हम समर्थ संघ-शक्ति उत्पन्न करें

January 1968

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संघशक्ति की सदा ही प्रमुखता रही है पर इस युग में तो उनका महत्व सर्वोपरि है। बुद्धि-बल, धन-बल, श्रम-बल- यह इन तीनों के चमत्कार इस संसार में बिखरे पड़े हैं। विभिन्न प्रकार की विभूतियाँ और समृद्धियाँ इन तीनों आधारों पर ही मनुष्य उपलब्ध करता है। इसलिये इनका महत्व विदित है। इन तीन बलों को उपार्जन करने के लिये विविध प्रयत्न भी करते हैं। सरस्वती के रूप में बुद्धि की, लक्ष्मी के रूप में धन की, श्रम के रूप में दुर्गा की पूजा उपासना करते हैं। पर उस संघशक्ति महत्व भुला देते हैं, जो सर्वोपरि है। गायत्री महामंत्र समूहवाद का मन्त्र है। इसका तत्व-ज्ञान “नः” शब्द में सन्निहित है। यह कहता है कि एकाकीपन में नहीं, संगठित एवं सम्मिलित प्रयत्नों में ही मानवीय कल्याण का श्रेय साधन छिपा हुआ है।

एकाकीपन में जड़ता और नीरसता है। कोई परमहंस स्थिति को पहुँचा हुआ व्यक्ति ही उसमें आनंद ले सकता है, तो भी तब जब विश्वात्मा के साथ अपनी आत्मा को ड़ड़ड़ड़ सूक्ष्म चेतनास्तर पर वसुधैव कुटुंबकम् का रस पीने लगे। अन्यथा एकाकी जीवन बहुत ही विकृत एवं कष्टसाध्य बन जाता है। जेल में कैदियों को सबसे बड़ी सजा ‘काल कोठरी’ की दी जाती है। उसे एक अलग कोठरी में बन्द रहना पड़ता है। काम कुछ नहीं करना पड़ता। दिन-रात फुरसत ही फुरसत रहती है। यह एकाकीपन कैदी को इतना अखरता कि उसे एक-एक दिन काटना- पहाड़ की तरह कठिन हो जाता है। झुण्ड छोड़कर जो वन्यपशु अकेले रहने लगते हैं वे बड़े क्रूर प्रकृति के हो जाते हैं। अकारण पेड़ पौधों को तोड़ते हैं और जीवों पर आक्रमण करते हुए अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करते रहते हैं। मनुष्य सामाजिक प्राणी है, मनुष्यता का निखार सामूहिक जीवन में ही सम्भव है।

सम्मिलित जीवन में एक उल्लास भरी शक्ति उत्पन्न होती है। उसी की उपलब्धि के लिये गृहस्थ लोग परिवार बसाते हैं। विरक्त लोग अखाड़े, आश्रम, मठ तथा सम्प्रदाय खड़े करते हैं। मेले-ठेलों में जाना हर दृष्टि से असुविधाजनक, कष्टकर एवं खर्चीला ही पड़ता है, फिर भी लोग बड़े चाव के साथ जाने की तैयारी करते हैं, क्योंकि जन संकुल वातावरण में एक ऐसा आनन्द रहता है जिससे सहज ही बहुत आनन्द मिलता है। विवाह बरातों में जाकर प्रसन्न होने का यही कारण है। जुलूसों और सम्मेलनों में सम्मिलित होने वाले लोग तद्विषयक प्रेरणा और प्रोत्साहन लेकर लौटते हैं। गाँवों को छोड़कर लोग शहरों की ओर इसीलिये भागते रहते हैं कि वहाँ के जनसंकुल वातावरण में अनेक असुविधाएं रहने पर भी एक मानसिक सुख मिलता है।

सम्मिलन में केवल प्रसन्नता ही नहीं मिलती, उसमें शक्ति भी सन्निहित है। एकाकी व्यक्ति कितना ही समर्थ क्यों न हो कुछ बड़ा काम नहीं कर सकता, पर बहुत से आत्म सामर्थ्यवान् मिलकर भी बहुत बड़ा काम कर सकते हैं। टिड्डीदल फसलों और जंगलों को सफाचट कर देता है। चींटियों का एक छोटादल हाथी की सूंड में प्रवेश कर गजराज को मृत्यु के मुख में पहुँचा देता है। अभी-अभी कल परसों की बात है जनता ने हाथ उठाकर- वोट देकर देखते-देखते काँग्रेस पार्टी को शासन के उस मंच पर जा बिठाया, जिसके लिये अंग्रेजों को दो-सौ वर्ष छलबल समेत भारी प्रयत्न करना पड़ा था। समूह की शक्ति असाधारण है। इसी से कलियुग में संघशक्ति को सर्वोपरि माना गया है। नव-निर्माण के लिये हमें इसी महाशक्ति को जागृत एवं प्रयुक्त करना पड़ेगा। एकाकी प्रयत्नों से इतना बड़ा महा अभियान सम्पन्न नहीं हो सकता, चाहे उसका संचालक कितना ही समर्थ व्यक्ति क्यों न हो।

