लोक-मंगल के लिए हम परमार्थ प्रयोजन में संलग्न हों

January 1968

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सत्प्रवृत्तियों का प्रसार केवल प्रवचनों से ही नहीं होता वरन लोक-शिक्षण के लिए ऐसे रचनात्मक कामों की आवश्यकता होती है जिन्हें करने या देखने से उस विचार एवं कार्यपद्धति का स्वरूप प्रत्यक्ष अनुभव में आये। दान देना चाहिए यह कहते रहने की अपेक्षा स्वयं दान देने से या किसी अन्य द्वारा दान दिये जाने की प्रत्यक्ष घटना देखकर उस तरह का प्रभाव अधिक गहराई तक पड़ता है। गाँधीजी ने अंग्रेज सरकार के कानून तोड़ने के लिए जनता से कहा था, साथ ही उसका प्रत्यक्ष कार्यक्रम ‘नमक बना कर कानून तोड़ना’ भी सामने रखा था। वह कानून लोगों ने तोड़ा तो देखा देखी वह प्रेरणा व्यापक हुई और देश के कोने-कोने में यह प्रक्रिया दुहराई गई। यदि केवल उपदेश मात्र दिया गया होता, एक दूसरे को ‘यह करना चाहिये’-‘वह करना चाहिये’- मात्र कहते रहने, क्रियात्मक काम कोई न करता तो सत्याग्रह आँदोलन वह व्यापक रूप न बन पाता।

मार्गदर्शन एवं प्रशिक्षण आवश्यक है। उसके लिए प्रवचन एवं लेखन का माध्यम अपनाया जाना भी उचित है, पर साथ ही यह भी ध्यान रखना चाहिये कि उस प्रकार की घटनाएँ भी आँखों के सामने आनी चाहिये। उस मार्गदर्शन को व्यवहारिक रूप भी धारण करना चाहिये। जन-मानस को वास्तविक रूप में तो घटनाएं ही प्रभावित करती हैं। इसलिये हर प्रबल आंदोलन को सफल बनाने के लिये उसके साथ रचनात्मक कार्यों की श्रृंखला भी जोड़ी जाती है। कार्य को देखकर ही उसके अनुकरण की प्रवृत्ति पैदा होती है।

युग-निर्माण योजना के अंतर्गत दो भावनाओं की प्रतिष्ठापना है। एक-हर व्यक्ति अधिक उत्कृष्ट, संस्कृत, कर्मठ, निस्पृह एवं सहृदय बने, इससे- हर व्यक्ति उदार, परोपकारी, सेवाभावी, परमार्थ परायण होना चाहिये। वैयक्तिक जीवन में उत्कृष्टता और सामूहिक जीवन में सेवा सद्भावना यह मनुष्य की महानता है और महानता सम्पन्न व्यक्तित्वों का अभिवर्धन ही ‘युग-परिवर्तन’ का चिन्ह है। यह प्रवृत्ति बढ़ रही है या नहीं इसका परीक्षण करना हो तो उसकी परख बढ़ते हुये लोक-मंगल कार्यों को देखकर ही लगाई जा सकती है। सदुपदेश ग्रहण किये जा रहे हैं या नहीं उसका अन्दाज भी इसी तरह लगेगा कि लोगों ने परमार्थ पथ पर किस गति से चलना आरम्भ किया। अतएव सद्भावनाओं के प्रसार के साथ तथ्य भी जुड़ा रहना चाहिये कि सद्प्रवृत्तियाँ कार्य रूप में परिणित होती दिखाई पड़ें।

युग-निर्माण योजना के अंतर्गत शतसूत्री कार्यक्रम इसीलिये जोड़ा गया है कि उससे इस महाअभियान में सम्मिलित होने वाले प्रत्येक व्यक्ति की वास्तविकता का पता चलता रहे। जो आदर्शवादिता के, उत्कृष्टता के, अध्यात्म के तत्वज्ञान पर आस्था रखता है उसे अपनी आस्था जबानी जमा खर्च तक सीमित नहीं रखनी चाहिये वरन् व्यावहारिक जीवन के क्रिया-कलापों से सिद्ध करना चाहिये कि उसने अपने भीतर देवत्व की प्रवृत्ति विकसित की है और आचरण में उसका परिचय देना आरम्भ किया है। इसका स्वरूप यही हो सकता है कि हम अपने वैयक्तिक स्वार्थों, सुविधाओं, कामनाओं, लालसाओं में कमी करते चलें और आदर्शवादी रीति-नीति अपनाने में जिस साहस और तप त्याग का परिचय देना पड़ता है उसे साहसपूर्वक अपनायें। सद्गुणों का अभ्यास सेवा कार्यों से ही होता है। तैरना सीखने के लिये तालाब में घुसना पड़ता है। आन्तरिक महानता का अभिवर्धन अभ्यास करने के लिये परमार्थिक- रचनात्मक- कार्यों में संलग्न होना पड़ता है, उसके लिये समय, श्रम और धन लगाना पड़ता है। यह हो सकता है कि किसी के पास दान के लिये धन न हो, पर समय तो हर कोई बचा सकता है और उसे परमार्थ प्रयोजनों में लगा कर अपनी आँतरिक महानता का परिचय दे सकता है।

