सफलता का रहस्य

May 1958

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(श्री. स्वामी शिवानन्द सरस्वती)

जीवन में सच्ची सफलता क्या है? क्या यह भौतिक ऐश्वर्य है? अथवा बच्चों और धन से परिपूरित जीवन संसार में व्यतीत करना? सफलता दो प्रकार की है, साँसारिक सफलता और आध्यात्मिक सफलता। यदि तुम अच्छी परिस्थिति में हो, कुसुमवत् तुम्हारी शय्या है और तुम्हारे पास वे सभी वस्तुएँ है जिन्हें यह संसार दे सकता है, तो यह भौतिक सफलता है। परन्तु यही सब कुछ नहीं है, क्योंकि यह जगत तो अपूर्ण है। तुम्हें साधन-पथ में भी साथ ही साथ, अग्रसर होना और सफल बनना है। तभी तुम पूर्ण सफलता के अधिकारी हो सकोगे।

जीवन में वास्तविक और स्थायी सफलता की प्राप्ति के कौन से उपाय हैं? कथनी से करनी कठिन है। अपने व्याख्यान के बीसवें अंश के समान बनना भी कठिन ही है। सिद्धान्तों के ढेर से लाभ क्या, यदि उसको जीवन में क्रियात्मक रूप न दिया? सिद्धान्तों के मनों से अभ्यास का एक तोला भी अधिक महत्व का है। इस लोक और परलोक के लिए क्रियाशील या कर्मयोगी बनो। तभी भौतिक और आध्यात्मिक सफलतायें तुम्हारी चेरी बनेंगी।

जीवन दो प्रकार का है, भौतिक जीवन और शुद्ध ज्ञान सम्पन्न आध्यात्मिक जीवन। जीवशास्त्री और मनोवैज्ञानिकों का मत है कि सोचना, अनुभव करना, जानना, इच्छा करना, पाचन-क्रिया, रक्त संचार और हृदय संचालन आदि ही जीवन है। ऐसा जीवन स्थिर नहीं है। इसके पीछे है खतरा, पाप, कष्ट, भय, चिन्तायें और शोकाग्नि, जरा-मरण का दुख और व्याधि आदि। इसीलिए ऋषियों, द्रष्टाओं, सन्तों और साधुओं ने, जिन्होंने त्याग और तपस्या से मन-इन्द्रियों को वश में करके, अभ्यास, और त्याग पूर्ण जीवन बिताकर अपनी अन्तरात्मा को पहचान लिया है, यह एक स्वर से, बिना किसी सन्देह किये हुए, घोषित कर दिया है कि एकमात्र आध्यात्मिक जीवन ही शाश्वत शाँति, परमानन्द, अनन्त-संतोष और अमरत्व ला सकता है। उन्होंने साधक की भिन्न-भिन्न व्यक्तिगत रुचि, स्वभाव, शक्ति के अनुसार आत्म-दर्शन के विभिन्न उपाय बताये हैं। जिनका उनके उपदेशों, वेद और गुरु के वाक्यों में अचल श्रद्धा है, वे ही अध्यात्म या सत्य के क्षेत्र में प्रगति करते हैं और मोक्ष, पूर्णत्व या स्वतन्त्रता को प्राप्त करते हैं। मानव जीवन का यही लक्ष्य है। आत्मदर्शन ही तुम्हारा परम कर्तव्य है।

इसका तात्पर्य यह नहीं कि भौतिक क्षेत्रीय जीवन पूर्णतया हेय ही है। यह जड़ जगत प्रभु की लीला के निमित्त उसी की अभिव्यक्ति है। जड़ और चेतन, जीव और अजीव उसी प्रकार अविच्छिन्न और अभेद्य है जिस प्रकार कि गर्मी ओर अग्नि, बर्फ और शीतलता, पुष्प और उसकी गंध। शक्ति और शक्ति का धाता एक ही है। माया और ब्रह्म एक है और अभेद्य है। भौतिक क्षेत्र का जीवन ब्रह्म में शाश्वत जीवन की प्राप्ति के लिए एक पृष्ठभूमि है। यह विश्व ही तुम्हारा सर्वोत्तम गुरु है। पाँच तत्व ही तुम्हारे शिक्षक हैं। प्रकृति ही तुम्हारी माता है और है पथ-निर्देशिका। वह मौन शिक्षक है। यह जगत ही दया, क्षमा, शान्ति, सहन-शीलता, विश्व प्रेम, उदारता, साहस और दृढ़ संकल्प आदि दैवी गुणों के विकास का आश्रय-स्थल है। गीता और योग-वाशिष्ठ की मुख्य शिक्षा यही है कि विश्व में रह कर हमें आत्म-साक्षात्कार करना चाहिए। “संसार में रहो, पर उससे बाहर भी।” जल में कमल पत्रवत् व्यवहार करो। स्वार्थ, काम, क्रोध, लोभ, घृणा और ईर्ष्यादि नीच वृत्तियों का परित्याग करो। दैवी वृत्ति को अपनाओ और मानसिक संन्यास तथा स्वार्थ रहित जीवन व्यतीत करो।