अवतारी महापुरुषों को भी जन-शक्ति का शस्त्र लेकर ही आगे बढ़ना पड़ा है। भगवान राम को मनुष्य सहयोगी न मिले तो रीछ व बानरों की सेना बनाकर असुरता से लड़ने चले। भगवान कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत उठाया तो उसके लिए ग्वाल बालों का सहयोग लिया। महाभारत में वे अकेले भी लड़ सकते थे पर पाण्डवों तथा उनकी छोटी सेना को संगठित करके ही उन्होंने उस कार्य को हाथ में लिया। शिवजी सर्व समर्थ हैं पर अपने प्रयोजनों की पूर्ति वे अपने वीरभद्र, नंदी, भूत, बेतालों की गण-सेना द्वारा ही कराते हैं। कथा प्रसिद्ध है कि जब असुरों से देवता हार गये तक वे प्रजापति के पास विजय का उपाय पूछने गये। प्रजापति ने देवताओं की थोड़ी-थोड़ी शक्ति इकट्ठी कर, उससे एक सम्मिलित शक्तिपुंज उत्पन्न किया जो दुर्गा के नाम से प्रख्यात होकर मधुकैटभ, महिषासुर, शुंभ−निशुंभ जैसे महा दानवों को सैन्य संहार करने में समर्थ हुई। असुरता से संत्रस्त ऋषियों ने परित्राण का कोई और उपाय न देखकर अपना थोड़ा-थोड़ा रक्त इकट्ठा किया उसे भूमि में गाढ़ा। कालान्तर में वही रक्त घट परिपक्वावस्था में राजा जनक को मिला और उसमें सन्निहित शक्ति को सीता के नाम से पुकारा गया। यह सीता शक्ति ही असुर साम्राज्य को विध्वंस करने की भूमिका बनी। संघ शक्ति सर्वत्र ऐसे ही चमत्कार उत्पन्न करती है।

युगनिर्माण के लिये हमें सज्जनों की- धर्मनिष्ठ व्यक्तियों की- शक्ति का एकीकरण करना पड़ेगा। वे आज बिखरे हुए हैं इसी से दुर्बल पड़ रहे हैं, हार रहे हैं, असुरता संगठित है इसलिए वह मोर्चे पर जीत रही है। डाकुओं के छोटे-छोटे दल संगठित होने के कारण अपने क्षेत्रों में भारी आतंक उत्पन्न कर देते हैं और सरकार की भारी शक्ति खर्च कराके भी देर तक पकड़ में नहीं आते। तब क्या सज्जनों का संगठन सृजनात्मक प्रयोजनों की पूर्ति में सफल नहीं हो सकता? असुरता से देवत्व की शक्ति कहीं अधिक है पर वह हारती एक ही कारण से है कि संगठन की ओर उपेक्षा बरतती रहती है। देव प्रकृति के व्यक्ति यदि संगठित होकर सदुद्देश्य के लिए कदम बढ़ायें तो आश्चर्यजनक सफलता सुनिश्चित है। हमें यही करना होगा। हर देव प्रकृति के व्यक्ति को संगठन का महत्व समझना होगा। उन्हें संघबद्ध होने के लिए आग्रह और अनुरोधपूर्वक तैयार करना होगा। उनकी सम्मिलित शक्ति को नव-निर्माण के लिए प्रयुक्त करना होगा। इस दिशा में जितनी सफलता मिलती जायेगी, युग परिवर्तन का पथ उतना ही प्रशस्त होता चला जायेगा। जब तक सज्जनों की संघ शक्ति का सृजन न हो सकेगा, तब तक हमारी महान योजनायें, दिवास्वप्न की तरह कल्पना लोक में ही विचरण करती रहेंगी।

