अन्तरिक्ष का परिष्कार-यज्ञ योजना द्वारा

January 1968

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यज्ञ के दो पक्ष हैं एक भावनात्मक दूसरा वैज्ञानिक, भावना पक्ष में त्याग, सेवा, उदारता, प्रेम, परोपकार को यज्ञ कहते हैं। जिन कार्यों से मनुष्य स्वयं कष्ट उठा कर भी दूसरों को सुखी बनाने का प्रयत्न करता है वे सभी यज्ञ श्रेणी में आते हैं। भारतीय संस्कृति इसी प्रकार के तत्व ज्ञान से ओत-प्रोत है, इसलिए उसे यज्ञ संस्कृति कहते हैं।

यज्ञ का दूसरा पक्ष वैज्ञानिक है। भौतिक विज्ञान की पहुँच केवल पंच तत्वों तक- पदार्थ परमाणुओं तक है, पर यज्ञ विज्ञान जड़ और चेतन के बीच की एक विचित्र विज्ञान पद्धति है। जड़ पदार्थों और चेतन यन्त्रों के समन्वय से एक ऐसी शक्ति उत्पन्न होती है जो प्रकृति को आवश्यकताओं के अनुरूप झुकाने और मानवीय अन्तःकरण में अभीष्ट स्फुरण भरने में समर्थ है। यज्ञ द्वारा प्राणप्रद वर्षा, रोगों कीटाणुओं का शमन, वायु शुद्धि, सशक्त उत्पादन की अभिवृद्घि आदि लाभ प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त मनुष्य की व्यक्तिगत प्रवृत्तियों को सुधारने और सामूहिक विचार धाराओं को मोड़ने में भी यज्ञ प्रक्रिया का महत्वपूर्ण योगदान है। यज्ञ एक सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति है जिसके द्वारा शरीर के विभिन्न अवयवों में समाये विभिन्न रोगों का निराकरण हो सकता है और मानसिक दोष दुर्गुणों का, प्रकृति और प्रवृत्ति का परिवर्तन किया जा सकता है। दुर्गुणी व्यक्ति यज्ञ के सान्निध्य से सद्गुणी बन सकते हैं। यदि थोड़ा प्रयत्न किया जाय तो प्राचीन काल की तरह एक सर्वतन्त्र समर्थ ऐसा चिकित्सा शास्त्र विनिर्मित हो सकता है जो मनुष्यों की शारीरिक ही नहीं-मानसिक चिकित्सा में भी जादू जैसा काम करे और मानव जाति को महान संकटों से छुड़ाये।

सामूहिक मनोवृत्तियों का संशोधन एवं परिष्कार करने में यज्ञ की अपनी अद्भुत उपयोगिता है। यदि वातावरण में कुत्सित दुष्प्रवृत्तियाँ भर गई हों तो उनके समाधान में यज्ञ-उपचार एक कारगर उपाय के रूप में प्रयुक्त हो सकता है। प्राचीन काल में ऐसा होता भी रहा है। रावण द्वारा फैलाई हुई अनीति से विक्षुब्ध वातावरण का समाधान करने के लिए भगवान राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। कौरवों की अनीति से उत्पन्न विक्षोभ के शमन को एक यज्ञ प्रयोग भगवान कृष्ण ने महाभारत समाप्त होते ही कराया था। राजनीतिक विकृतियों के समाधान के लिए राजसूय और नैतिक विकृतियों के निवारण के लिए वाजपेयी यज्ञों की प्रथा प्राचीन काल में प्रचलित थी। सामूहिक मनोभूमि का परिष्कार ऋषि मुनि इन्हीं आयोजनों द्वारा किया करते थे। ताँत्रिक एवं सकाम यज्ञों से व्यक्तिगत लाभ हानि के परिणाम उत्पन्न करने वाले यज्ञों का भी विधान है।

