चातुर्मास की साधना एवं शिक्षा का स्वर्ण सुयोग

January 1968

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जिन्हें घर-गृहस्थी चलानी पड़ती है, नौकरी व्यवसाय आदि की जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं, उन्हें अधिक समय इस प्रकार के प्रशिक्षण के लिए नहीं मिल सकता। किशोरों एवं युवकों की पीठ पर बड़े लोग कमाने वाले होते हैं इसलिए वे एक वर्ष के लिए घर से बाहर जा सकते हैं, पर उत्तरदायित्व से व्यस्त व्यक्तियों के लिए यह सम्भव नहीं। किन्तु शिक्षण तो उन्हें भी मिलना चाहिए। सान्निध्य का आनन्द पूरा नहीं तो अधूरा ही हम लोग उठा सकें ऐसा रास्ता निकालना चाहिए। इसके लिए शिविरों की श्रृंखला नियोजित की गई है।

दो शिविर जेष्ठ में और दो अश्विन में 9-9 दिन के करते रहने का क्रम बनाया गया है। जेष्ठ बदी दौज से लेकर गंगा दशहरा तक एक शिविर होगा। एकादशी की छुट्टी पुरानों के जाने और नयों को आने के लिए रहेगी। जेष्ठ शुक्ल 12 से आषाढ़ बदी 5 तक दूसरा शिविर रहेगा। चूंकि गायत्री तपोभूमि में स्थान कम और आगन्तुकों की संख्या बहुत ज्यादा रहती है इसलिए आधे-आधे दो बार में बाँट दिए जाते हैं। 9 दिन में एक 24 हजार का लघु गायत्री अनुष्ठान हो जाता है। घर में रहकर सवा लक्ष अनुष्ठान करने की अपेक्षा इस सिद्ध पीठ में रहकर करने पर यह 24 हजार का लघु अनुष्ठान ही अधिक फलप्रद होता है। प्रति दिन जप यज्ञ के अतिरिक्त दोनों समय दो मार्मिक प्रवचन होते हैं, जिनसे व्यावहारिक अध्यात्म का एक श्रृंखलाबद्ध पद्धति सुनियोजित प्रशिक्षण किया जाता है। इन्हीं 9 दिनों में दो दिन के लिए ‘बस’ किराए पर कर दी जाती है जो मथुरा, वृन्दावन, गोकुल, महावन, ब्रह्मांड घाट, रमन रेती, दाऊजी, गोवर्धन, राधाकुण्ड, जतीपुरा, नन्दगाँव, बरसाना और व्रज के सभी तीर्थों के दर्शन करा लाती है। किराये में भी किफायत रहती है। एक मार्गदर्शक साथ जाकर सब समझा भी देता है और बिना झंझटखोरों से उलझे शाँतिपूर्वक यह यात्रा भी पूरी हो जाती है।

और ठीक यही क्रम अश्विन के दो शिविरों में रहता है। अश्विन सुदी प्रतिपदा से लेकर नवमी तक नवरात्रि में 9 दिन का प्रथम शिविर रहता है। दसमी छुट्टी आवागमन के लिए रहती है। अश्विन सुदी 11 से लेकर कार्तिक बदी चतुर्थी तक यही क्रम चलता है। 9 दिन में एक अनुष्ठान, तीर्थ यात्रा, प्रवचन तथा व्यक्तिगत समस्याओं पर विस्तारपूर्वक विचार-विनिमय यह क्रम सभी शिविरों में समान रूप से चलता रहता है। स्कूलों की छुट्टियां कई प्राँतों में दशहरा से लेकर दिवाली तक की होती हैं, उनमें अध्यापकगण छात्र तथा दूसरे शिक्षा संस्थाओं से सम्बन्धित व्यक्ति आसानी से आ सकते हैं। जेष्ठ और अश्विन में दोनों ही बार प्रथम शिविरों में भीड़ अधिक रहती है इसलिए उनमें कुछ अपवादों को छोड़कर केवल पुरुषों को ही स्वीकृति मिलती है। दूसरे में संख्या हलकी हो जाती है इसलिए उनमें महिलाओं को साथ लाने की भी छूट रहती है।

