग-दर्शन साधन की मनोभूमि के अनुरूप व्यक्तिगत रूप से किया जाता है। पंचकोशी उपासना क्रम एक-दो वर्ष तो साधकों ने चलाया फिर उत्साह ठण्डा पड़ गया तो बहुत थोड़े साधक रह गये। अतएव ‘अखण्ड-ज्योति’ में वह साधना क्रम छापना बन्द करना पड़ा। जो साधक उस मार्ग पर चल रहे हैं उन्हें पत्रों द्वारा अगला मार्ग-दर्शन बराबर किया जा रहा है। सर्व साधारण के लिये सरल और स्वल्पकाल में सम्भव हो सकने वाला साधन ही चल सकता है। इसलिये दो माला 216 गायत्री मंत्र नित्य जपने की बात हर परिजन को कड़ाई के साथ निबाहनी चाहिये और जब भी अवसर हो भगवान के साथ अपनी अनन्यता एवं अभिन्नता का भावनापूर्ण ध्यान करना चाहिये। इतना नियमित बन पड़े तो भी कम सन्तोष की बात नहीं।

दवा थोड़ी होती है जरा-सी देर में खा ली जाती है पर उसका परहेज उपचार सारे दिन निबाहना पड़ता है। भजन थोड़ा रहे तो हर्ज नहीं पर उसके साथ जुड़े हुए आत्म-शोधन और परमार्थ प्रयोजन के दो महत्वपूर्ण आधार निश्चित रूप से जुड़े रहने चाहिये। इस प्रकार की साधना में असफलता की कोई सम्भावना नहीं वह लक्ष्य तक पहुँचा देने में निश्चित रूप से समर्थ होगी। अध्यात्म मार्ग के पथिकों के लिये जो नितान्त आवश्यक है। उसका मार्गदर्शन दिसम्बर के अंक में तथा इस अंक के प्रथम लेख में किया गया है। भावनात्मक सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन के लिये उस प्रक्रिया में उपाय और सुझाव प्रस्तुत किये गये हैं। उस पंच-सूत्री साधना क्रम को हमें दृढ़तापूर्वक चलाना चाहिये। सद्गुणों के अभिवर्धन के लिये पूरा-पूरा प्रयत्न करना चाहिये। यह ध्यान रखने की बात है कि सत्प्रवृत्तियां बढ़ाने का अभ्यास परमार्थ प्रयोजनों को अपना कर ही किया जा सकता है। केवल पढ़ने, सुनने, सोचने, विचारने भर से कल्पना लोक में विचरण तो किया जा सकता है पर व्यवहारिक जीवन में सेवा साधना के प्रत्यक्ष कार्यक्रम अपनाये बिना सद्गुणों का अभ्यास एवं अभिवर्धन हो ही नहीं सकता। इसलिये वैयक्तिक साधना क्रम अपनाने के साथ-साथ हमें पारमार्थिक सेवा कार्यक्रमों को भी अपने दैनिक-जीवन में जोड़े रहना चाहिये। इस अंक में-अगले लेखों में- एक ऐसी पंचसूत्री परमार्थ योजना प्रस्तुत की गई है जिससे आत्म-कल्याण और लोकमंगल के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। साथ ही नवनिर्माण का एक अत्यंत आवश्यक उत्तरदायित्व पूरा करने का उद्देश्य भी बड़ी खूबी के साथ पूरा होता है।

जिस प्रकार आत्म-कल्याण के लिये (1) हर दिन नया जन्म, हर रात नई मौत, (2) जन्म दिवस, (3) ज्ञान-यज्ञ के लिये एक घण्टा समय और दस पैसा खर्च, (4) अविवेक और असत्य से संघर्ष एवं असहयोग (5) साधना में प्रेम भावना का समावेश यह पाँच साधन बताये गये हैं और उनके प्रयोग का स्वरूप समझाया गया है। उसी प्रकार परमार्थ प्रयोजन के लिये (1) सज्जनों का संगठन (2) सद्ज्ञान प्रसार केन्द्रों की स्थापना (3) हर व्यक्ति द्वारा युग निर्माण के लिये गायत्री मंत्र की एक माला का जप तथा सक्रिय शाखाओं द्वारा पंचकुंडी गायत्री यज्ञों का आयोजन (4) व्यवहारिक आध्यात्म का त्रिविध प्रशिक्षण। (5) रचनात्मक सेवा कार्यों का अभिवर्धन- यह पाँच कार्यक्रम प्रस्तुत किये गये हैं। इन्हें अपनाना, इनके अभिवर्धन में योगदान करना एक महत्वपूर्ण परमार्थ है। देश काल पात्र की स्थिति के अनुरूप अनेक परमार्थ प्रयोजन काल में लाये जाते हैं। आज की स्थिति में उपरोक्त कार्यक्रम से बढ़कर और कोई परमार्थ हो ही नहीं सकता। साधारण सेवा तो एक दूसरे को धन आदि देकर तथा सुविधायें बढ़ाकर भी की जा सकती है पर वे केवल किन्हीं के शरीरों को ही लाख पहुँचाने तक सीमित है। सच्चा चिरस्थायी और महान परमार्थ वह है जिससे किसी की आत्मा में उच्चस्तरीय प्रकाश उत्पन्न होता हो। यह पाँचों कार्यक्रम इसी प्रकार के हैं जिनके आधार पर लोगों की शारीरिक सुविधायें नहीं वरन् आत्मिक महानता का अभिवर्धन होता है और युग को पलट देने में- नारकीय वातावरण को बदल कर स्वर्गीय परिस्थितियों उत्पन्न करने में भारी सहायता मिलती है।

अस्तु हमें इन परमार्थ प्रयोजनों की पूर्ति में भी परिपूर्ण निष्ठा और तत्परता के साथ संलग्न होना चाहिये। बड़ी संस्थाओं, बड़े नेताओं की प्रतीक्षा न कर हमें स्वयं ही अपने छोटे साधनों और छोटे व्यक्तियों से इस प्रक्रिया का शुभारम्भ करना चाहिए। चूँकि इस प्रेरणा के पीछे दैवी प्रकाश काम कर रहा है इसलिये उसकी सहायता में किसी सन्देह की आशंका नहीं है। हम उत्साह प्रदर्शित करें तो श्रेय और यश के भागी बन सकते हैं, उपेक्षा करें तो पश्चात्ताप में कुड़कुड़ाते रह सकते हैं। महाकाल विनाश के साथ-साथ संरक्षण और निर्माण की प्रक्रिया को भी सजीवकर रहे हैं। डाक्टर जहाँ आपरेशन के साधन जुटाता है वहाँ घाव को सीने और बाँधने के लिए मरहम, रुई, पट्टी, सुई, धागा आदि का सरंजाम भी इकट्ठा करता है। एक ओर जहाँ मानव-जाति को अपने सामूहिक पापों का दण्ड भुगतने के लिए, न्याय-दण्ड का प्रहार सहने के लिए विवश होना पड़ रहा है दूसरी ओर पुनर्निर्माण की अभिनव रचना भी सजीव हो रही है। युग-निर्माण योजना मानव-जाति के घाव भरने का काम करेगी, उसकी पूर्ति में सहायक होकर हम दयालु, उपकारी एवं कर्तव्य परायण सज्जनों की पंक्ति में ही अपने को खड़े करेंगे। भगवान ऐसा प्रकाश साहस और अवसर हममें से हर एक को प्रदान करे यही प्रार्थना है।


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