यहाँ यज्ञ की चर्चा ‘युग-निमार्ण-अभियान’ के संदर्भ में की जा रही है। गायत्री को माता और यज्ञ को पिता कहा गया है। दोनों का अविच्छिन्न युग्म है। एक दूसरे के पूरक हैं। गायत्री अनुष्ठानों की पूर्णता यज्ञ आहुतियों के साथ जुड़ी हुई है। 24 वर्ष में सम्पन्न हुये अपने 24 लाख के 24 महा पुरश्चरणों की पूर्णाहुति हमें भी सहस्र कुण्डी गायत्री महा यज्ञ के साथ सम्पन्न करनी पड़ी थी। अब जबकि प्रति दिन 24 लक्ष गायत्री जप करने का आयोजन दस वर्ष के लिए इस बसन्त पंचमी से आरम्भ किया जा रहा है तो उसके साथ यज्ञ आयोजन भी जुड़ा हुआ रखना पड़ेगा। अस्तु 5-5 कुण्डी के 200 यज्ञ हर वर्ष कर के सहस्र कुण्डी एक खंड यज्ञ की व्यवस्था चालू करनी होगी। समर्थ शाखाओं से इसके लिए अनुरोध किया गया है। बात छोटी-सी है, जिनमें साहस और आत्मबल होगा वे उसे बड़ी आसानी से पूरा कर लेंगे। दैवी कार्य में दैवी सहायता मिलना सुनिश्चित है। शर्त केवल इतनी-सी है कि नीयत साफ हो और पुरुषार्थ में कमी न रखी जाय।

इन पंच कुण्डी यज्ञों का अपना एक विशेष स्वरूप होगा और विशेष लक्ष्य। पाँच कुण्डी रखने का मोटा लाभ तो यह है कि कम समय में अधिक व्यक्ति यज्ञानुष्ठान में सम्मिलित हो सकते हैं। एक कुण्ड की यज्ञशाला में एक बार में 7 से अधिक व्यक्ति नहीं बैठ सकते। पर पाँच कुण्डी यज्ञशाला में बीच में 7 और किनारे वाले कुण्डों में 4 × 4 = 16, इस प्रकार 25 व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं। 100 व्यक्तियों को आहुतियाँ देनी हों तो 4 पारी में लगभग ढ़ाई घंटे में कार्य पूरा हो सकता है। एक ही कुण्ड हो तो इसी कार्य में चौगुना समय चाहिए। इसके अतिरिक्त अपनी पंचवर्षीय योजना और पंचसूत्री योजना के कार्यक्रम का प्रतीक भी एक-एक कुण्ड है। व्यक्ति निर्माण के लिए हमें पाँच कार्यक्रम अपनाने हैं और पाँच योजनाएँ ही सामूहिक योजनाएँ हैं। अस्तु हर एक का प्रतिनिधित्व एक कुण्ड करेगा। पंचमुखी गायत्री में पाँच कोषों के अनावरण का संकेत भी कुण्डों की इस संख्या से होता है। देखने में जन-संकुल ऐसी यज्ञशाला शोभायमान लगती है। इसका सुसज्जित मण्डप भी कलात्मक और आकर्षक ढंग से बनाया जा सकता है। एक यज्ञशाला के छाया उपकरण तथा पत्र, कलश आदि सामान अन्य यज्ञों में काम आते रह सकते हैं। इस प्रकार खर्चे में भी बचत हो सकती है।