यों व्यक्तिगत परामर्श और प्रवचनों द्वारा आगन्तुकों को उनकी समस्याओं को हल करने वाला मार्गदर्शन संतोषजनक मात्रा में मिल जाता है, पर विशेष शिक्षण अविश्रुत वाणी से उन्हें और भी मिलता है जो उनके अन्तःकरण में प्रतिस्थापित होकर जीवन-भर फलता फूलता रहता है। वैखरीवाणी मुख से बोली और कान से सुनी जाती है। उसका प्रभाव स्वल्प होता है। असली शिक्षा मध्यमा, परा और पश्यन्ती वाणियों द्वारा मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार के मर्म-स्थलों में प्रविष्ट की जाती है। सो इन शिविरों में आने वाले प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि उन्हें कान के माध्यम से तो नहीं, दूसरे रहस्यमय माध्यमों द्वारा भी बहुत कुछ सिखाया गया है। यह शिक्षा उन्हें चिरकाल तक स्थायी प्रकाश एवं प्रोत्साहन प्रदान करती रहती है, जो जीवन को सुविकसित बनाने में आशाजनक रीति से फलप्रद सिद्ध होता है।

इन चारों शिविरों में प्रायः सात-आठ सौ शिक्षार्थियों से विचार-विनमय हो सकता। 3 वर्षों में 2400 परिजनों से इस प्रकार सत्संग सान्निध्य हो सके तो हम दानों के लिए ही श्रेयस्कर होगा। आगन्तुक प्राणपूर्ण प्रकाश प्राप्त करेंगे और हमें स्वजनों से मिलकर कौटुम्बिक आनन्द मिलेगा। जब तब घण्टे दो घण्टे मिल लेने और कुशल क्षेम पूछ लेने से अपना भी मन नहीं भरता। अन्य समयों में हमें भी व्यस्तता रहती है इसलिए यह शिविरों का समय दोनों के लिए ही अनुकूल एवं सुविधाजनक रहता है। हमारा भी पुरा ध्यान, मनोयोग, प्राण और प्रयत्न प्रशिक्षण में रहता है, इसलिए उस अवधि में बहुत प्रयोजन पूरा हो जाता है। बीच-बीच में एक-दो दिन के लिए दर्शन करने का निमित्त लेकर आने वालों को वह लाभ एवं आनन्द नहीं मिल सकता जो शिविर में आने वालों को। अतएव जिन्हें सुविधा हो वे परिजन इन शिविरों में हमें मिललें। यों यह शिविर तो हमारे बाद भी चलते रहेंगे पर स्वजनों के साथ हँसने-खेलने का, मन की बात कहने-सुनने का जो अवसर हमें मिल सकता है उस लाभ से अपने को वंचित ही रहना पड़ेगा। अतएव प्रेमी परिजनों को इस पंक्ति में पहले ही खड़े होने की तैयारी करनी चाहिये। परिवार बड़ा है, मिलन केवल 2400 से ही सम्भव है। इसलिए जो पहले से सतर्क न रहेंगे, ध्यान न रखेंगे वे इस फिर न मिलने वाले आनन्द से वंचित रह जायेंगे, हमें भी उनकी कुछ महत्वपूर्ण सेवा न कर सकने का पश्चात्ताप ही रह जायेगा। अब देशव्यापी दौरा करने या यज्ञ आयोजनों में पहुँचने की हमारी सम्भावना कम ही है। स्वास्थ्य गड़बड़ी फैलाने लगा है। अतएव सुखद मिलन के लिए यह शिविर ही एकमात्र माध्यम रह जाते हैं।

किशोर और युवकों की एक वर्षीय और प्रौढ़ों की 9 दिवसीय शिविर शिक्षा के अतिरिक्त तीसरी शिक्षा चार मास की उन लोगों के लिए है जो पारिवारिक उत्तरदायित्व से निवृत्त हो चुके हैं, जिनके पास अवकाश है और भावी जीवन को परमार्थ प्रयोजन में लगाने की बात सोचते हैं।