यों आगे चलकर संगठित तो समस्त विश्व के सभी धर्म प्रेमियों को करना होगा, पर इसका आरम्भ अपने छोटे से ‘अखण्ड-ज्योति परिवार’ से कर रहे हैं। इस परिवार में अधिकाँश व्यक्ति पूर्वजन्मों की संचित अध्यात्म सम्पदा वाले हैं। इन्हें प्रयत्नपूर्वक ढूँढ़-ढूँढ़कर 28 वर्षों के प्रयत्न परिश्रम से एक झण्डे के नीचे एकत्रित किया गया है। व्यक्तिगत रूप से भी यह आत्मायें हमारे साथ अनेक जन्मों से जुड़ी हुई हैं। इनका संगठन अपेक्षा कृत सरल है। जब कभी थोड़ा प्रयत्न किया गया है वे आसानी से संगठित हो भी गई हैं। गायत्री परिवार के रूप में एक प्रयास किया गया था और 24 लाख के लगभग व्यक्तियों को कुछ ही समय में संगठित कर लिया गया था। उनमें से चार लाख व्यक्ति तो सहस्र कुण्डी गायत्री यज्ञ में सुदूर प्रदेशों की लम्बी और कष्ट साध्य यात्रा करके मथुरा आये थे। गायत्री प्रचार के उद्देश्य से किया गया वह प्रयत्न अपने समय पर- अपने ढंग से बहुत सफल रहा अब नव-निर्माण के लिये उससे कुछ ऊँचे स्तर के- अपेक्षा कृत अधिक निष्ठावान् व्यक्तियों को संगठित करने की आवश्यकता अनुभव की गई है तो वह संकल्प भी असफल न रहेगा।

गायत्री परिवार के संगठन में एक माला महामंत्र का जप करने मात्र की सरल शर्त थी। सरल कार्य तो बालक भी कर लेते हैं। बालकों को रीछ बन्दर वाले भी इकट्ठे कर लेते हैं। प्रौढ़ों का एकीकरण, वह भी उनका जो तप त्याग और सेवा साधना का व्रत लेकर आगे आयें कुछ कठिन है। इस प्रयोजन में इतने अधिक व्यक्ति इतनी जल्दी इकट्ठे नहीं हो सकते। फिर भी निराशा जैसी कोई बात नहीं। यह धरती वीर विहीन नहीं हुई है। ऊँचे स्तर के लोग भी यहीं हैं। उनकी मूर्छा भर जागनी है। अपने स्वरूप, कर्तव्य और उत्तरदायित्व को जिस दिन वे समझ सके उसी दिन दीन-दरिद्र की तरह रोता बिलखता जीवन जीने की अपेक्षा वे प्रकाशवान् गतिविधियाँ अपनाने के लिये मुड़ पड़ेंगे और देखते-देखते युग-पुरुषों की महान भूमिका सम्पादित करने लगेंगे। इसी महान् जागरण की प्रेरणा फूँकने के लिये हमारी भावी तपश्चर्या का कार्यक्रम बना है। किन्तु तब तक हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहने की आवश्यकता नहीं है। सज्जनों की सम्मिलित शक्ति को जागृत करने का प्रयत्न हमें आज से ही आरम्भ कर देना चाहिए। उसका काम चलाऊ स्वरूप तो हम इस बसन्त-पंचमी तक ही खड़ा कर सकते हैं।

जहाँ-जहाँ अखण्ड-ज्योति पहुँचती है वहाँ यह तलाश किया जाना चाहिए कि पत्रिका के सदस्य कौन-कौन हैं। अधिक उत्साही व्यक्ति उनसे व्यक्तिगत रूप से मिलें और अनुरोध करे कि अगले वर्ष संघबद्ध होकर रहना है। किसी सुविधा के दिन सबको एकत्रित किया जाय और युगनिर्माण शाखा के नाम से एक संगठन बना लिया जाय। किसी सदस्य का कमरा कार्यालय के लिए उपलब्ध कर लिया जाय। यह स्थान नगर के बीच में होना चाहिये जहाँ पहुँचने में सबको सुविधा हो और बिना संकोच के सदस्यगण इकट्ठे होकर परस्पर हँसने बोलने में किसी प्रकार का बन्धन एवं संकोच अनुभव न करें।