स्मरण रखना चाहिए कि केवल पंचकुण्डी गायत्री यज्ञों के ही यह आयोजन नहीं हैं वरन् इनके साथ ‘युग-निर्माण-योजना’ भी जुड़ी हुई है। इस योजना के अंतर्गत बिना सम्मेलन का कोई यज्ञ न होगा। “युग-निर्माण योजना सहित गायत्री यज्ञ” के इन आयोजनों में आहुतियों तथा पूजा उपचार के विधान के साथ-साथ उसकी आत्मा सद्बुद्धि की प्रेरणा को भी जोड़ रखा गया है। यह आयोजन तीन दिन चला करेंगे और तीनों दिन यज्ञ कार्य के साथ-साथ विचार परिवर्तन की पुण्य प्रक्रिया का सुव्यवस्थित आयोजन रहा करेगा। कर्मकाण्ड शरीर है और प्रशिक्षण आत्मा। इस तथ्य को पूरी तरह ध्यान में रखा जायेगा। आधा ध्यान- आधा श्रम- आधा समय- आधा धन- यज्ञ कार्य में और आधा ध्यान, समय, धन तथा श्रम सम्मेलन में लगाया जायेगा। गायत्री महामन्त्र के अंतर्गत जिस उत्कृष्ट विचारणा का और गायत्री महायज्ञ के अंतर्गत जिस त्याग, तप तथा सत्कर्मों की प्रेरणा है उसे उपस्थित लोगों को हृदयंगम कराने का प्रभावशाली प्रयत्न किया जाना चाहिए। आयोजन की यही आत्मा है। कर्मकांड के इस प्रशिक्षण में ही सार्थकता है।

पिछले दिनों लोग देवताओं को प्रसन्न करने के लिए आहुतियों की व्यवस्था पर सारा ध्यान लगाते रहे हैं और उसी में सारा समय तथा धन खर्च करते रहे हैं। इन आयोजनों से लाभ तथाकथित ‘पंडित’ नाम धारियों का होता रहा है। आहुतियों में थोड़ा-सा खर्च करा के वे ही लोग वस्त्र, पात्र, दान, दक्षिणा, भोजन आदि के नाम पर अपने और अपने साथियों के लिए समेट ले जाते रहे हैं। जिसे लाभ नहीं मिला उसने कोई न कोई दोष, निषेध निकाल कर लोगों को वरगलाया और अश्रद्धा उत्पन्न की। इस प्रकार यज्ञ पंडितों के हाथ की कठपुतली बने रहे। जहाँ चाहा उनने बनाया, जहाँ चाहा बिगाड़ा। आयोजन की धनराशि में से कितना बड़ा अंश वे हड़प लें, इसी के दाव-घात लगाते रहे। जहाँ दाल न गली वहाँ तरह-तरह के विघ्न उत्पन्न करते रहे। अपने यज्ञों को इस जंजाल में ये पूर्णतया मुक्त रखा जाना है। अपने सामूहिक यज्ञ एक केन्द्र से, एक स्थान से, एक संकल्प के अंतर्गत, एक आचार्यत्व में चल रहे हैं। उनके आरम्भ का शुभारम्भ शुभ मुहूर्त में हो चुका है। अन्यत्र जहाँ कहीं यह आयोजन होंगे वहाँ वे अंग अथवा अंश मात्र होंगे। इसलिए उनमें पृथक पुरोहित ब्रह्मा, आचार्य अथवा मुहूर्तों की आवश्यकता न पड़ेगी। एक नारियल आचार्य के स्थान पर प्रतिष्ठापित कर- बाकी सब सदस्य मिल-जुल कर निर्धारित हवन पद्धति के अनुसार-सामूहिक मन्त्रोच्चार के साथ सारी व्यवस्था बना लिया करेंगे। इस प्रकार पूर्ण शास्त्रसम्मत पद्धति भी बन जायेगी और विघ्नकर्ताओं के जंजाल से उसे मुक्त रखा जा सकेगा। अपने में से कोई प्रशिक्षित व्यक्ति बड़ी आसानी से यज्ञ की सारी व्यवस्था बड़ी सुन्दरतापूर्वक जमा लिया करेंगे, और स्वल्प व्यय में सारी प्रक्रिया उत्तमतापूर्वक सम्पन्न हो जाया करेगी। इस कार्य में (1) गायत्री यज्ञों की विधि व्यवस्था (2) गायत्री यज्ञ की व्याख्या, पुस्तकें समुचित मार्गदर्शन कर सकती हैं।

