सतगुरु की कृपा से जीवन्मुक्त पद की प्राप्ति

May 1958

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(श्री. जगतनारायण)

साधारणतः हम समझते हैं कि मनुष्य-जीवन का लक्ष्य ईश्वर अथवा ब्रह्म के साथ ऐक्य स्थापित करना है। पर सिद्धान्त रूप से यही लक्ष्य तो प्रत्येक प्राणी का है। क्या मनुष्य, क्या पशु, क्या वनस्पति, क्या अन्य श्रेणी के दृश्य अथवा अदृश्य प्राणी- सभी अनंत में उसी एक परम पद को प्राप्त होंगे। सभी की आदि, उत्पत्ति वहीं से है और अन्त में सभी उसी में जा मिलेंगे। पर तो भी कोई प्राणी एकाएक उस अन्तिम लक्ष्य तक नहीं पहुँच सकता। आदि से लेकर अन्त तक, जहाँ तक ज्ञान उपलब्ध हुआ है, उससे यही प्रतीत हुआ है, कि समस्त जगत के लिए एक ईश्वरीय विधान है, जिसके अनुसार ही सभी प्राणियों का क्रमशः विकास होता है। इस दृष्टि से विचार करने पर जान पड़ता है कि खनिज-वर्ग के जीवन की पूर्णता इसी में है कि वे विकसित होकर वनस्पति-वर्ग में पहुँच जायें। ऐसे ही वनस्पतियों के जीवन का लक्ष्य यह है कि विकास पाकर पशु-वर्ग में प्रवेश कर जायें और पशु-जीवन का लक्ष्य यही है कि वे विकास करके मनुष्य-वर्ग में पहुँच जायें। इस प्रकार देखा जाता है कि यद्यपि सभी प्राणी अन्त में परमब्रह्म परमेश्वर में ही लीन हो जायेंगे तथापि उनको जीवन के भिन्न-भिन्न वर्गों में ही होकर सफर तय करना पड़ता है, अर्थात् अन्तिम लक्ष्य के अलावा प्रत्येक वर्ग का भी एक-एक लक्ष्य है और मनुष्य-वर्ग भी विकास-क्रम के मध्य का एक विभाग है। इसलिए मनुष्य-वर्ग से भी साधारणतः कोई परमब्रह्म के पद को बिना इससे ऊपर वाले वर्गों को पार किये नहीं महात्माओं का वर्ग।

जब मनुष्य प्रवृत्ति मार्ग से निकल कर प्रवृत्ति और निवृत्ति की मध्यावस्था को भी पार करके निवृत्ति-पथ पर दृढ़ हो जाता है, उसी समय उसका सद्गुरु से साक्षात्कार हो सकता है और उन्हीं के दिखलाये मार्ग पर चलकर वह मनुष्य-जीवन की पूर्णता को प्राप्त करके महात्मा-श्रेणी में पहुँच सकता है, यही मनुष्य के आध्यात्मिक जीवन का पवित्र गुप्त मार्ग है। इस मार्ग का अवलम्बन प्रत्येक धर्म में आ जाता है। हाँ, भिन्न-भिन्न धर्मों में इसके प्रकट करने की रीतियों में अन्तर अवश्य है। पर सब का सार निस्वार्थ भाव से मनुष्य-मात्र की सेवा करना ही है। जब तक मनुष्य दूसरों का उपकार करने के बजाय निजी स्वार्थ पर ही दृष्टि रखता है तब तक वह महात्मा-श्रेणी में कदापि दाखिल नहीं हो सकता।

जब मनुष्य में निस्वार्थ सेवा का भाव पूर्ण रूप से दृढ़ हो जाता है और उसके मन तथा हृदय से साधारण कमजोरियाँ दूर हो जाती हैं, तब उसका सीधा सम्बन्ध सद्गुरु की चेतना से हो जाता है। अब मनुष्य के विचारों, भावनाओं, इच्छाओं अथवा वासनाओं का प्रभाव गुरुदेव के मन तथा हृदय पर पहुँचता है। यही कारण है कि मनुष्य के विकास-क्रम में चरित्र-गठन और निस्वार्थ सेवा के सद्गुणों पर इतना अधिक जोर दिया जाता है, तब उसका सीधा सम्बन्ध सद्गुरु की चेतना से हो जाता है। अब मनुष्य के विचारों, भावनाओं, इच्छाओं अथवा वासनाओं का प्रभाव गुरुदेव के मन तथा हृदय पर पहुँचता है। यही कारण है कि मनुष्य के विकासक्रम में चरित्र-गठन और निस्वार्थ सेवा के सद्गुणों पर इतना अधिक जोर दिया जाता है, क्योंकि यदि इस समय भी उसके मन में बुरी वासनायें अथवा तुच्छ विचार उठते हैं तो उनका प्रभाव गुरुदेव के हृदय पर भी पड़ता है और उस प्रभाव को हटाने के लिए गुरुदेव को अपनी आत्मिक शक्ति व्यय करनी पड़ती है। पर वे इस कार्य को इसी आशा से करते रहते हैं कि इस समय जितना ध्यान उनको एक व्यक्ति के ऊपर देना पड़ता है, समय आने पर अर्थात् उसका विकास हो जाने पर, वह उसका कई गुणा अधिक मानव समाज का हित-साधन करेगा।