चातुर्मास साधना किसी तीर्थ स्थान में जाकर करने की प्राचीन धर्म परम्परा भी है। आषाढ़, श्रावण, भाद्रपद, अश्विन यह चार महीने वर्षाऋतु के साधना एवं शिक्षण के लिए ढलती आयु में परम पुनीत माने गये हैं। गायत्री तपोभूमि में रह कर नियम साधनों के साथ-साथ सवा-सवा लक्ष के तीन अनुष्ठान हो सकते हैं। यज्ञ नित्य करने का अवसर मिलता है। (1) गुरु पूर्णिमा (2) श्रावणी (3) कृष्ण जन्माष्टमी (4) पितृ अमावस्या (5) अश्विन नवरात्रि (6) विजयदशमी (7) शरद पूर्णिमा। यह सात पर्व इस बीच में आते हैं जिन्हें शास्त्रोक्त विधि से मनाने का अनुपम अवसर मिलता है। श्रावण में झूले के मेले मथुरा वृन्दावन के प्रसिद्ध हैं। जन्माष्टमी का मेला देखने लाखों व्यक्ति आते हैं। गुरु पूर्णिमा को गोवर्धन का मेला तो इतना विशाल होता है कि उसमें सम्मिलित होने के लिए सुदूर प्रदेशों से जन समूह उमड़ता चला आता है। श्रावण मास में विविध नियमोपनियमों के साथ साधनायें करने की विविध पद्धतियां प्रचलित हैं। रुद्राभिषेक आदि कितने ही धर्म कृत्य उन दिनों होते हैं। चातुर्मास में आने वालों के लिए एक सुव्यवस्थित साधना पद्धति बना दी जाती है जिसमें पर्व तथा उत्सवों का आनन्द भी सम्मिलित रहे।

इस साधना के साथ लोक के लिए क्षमता प्राप्त करने का एक विशेष प्रशिक्षण क्रम भी जोड़ दिया गया है। रामायण एवं गीता के माध्यम से युग-निर्माण विचारधारा के अनुरूप प्रवचन करने की शिक्षा दी जाती है और प्रवचन करने का अभ्यास प्रति दिन कराया जाता है। प्रयत्न यह किया जायेगा कि चातुर्मास करके जाने वाला साधक एक कुशल वक्ता बन जाय और प्रवचनों द्वारा लोक-मंगल के लिए कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर सकने में समर्थ हो सके।

गायत्री महायज्ञ ठीक तरह करा सकने की प्रक्रिया, जन्म दिन, विवाह दिन एवं संस्कारों का विधान, पर्व त्यौहार मनाने की पद्धति जैसे कर्मकाँडों में उसे निष्णात बना दिया जाता है। सत्यनारायण कथा, गीता कथा, रामायण कथा जैसे आयोजन कर सकने की योग्यता उत्पन्न की जाती है। इन माध्यमों से धर्म मंच का अवलम्बन लेकर यह चातुर्मास के शिक्षार्थी अपने क्षेत्र में साँस्कृतिक पुनरुत्थान एवं नवनिर्माण का प्रकाश उत्पन्न कर सकते हैं। विविध प्रकार के रचनात्मक कार्यक्रम वहाँ किस प्रकार जमाये, उगाये तथा बढ़ाये जायें, उनके मार्ग में आने वाले अवरोधों से किस प्रकार निपटा जाय यह सारी शिक्षा इसी अवधि में मिल जाती है और यह साधक शिक्षार्थी एक अच्छे धर्मोपदेशक का उत्तरदायित्व सँभाल सकने के लिए ठीक तरह प्रशिक्षित हो जाता है।

अपनी युग-निर्माण योजना का आधार धर्म, अध्यात्म एवं संस्कृति है। इसलिए जो विभिन्न कार्यक्रम आगे कार्यान्वित किये जाने हैं उनके मूल में धर्म प्रेरणा एवं आध्यात्मिक तत्व-ज्ञान ही प्रमुख रहेगा। इस आधार को व्यापक बनाने के लिए कुशल, निस्वार्थ, अनुभवी, कार्य निवृत्त लोकसेवियों की ही आवश्यकता पड़ेगी, उन्हें इस चार मास के प्रशिक्षण द्वारा तैयार किया जायेगा। इस उत्पादन की एक व्यवस्थित परम्परा अपनी कार्य-पद्धति का प्रमुख अंग है। इसे इसी वर्ष से आरम्भ कर रहे हैं। ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार में जो भी इस प्रकार के ढलती आयु के अवकाश प्राप्त व्यक्ति हों उन्हें अनुरोधपूर्वक आमन्त्रित किया जा रहा है। साधना, स्वाध्याय, सेवा और संयम की चतुर्विधि तपश्चर्या चातुर्मास से जो कर सकें उन्हें सौभाग्यवान कहा जाना चाहिये। ऐसे सौभाग्यवानों का प्रशिक्षण करने का अवसर हमें तीन वर्ष मिलेगा यह हमारा भी एक सौभाग्य ही होगा।


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