शाखा के लिये कई रजिस्टर बनाने चाहिये। प्रथम रजिस्टर में सदस्यों और सहायकों की नामावली रहे। सदस्य वे माने जायें जो पैसा खर्च कर ‘अखण्ड ज्योति’ को मँगाते हैं। सहायक वे माने जायें जो पैसा तो खर्च नहीं करते पर दूसरों से लेकर नियमित रूप से पढ़ लेते हैं। पत्रिका पढ़ लेने की शर्त इसलिए रखी गई है कि प्रस्तुत विचार धारा का जिन्हें नियमित प्रशिक्षण मिल रहा होगा, उन्हीं से नियत प्रयोजन के लिए, नियत क्रिया पद्धति से कुछ काम करने की आशा की जा सकती है। जिन्हें पढ़ने, सुनने, समझने का अवसर ही नहीं मिलता वे पूरी बात से परिचित ही न होंगे। युग-निर्माण शब्द के उल्टे सीधे अर्थ लगावेंगे और ऐसा ऊटपटाँग काम करेंगे, ऐसी ऊलजलूल बातें करेंगे, जिनसे लक्ष्यपूर्ति में सहायता मिलना तो दूर उलटी बाधा उत्पन्न हो। नव निर्माण की विचारधारा वर्तमान मान्यताओं में भारी उथल पुथल उत्पन्न करती है। पुराने सड़े-गले ढर्रे को अपनाये बैठे रहने वाले व्यक्ति अभीष्ट बारीकियों को समझ नहीं पाते फलतः प्रगति के स्थान पर विकृति उत्पन्न करते हैं। हमें क्या सोचना चाहिए और क्या करना चाहिए इसका ठीक तरह प्रशिक्षण ‘अखण्ड-ज्योति’ और युग-निर्माण’ पत्रिकायें ही करती हैं। जो उन्हें पढ़ते तक नहीं उनसे मिशन को गतिशील बनाने की भला क्या आशा की जायेगी। अनजान लोगों की भीड़ इकट्ठी करके बड़ा संगठन बना लेने का विडम्बना भरी मोह नहीं करना चाहिये। संख्या से नहीं उत्कृष्टता से काम चलेगा भले ही वह थोड़ी ही क्यों न हो।

प्रथम रजिस्टर में सदस्यों और सहायकों की नामावली नोट करनी चाहिए। दूसरे में मीटिंगों की कार्यवाही दर्ज की जाती रहे। तीसरे में हिसाब रहे। चौथे में पुस्तकालय की पुस्तकें तथा संस्था की सम्पत्ति नोट रहे। पांचवें में पुस्तक देने और वापिस लेने की जानकारी रहे। छठवें में सदस्यों और सहायकों की जन्मतिथियाँ नोट रहें और जन्मोत्सव मनाये जाने सम्बन्धी-व्यवस्था दर्ज की जाय। यह छः रजिस्टर जो रहने ही चाहिये। आवश्यकतानुसार घटाये बढ़ाये भी जा सकते हैं।

शाखा के केन्द्र स्थान पर एक ‘नव निर्माण पुस्तकालय’ होना अनिवार्य रूप से आवश्यक है। अपना समस्त प्रकाशन उसमें रहे व्यक्तिगत रूप में जो सदस्य अपने यहाँ ‘ज्ञान-मन्दिर’ बनाये हुए हैं और झोला पुस्तकालय चला रहे हैं सो तो चलने ही देने चाहिये। साथ ही एक केन्द्रीय पुस्तकालय अवश्य रखा जाना चाहिये ताकि जिन तक साहित्य नहीं पहुँच पा रहा है उन तक पहुँचाने की प्रवृत्ति प्रचलित की जा सके। इसी प्रकार हर सदस्य और सहायक का जन्मोत्सव मनाने का प्रबन्ध भी किया जाय। इस सम्बन्ध में पिछले अंकों में बहुत कुछ लिखा जाता रहा है। ‘जन्म-दिवसोत्सव कैसे मनायें?’ ‘जन्म-दिवसोत्सव पद्धति’ की पुस्तकें पढ़कर उसकी रूपरेखा आसानी से समझी जा सकती है। छोटे बच्चों के जन्मोत्सव मनाना उनके माँ-बाप का काम है। शाखा का अपने सदस्यों और सहायकों के जन्मोत्सव मनाने पर ही ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। जन्मोत्सवों के माध्यम से इन सदस्यों को महत्वपूर्ण प्रेरणाएं ही जा सकती हैं और उन्हें अधिक सक्रिय बनाया जा सकता है। अस्तु पुस्तकालय और जन्मोत्सवों का कार्य जिस दिन शाखा स्थापित हो उसी दिन से हाय में ले लेना चाहिए। अन्य कार्य सुविधानुसार पीछे भी किये जा सकते हैं। दस वर्षीय यज्ञानुष्ठान के अंतर्गत हर सदस्य को एक माला गायत्री जप नव-निर्माण के लिये करने का अनुरोध किया गया है। उसे व्यापक बनाने का प्रयत्न शाखा स्थापना के साथ-साथ ही आरम्भ कर देना चाहिये। इस जप संकल्प में कोई भी सम्मिलित हो सकता है। इसमें सदस्य या सहायक का प्रतिबन्ध नहीं। हर सदस्य को अपने प्रभाव क्षेत्र में अधिक जप-भागीदार उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व इसी अवसर पर सम्भाल लेना चाहिये।