इस अवस्था में पहुँचने पर मनुष्य एक प्रकार से इस संसार से विलग हो जाता है। पर इसका यह अभिप्राय नहीं कि वह संसार को छोड़कर संन्यास ग्रहण करके जंगल, पहाड़ की गुफा अथवा अन्यत्र कहीं जा बैठता है। यह तो असम्भव है, क्योंकि सद्गुरु उसे जो नई शक्ति प्रदान करते हैं, उसका उद्देश्य तो मानव समाज की अधिक निपुणता के साथ सेवा करना होता है। संसार में तो उसे रहना ही होता है, पर संसार में रहते हुए भी उसे साँसारिक विषयों से पूर्ण रूप से अनासक्त रहना पड़ता है। इतना अवश्य है कि इस प्रकार की शक्ति को पाकर भी कभी-कभी मनुष्य अपने धर्म के कठिन मार्ग से विचलित होकर नीचे गिर जाते हैं, पर उसका यही मतलब है कि कुछ काल के लिए वे अपने विकास को रोक देते हैं। इस अवस्था पर पहुँचे हुए मनुष्य का कभी पूर्ण रूप से पतन नहीं हो सकता। इस प्रकार की अवस्था को शास्त्रों में ‘परिव्राजक’ नाम से पुकारा जाता है, जिसका आशय यह है कि वह आदमी अब इस संसार का नहीं रह जाता। किसी स्थान से उसका विशेष सम्बन्ध नहीं रहता। वह सदा भ्रमण करता रहता है, अर्थात् संसार में उसको अपनी ओर आकर्षित करने की शक्ति अब नहीं रहती है। खेद है कि आज इस ऊँचे पद को बिलकुल नीचे गिरा दिया गया है और चाहे जो अपने को ‘परिव्राजक’ कहने लग जाता है। बौद्ध धर्म वाले इस अवस्था को ‘श्रोतापत्ति’ के नाम से पुकारते हैं। इसका भी अर्थ यही है कि वह मनुष्य संसार से अलग होकर जीवन की असली धारा में प्रवेश कर जाता है, अब वह संसार-चक्र की तरफ मुड़ नहीं सकता। ईसाई धर्म में ईसा-मसीह के जन्म का भी ऐसा ही आशय समझा जाता है। अध्यात्म-ज्ञानी ऐसे ही व्यक्ति को ‘द्विज’ अर्थात् दूसरा जन्म धारण करने वाला कहते हैं।

इसी प्रकार के अनेकों प्रयत्नों और आध्यात्मिक परीक्षाओं जैसे कुटीचक्र, हंस, परमहंस द्वारा मनुष्य संसार के सब बन्धनों को तोड़कर जीवन्मुक्त अवस्था तक पहुँच जाता है। यही मनुष्य के जीवन का अंतिम फल है। यही मनुष्यमात्र के लिए एकमात्र पवित्र पथ है जैसे कि घर पहुँचने के लिए भिन्न-भिन्न धर्म, भिन्न-भिन्न पगडण्डियों की तरह है। शुरू में तो कई प्रकार के अन्तर देखने में आते हैं, पर आगे जाकर सभी पगडंडियाँ इसी एक पथ में मिल जाती हैं। यह पथ बड़ा कल्याणकारी और साथ ही महा कठिन भी है। इसी पथ के लिए कहा गया है कि वह तलवार की धार पर चलने के समान है। पर खेद है कि आजकल अज्ञानी और स्वार्थी मनुष्यों ने इसे हद दर्जे तक नीचे गिरा रखा है और चाहे जो साधारण गेरुआ वस्त्रधारी अपने को इन नामों से विभूषित करते रहते हैं। पर जो वास्तव में आध्यात्मिक उन्नति के ऊँचे सोपान पर पहुँचना चाहते हैं उनको सच्चे सद्गुरु की खोज करके सत्य ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। हमको विश्वास रखना चाहिये कि अत्यंत प्रेम और अगाध दया के साथ सद्गुरु हमारी ओर देख रहे हैं। क्या हम उनकी सहायता से अपना जीवन सफल न बनायेंगे? रास्ता विकट है, पर निस्वार्थ सेवा की भावना को बढ़ाने से इसकी कठिनाइयाँ बहुत कम हो जाती हैं। हम कैसी भी नीची स्थिति में क्यों न हों, पर जीवन के तथ्यों को समझ कर उनके अनुसार चलने से एक दिन अवश्य पूर्णता के उच्चतम शिखर पर पहुँच सकेंगे।


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