युग-निर्माण सम्मेलन में प्रवचन सुनने के लिए अधिकाधिक व्यक्तियों को अनुरोधपूर्वक- व्यक्ति रूप में आमन्त्रित करके बुलाना चाहिये और प्रवचनों की पूर्ण व्यवस्था ऐसी करनी चाहिये जिससे सुलझे मस्तिष्क के कुशल वक्ता नव निर्माण की विचारधारा का ठीक तरह प्रतिपादन कर सकें। स्थानीय प्रगतिशील विचारधारा के लोगों को नव निर्माण विचारधारा का साहित्य देकर उन्हें व्यक्ति तथा समाज के पुनरुत्थान विषय पर प्रवचन की तैयारी करने को कहा जा सकता है। तथाकथित सन्त, महन्त, कीर्तनकार, कथा-वाचक प्रवचन का पेशा करने के कारण जगह-जगह बुलाये जाते हैं। पर उनकी विचारधारा सर्वथा प्रतिगामी, पलायनवादी, भाग्य समर्थक, परावलम्बी एवं पुरातन पंथी होती है। वे पौराणिक किस्से, कहानी सुनाकर लोगों का मनोरंजन तो कर देते हैं पर उनमें काम की बात कुछ नहीं होती वरन् प्रतिगामिता-भरी बातें जन-मानस में उलटे अन्ध-विश्वास उत्पन्न करती है। अतएव उनसे बचना ही श्रेयस्कर है चूँकि यज्ञ एक धर्म कृत्य है इसलिए आमतौर से धार्मिक कहे जाने वाले लोग ही ऐसे अवसरों पर प्रवचन करने के लिए बुला लिए जाते हैं। समाज और संस्कृति का यह दुर्भाग्य ही है कि जहाँ अन्य धर्मावलंबी पुरोहित वर्ग अपने वर्गों में प्रबल प्रेरणाएँ भरता है वहाँ हिन्दू समाज के तथाकथित धर्म-वक्ता अत्यन्त सड़ी-गली बेसिर पूँछ की- प्रतिगामी बकवास करके सुनने वालों में उलटे बुद्धि भ्रम उत्पन्न करते हैं। कथा, पुराणों के नाम पर आमतौर से हमें यह जंजाल सुनने को मिलता है जिससे सुनने वालों का तनिक हित साधन होने की सम्भावना नहीं। अतएव हमें युग-निमार्ण-सम्मेलन के लिए समय से बहुत पूर्व ऐसे प्रगतिशील वक्ता तलाश कर रखने चाहिये जो नव निर्माण विचारधारा को भली प्रकार समझते हों और उसे ठीक ढंग से प्रतिपादित करने के लिए मनोयोग पूर्वक देर से तैयारी कर रहे हों। यह भूलना न चाहिए कि अपना उद्देश्य नये संसार की अभिनव रचना करना है। अतएव निर्धारित धर्म-वक्ता को बुला कर यदि हम प्रतिगामी विचारधारा जनता को देने लगे तब तो समझना चाहिए कि सारा गुड़ गोबर ही होगा। किसी को जन-मनोरंजन की कला आती है और धार्मिक माना जाता है इन दो ड़ड़ड़ड़ के आधार ही किसी को युग निर्माण सम्मेलन की डडडड वेदी पर नहीं बिठाया जाना चाहिये।

इन सम्मेलनों के लिए अधिकारी वक्ता और गायक गायत्री तपोभूमि में तैयार किये जा रहे हैं। सुविधानुसार यहाँ से भी बुलाये जा सकते हैं। अन्यथा स्थानीय अथवा समीपवर्ती क्षेत्र से कोई प्रवचन कला में प्रवीण व्यक्ति अपना विषय, अपना साहित्य कुछ समय पूर्व देकर प्रवचन के लिए प्रस्तुत कराये जा सकते हैं। अपनी गीत पुस्तकों में से मिशन के अनुरूप गा सकने वाले संगीतज्ञ भी इसी प्रकार तैयार किए जा सकते हैं। निदान, सम्मेलन की विचार दिशा निर्धारित लक्ष्य के पूर्णतया अनुकूल रहनी चाहिये। सुनने वाले एक विशेष प्रकाश लेकर जायें, युग-निर्माण की भावना मनोभूमि में उगा, जमा सके तो ही यह समझना चाहिए की सम्मेलन सफल हुआ। अन्यथा धर्म प्रवचनों के नाम पर जिस प्रकार मनोरंजन मात्र देकर जनता को प्रतिगामिता की ओर धकेला जाता है वैसा ही यहाँ पर होने लगा तो समझना चाहिये कि गायत्री और यज्ञ दोनों की आत्मा के साथ मखौल मात्र करके एक तमाशा खड़ा किया गया।

इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुये पंच-कुण्डी गायत्री यज्ञ और युग-निर्माण सम्मेलन के सम्मिलित तीन दिवसीय आयोजन जहाँ भी सम्भव हो वहाँ उत्साह पूर्वक किये जाँय। अच्छा हो नियत तिथियों पर हर साल नियत स्थानों में ऐसे आयोजन होते रहें। आवश्यकता हो तो स्थान बदले भी जा सकते हैं पर जिनने संकल्प लिये हैं वे एक आयोजन हर साल करते रहने की व्यवस्था किसी न किसी प्रकार बना लिया करें। ब्रह्म-भोजों, प्रीति-भोजों का झंझट न पाला जाय। बाहर से आने वाले अतिथियों के ठहराने, भोजन-भर की व्यवस्था की जाय। इस प्रकार के बिलकुल छोटे आयोजन तो कम में भी हो सकते हैं पर यदि कुछ अच्छा आयोजन करना हो तो हवन, पण्डाल, बिछावन, इश्तहार, माइक, रोशनी, प्रवचन, प्रसाद आदि में 500) से 1000) तक खर्च करने से काम चल सकता है। अधिक बड़ा आयोजन हो तो अधिक धन भी खर्च हो सकता है। हर हालत में मितव्ययिता के काम डाले जाय, क्योंकि आज अन्न की कमी है। वनस्पतियों की सामग्री ही काम में लाई जाय। घी के स्रुवा छोटे छेद के रख कर उसमें भी थोड़ी किफायत की जा सकती है। आहुतियों की संख्या नियत नहीं की गई है इसलिए जहाँ अधिक किफायत करनी पड़े वहाँ हर कुण्ड पर दो व्यक्ति-एक घी एक सामग्री वाला बिठा कर भी काम चलाया जा सकता है। शेष लोग पूर्णाहुति की आहुति डालें और मन्त्र बोलें तो भी काम चल सकता है।

गायत्री उपासना के साथ-साथ सामूहिक गायत्री मन्त्रों का भी प्रसार होना चाहिये। द्रव्य यज्ञ भी और ज्ञान यज्ञ भी दोनों की संकुलित व्यवस्था रहे तो हमारे यह आयोजन अन्तरिक्ष में यह आध्यात्मिक चेतना उत्पन्न कर सकते हैं जिनके आधार पर जन-मानस को उत्कृष्टता की दिशा दी जा सके और सम्मिलित होने वालों को एक नया प्रकाश मिल सके। शास्त्र ने यज्ञ को श्रेष्ठतम सत्कर्म कहा है। आज की परिस्थितियों में जिस उद्देश्य से, जिस आधार पर, जिस स्तर के इन युग-निर्माण सम्मेलनों सहित गायत्री यज्ञों का आयोजन किया जा रहा है वे अपनी उपयोगिता के कारण निस्संदेह सर्वोपरि सत्कर्म हैं। इन आयोजनों का साहस हर सचेतन और समर्थ केन्द्र द्वारा किया जाना चाहिये ताकि अपना हर वर्ष सहस्र कुंडी खण्ड यज्ञ करने का- दस वर्ष में दस अश्वमेध यज्ञ करने का संकल्प पूर्ण हो सके। इसका परिणाम हर आयोजक के लिए परम मंगलमय परिणाम उत्पन्न करेगा।


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