पिछले दिनों मध्यकालीन लोगों का यह ख्याल था कि थोड़ा-सा भजन, कथा, कीर्तन, व्रत-उपासना, यात्रा दर्शन, हवन, पूजन आदि धार्मिक कर्मकाँड कर लेने से पाप दूर करने, स्वर्ग मुक्ति मिलने, ईश्वर प्रसन्न होने का प्रयोजन पूर्ण हो जाता है। इस मान्यता के लोग थोड़ी पूजा-पत्री करके परमार्थ प्रयोजन और आत्म-कल्याण के बारे में आत्म-सन्तोष कर लेते थे, निश्चिन्त हो जाते थे। पर अब तर्क, अनुभव, प्रमाण और कारणों ने इस मान्यता को मिथ्या सिद्ध कर दिया है। वेद, शास्त्र तथा ऋषि-मुनियों के प्रतिपादन इससे भिन्न हैं। वे कहते हैं व्यक्तित्व की उत्कृष्टता ही किसी व्यक्ति के अध्यात्मवादी एवं ईश्वर परायण होने की कसौटी है और जो उस कसौटी पर खरा होगा वह स्वार्थपरता की सिद्धि में ही न लगा रहकर लोक-मंगल की प्रवृत्तियों में अवश्य संलग्न होगा। उसकी परमार्थ परायणता जितनी प्रखर होगी वह उतना ही आन्तरिक महान एवं ईश्वर परायण होगा। सचाई यही है। सर्वव्यापी विश्वात्मा भगवान की आन्तरिक पूजा उसकी दुनियाँ को अधिक सुन्दर एवं सुव्यवस्थित बना कर ही की जा सकती है और इसके लिये लोक सेवा की दिशा में अधिक त्याग बलिदान का साहस प्रदर्शित करना होगा। युग-निर्माण योजना के शतसूत्री कार्यक्रम इसीलिये हैं कि जो व्यक्ति जिस स्थिति में है, जिस योग्यता का है, वह अपनी क्षमता के अनुरूप अपने क्षेत्र में कुछ न कुछ समय लोक-मंगल के लिये- परमार्थ प्रयोजन के लिये- रचनात्मक सत्कर्म अभिवर्धन के लिये यथा सम्भव प्रयास करे। ऐसा व्यक्ति एक भी न हो जिसे शिश्नोदर परायण नरपशु की श्रेणी में गिना जाय, जिसके जीवन क्रम में परमार्थिक सेवा कार्यों का लेखा-जोखा नगण्य हो। कोई व्यक्ति कितना ही, अयोग्य असमर्थ हो लोक-मंगल के लिये कुछ तो कर ही सकता है। जहाँ सत्प्रवृत्तियाँ चल रही है उनमें अपना योगदान कोई भी जोड़ सकता है। हर व्यक्ति अलग से कोई योजना या प्रवृत्ति खड़ी नहीं कर सकता और न अलग-अलग डेढ़ ईंट की मस्जिद बनाने की जरूरत है। मिल-जुलकर जो रचनात्मक कार्यक्रम बने हों उनमें अपना योगदान जोड़ कर उस प्रक्रिया को आसानी से परिपुष्ट किया जा सकता है। नई योजना कोई विरले ही खड़ी कर सकते हैं और उसकी व्यवस्था स्थिर रूप से जमाये रहने की प्रतिभा किन्हीं-किन्हीं में होती है पर मिलजुल कर आरम्भ किये गए सत्प्रयत्नों में योगदान देकर उन्हें प्रखर कोई भी बना सकता है।

शतसूत्री योजना के अंतर्गत जहाँ जिस प्रकार के रचनात्मक कार्य सम्भव हों वहाँ उन्हें आरम्भ करना चाहिये और हर सदस्य को उसी निर्धारित कार्यक्रम में इस प्रकार जुट जाना चाहिये मानो वह उसी का निजी कार्य या उत्तरदायित्व है। जहाँ कोई रचनात्मक कार्य नहीं हो रहा है वहाँ युग-निर्माण योजना की विचार पद्धति से अधिकारिक लोगों को परिचित कराना, यह एक कार्य तो ऐसा है जिसे किसी का सहयोग न मिलने पर भी एकाकी व्यक्ति कर सकता है। दूर रहकर भी मथुरा केन्द्र को परिपुष्ट करके उसके द्वारा अधिक सेवा शक्ति उत्पन्न करने की प्रक्रिया तो कोई भी अपना सकता है। जिनके पास समय नहीं वे उतने समय दूसरों को सेवा कार्य में संलग्न करने के लिये आर्थिक सहायता कर सकते हैं। ऐसे अनेक कार्यकर्ता हैं जो लोक-मंगल के लिये बहुत काम करने के भारी अरमान मन में दबाये बैठे हैं पर पारिवारिक उत्तरदायित्व के बोझ से दबे होने के कारण कुछ कर नहीं पाते। जिनके पास आर्थिक साधन हैं वे थोड़ी अर्थ-सहायता कर अपने स्थान पर उन्हें लोक-सेवा का अवसर दे सकते हैं।