चुनाव केवल एक कार्य वाहक का किया जाय। जो सबसे अधिक उत्साही, कर्मठ, भाग-दौड़ करने में समर्थ और विनम्र, साथ ही शिक्षित हो। ऐसे व्यक्ति को शाखा का कार्यवाहक नियुक्त कर देना चाहिये। शेष सब लोग सभासद रहें। प्रधान, उपप्रधान, मंत्री उपमंत्री, निरीक्षक आदि कोई न बने। यह झंझट हर जगह ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और अड़ंगे पैदा करता है। इसी विडंबना के कुचक्र में अनेक उपयोगी संस्थायें नष्ट हो गई और जो बची हैं उनकी नाव इसी भँवर में डूबने जा रही है। पद लोलुपता से बढ़कर लोक मंगल के कार्यों में और कोई विघ्न नहीं। इसलिये अपने संगठन को इस जंजाल से पहले ही बचा लिया जाय। एक कार्यवाहक की नियुक्ति पर्याप्त है। जब कभी कारण-वश बदलाव आवश्यक हो जाय तक सब लोग मिलजुल कर प्रेमपूर्वक दूसरा नियुक्त करलें। हर साल चुनाव करने की कोई आवश्यकता नहीं।

हर स्थानीय संगठन अपने आप में स्वतन्त्र है। उनके ऊपर क्षेत्रीय प्रान्तीय आदि संगठन न बनेंगे। केन्द्र से जो प्रकाश मिलता है उसके अनुरूप दिशा निर्धारित करने में यह संगठन सहायता ले सकते हैं। किसी तरह का बन्धन उसके साथ भी नहीं है। युग-निर्माण योजना एक विचार पद्धति एवं कार्य पद्धति मात्र है। उसे बन्धनात्मक झंझटों से जबड़ा नहीं गया है। स्थानीय संगठन ही इसके लिये पर्याप्त हैं। प्राचीन काल में सभी धर्म, सम्प्रदाय एवं आन्दोलन इसी आधार पर चलते और फलते-फूलते थे। अब जब से ‘डेमोक्रेसी’ की सरकारी पद्धति धर्म संगठनों और संस्थाओं में घुस पड़ी तब से जो पदलोलुपता का रोग सरकारों में है वही इन संगठनों में भी घुस पड़ा और धूर्त लोग अपने स्वार्थ साधन के लिए उस तन्त्र का दुरुपयोग करने लगे। हमें इस जंजाल से अपने संगठन-क्रम को सर्वथा बचाये रखना है। केवल छोटे स्थानीय संगठन ही पर्याप्त माने जायेंगे। उनका नैतिक एवं बौद्धिक मार्ग-दर्शन मात्र केन्द्र करेगा।

हाँ, निर्धारित विचारधारा से प्रतिकूल आचरण अथवा प्रमाद करने पर प्रतिबन्ध रहेगा। ऐसे संगठनों को बिरादरी से ‘बहिष्कृत’ करने का दण्ड दिया जा सकेगा।

‘अखण्ड-ज्योति-परिवार’ के हर सदस्य को स्थानीय शाखा के रूप में संगठित हो जाना चाहिये। सूत के कच्चे धागे मिलकर एक ऐसे मजबूत रस्से का रूप धारण करते हैं जिससे मदोन्मत्त गजराज को बाँधा जा सके। बँधी हुई सींकों की बुहारी झाड़ने का काम ठीक तरह करती है। संघबद्ध सज्जनों का समाज ही युग बदलने जैसे महान् अभियान को सफलतापूर्वक सम्पन्न कर सकता है।


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