विज्ञान और धर्म, राजनीति और धर्म एक दूसरे से अलग नहीं किए जा सकते हैं। वे एक दूसरे के परिपूरक हैं। आध्यात्मिक बीज के वपनार्थ राजनीति आधार स्वरूप है। यदि देश में आर्थिक स्वतन्त्रता नहीं; यदि देश पराधीन है और अशान्ति का देश में बोलबाला है तो वहाँ अध्यात्म बीज कैसे बोया जा सकता है? देश के नौनिहालों को ज्ञान की प्रेरणा कैसे दी जा सकती है। जीवन में यदि खाद्य समस्या ही लोगों के समक्ष रहती है, लोगों को पहनने के लिये कपड़े नहीं, रहने के लिये घर नहीं तो भला सन्त जन अपनी उपदेशमयी वाणी का उपयोग ही कहाँ और कैसे कर सकेंगे। सन्तों के उपदेश तभी मन द्वारा गृहीत होते हैं जबकि जीवन चिन्ताओं से मुक्त होता है और वहाँ साधना की सामग्रियाँ उपलब्ध होती हैं।

यदि गृहस्थ अपने वर्णाश्रम धर्मों का पालन करने लग जायँ, तो आज इतने संन्यासियों की बिल्कुल आवश्यकता नहीं हैं। यह आवश्यकता तो परिवार के सदस्यों के मनुस्मृति और शास्त्राज्ञाओं से पतित हो जाने पर आ पड़ी है। गृहस्थों को सद्मार्ग दिखाने के लिये, देश में इतने संन्यासी हुये हैं। सच्चे संन्यासी देश के पथ-प्रदर्शक हैं। महात्मा-जनों के साथ सत्संग करने का यही लाभ है।

विज्ञान के प्रयोगों और परीक्षणों के सूक्ष्म अध्ययन भी हमें प्रभु के समीप तक पहुँचा देते हैं। विद्युत में शक्ति कहाँ से आई? वह कौन सी शक्ति है जिसने चार भाग नाइट्रोजन और एक भाग ऑक्सीजन का सम्मिश्रण किया है? वह कौन सी बुद्धि है जो प्रकृति में गति उत्पन्न करती है? क्या वैज्ञानिक आविष्कार वास्तव में मनुष्य को आनन्द दे सकते हैं? विज्ञान ने हमारे प्रति इस समय क्या किया है? आत्मज्ञान के समक्ष वैज्ञानिक ज्ञान का कोई अस्तित्व नहीं। ब्रह्मविद्या पराविद्या है। आत्म-विद्या पर ही सभी विज्ञान आधारित हैं। विज्ञान का प्रगति के साथ-साथ जैसे-जैसे व्यक्ति की आवश्यकतायें बढ़ती जा रही हैं, वैसे-वैसे वह अशाँति का अनुभव करता जा रहा है।

आधुनिक वैज्ञानिक आविष्कारों की बुराइयों से दीन दशा को प्राप्त मानव-समुदाय के उद्धार का यदि कोई उपाय है तो वह प्रकृति की शरण ही है। हमें प्राकृतिक चिन्तन और प्राकृतिक जीवन में लगना होगा। हमें अपने पूर्वजों के “सादा जीवन, उच्च विचार” वाले नियम को अनुगत करना होगा। सादा वस्त्र पहनो। प्रतिदिन भ्रमण करो, सिनेमा और उपन्यास अध्ययन का परित्याग करो। सादा भोजन करो। परिश्रमी जीवन का महत्व समझो और उसे अपनाओ। सदैव सीधे रहो। अपनी इंद्रियों को वश में लाओ। जीवन में सद्गुणों का विकास करो। बुद्धिमानों की संगति करो। ईश्वर को याद करो, कीर्तन करो। उस प्रभु को प्रत्येक स्थान पर विराजमान होता हुआ अनुभव करो। दिव्य जीवन व्यतीत करना सीखो और आत्मभाव से समाज की सेवा करो। तुम्हारी मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय यही है। तुम्हें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफलता मिलेगी। यह एक ऐसी कुँजी है जिससे परमानन्द का द्वार आसानी से खोला जा सकता है।

सत्य किसी को कष्ट नहीं दे सकता। सत्य की ही विजय होती है। सत्य ही परम सुख ला सकता है। हमें सत्यमय जीवन बिताना चाहिये। सत्य ही हमारा गृह हो और हमारा शरीर तथा मन भी सत्य से ही अभिसिंचित हो। परम सत्य को जानों। मानव शरीर पाना बड़ा दुर्लभ है। नर तन पाकर इस गतिशील समय का एक मिनट भी साधना से रिक्त न जाने दो। अपनी जीवन-चक्रिका को सफल बनाओ और ईश्वरत्व को अभी, इसी क्षण प्राप्त करो। यही हमारी एकमात्र प्रार्थना है। प्रभु तुम्हें ऐश्वर्य और आनन्द से पूर्ण बनावें। अपने सच्चिदानन्द स्वरूप में शान्ति का लाभ करो।


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