अकेले आगे बढ़कर दूसरों का सहयोग लेकर अथवा किसी चलते हुये रचनात्मक कार्य में भागीदार बनकर लोक-मंगल की सत्प्रवृत्तियों को गतिशील करना चाहिये। इससे अपने सद्गुण बढ़ते हैं, आत्म-सन्तोष मिलता है, समाज को स्वस्थ और सुन्दर बनने की स्थिति बनती है और सबसे बड़ी बात यह होती है कि देखा-देखी अन्य लोग भी उस प्रकार के सेवा कार्यों का अनुकरण करते हैं। कुप्रवृत्तियाँ एक दूसरे की देखा-देखी ही संसार में बढ़ी हैं। नशेबाजी में लाभ एवं आनंद जैसी कोई बात नहीं, केवल देखा-देखी ही है, जिसने एक से दूसरे को यह छूत लगाई और बीड़ी, चाय जैसी हानिकर वस्तुएँ जीवन की एक आवश्यकता बन गई। दुष्प्रवृत्तियों की भाँति सत्प्रवृत्तियाँ भी बढ़ती हैं। एक स्थान पर सत्कर्म आरम्भ होते हैं उनकी विज्ञप्ति प्रशस्ति और चर्चा होती है तो अनेक अन्यों के मन में भी वैसा ही करने की आकाँक्षा उठती है। प्रचलन बढ़ता है और धीरे-धीरे वे गतिविधियाँ अपना विस्तार करती चली जाती हैं। जिस प्रकार दुष्प्रवृत्तियों ने संसार को बिगाड़ा है उसी प्रकार बढ़ती हुई सत्प्रवृत्तियां दुनिया में सृजनात्मक हवा पैदा कर सकती है और संसार का पुनः निर्माण हो सकता है।

जिस प्रकार साधारण लोग अपने व्यक्तिगत वर्चस्व व्यक्तित्व को सुविकसित सिद्ध करने के लिये मकान, जायदाद, वाहन, आभूषण, अस्त्र, नौकर, सजावट, ठाट-बाठ आदि का साधन जुटाते हैं, उसी प्रकार हर उत्कृष्ट अंतःकरण और मनोभूमि के व्यक्ति को सार्वजनिक लोक-मंगल के कार्यों का आरम्भ, अभिवर्धन करना चाहिये। इसी आधार पर उसकी वास्तविक महानता आँकी जा सकती है। सारा समय पेट पालने में ही खर्च नहीं कर दिया जाना चाहिये, सारी बुद्धि वासना और तृष्णा की परिधि में ही भ्रमित नहीं रहनी चाहिये, सारा धन आपा-पूती के साधन जुटाने में ही खर्च नहीं होना चाहिये, सारा श्रम लौकिक प्रयोजनों की पूर्ति में ही संलग्न नहीं रहना चाहिए वरन् इन विभूतियों का जितना अधिक अंश बच सके उसे लोक-मंगल के परमार्थ प्रयोजनों में लगाने का साहस करना चाहिये। इसी में वास्तविक बुद्धिमत्ता और दूर दर्शिता सन्निहित है। इस रीति-नीति को अपनाये बिना न जीवनोद्देश्य की पूर्ति हो सकती है, और न आत्म-संतोष मिल सकता है। किसी का सच्चा गौरव, वर्चस्व और महत्व उसके उन सत्कर्मों से ही है जिनसे गिरे हुए समाज को ऊँचा उठाने का प्रकाश एवं अवसर उपलब्ध होता है।

यदि इस तथ्य को हृदयंगम किया जा सके तो हमारे अन्तःकरण में विश्व के नवनिर्माण में योगदान करने की हूक उठेगी। यही ईश्वर की वाणी और यही आत्मा की पुकार है। इसका अनुसरण कर सकता है वही भगवान का भक्त और आत्मा का आराधक माना जायेगा। वही आत्म-कल्याण के साथ-साथ विश्व-कल्याण का महान श्रेय साधन कर सकने वाला महाभाग कहलायेगा।


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