विश्वामित्र ऋषि और गायत्री

May 1958

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(श्री. विष्णुदेव साँकलेश्वर पंडित)

एक दिवस प्रातःकाल विश्वामित्र ऋषि हिमालय के उच्च प्रदेश पर आसन लगाकर बैठे थे। उनकी देह स्थिर और अचल थी। उषाकाल व्यतीत हो चुका था और गगन-मण्डल के एक कोने से सूर्य झाँकने लगा था। उसकी प्रथम किरणों ने हिमालय के शिखर का स्पर्श किया। उसी किरण ने फिर विश्वामित्र के हृदय का स्पर्श किया। देखते-देखते हजारों किरणों को फैलाता हुआ सूर्य ऊपर आ गया। विश्वामित्र को इस सूर्य के दर्शन हुये।

पर यह क्या? विश्वामित्र अकस्मात् बड़े विस्मय में पड़ गये। उनके शरीर के भीतर भी एक सूर्य चमक रहा था। उनके हृदय रूपी आकाश में भी एक सूर्य प्रकाशित हो रहा था। यह बाहर के आकाश का सूर्य समस्त विश्व को प्रकाश देने के कारण समष्टि सूर्य था और विश्वामित्र के हृदयाकाश में-मस्तक से लेकर पैर के नख तक प्रकाशित यह दूसरा सूर्य व्यक्तिगत था। इन दोनों सूर्यों में एकता का भाव उत्पन्न हो रहा था। ये दोनों ही भौतिक पदार्थ थे। बाहर का सूर्य पाँच महाभूतों का बना था और देह के भीतर का सूर्य भी पंच महाभूतों के आधार पर ही प्रकाशित हुआ था। विश्वामित्र विचार करने लगे कि इन पाँच महाभूतों का प्रेरणा देने वाला कौन है, कौन सी शक्ति कार्यक्षम बना रही है?

विश्वामित्र की वेधक दृष्टि जड़ जगत से बाहर जाकर चेतन तत्त्व को खोज रही थी। बाहर की स्थूल जड़ता को तोड़कर वह अन्तरतल में प्रवेश कर रही है। वहीं से तेज का प्रवाह निकल रहा था। वहाँ से नई-नई चेतनाएं और प्रेरणाएँ मिल रही थीं। उन प्रेरणाओं को देने वाला अन्तर्यामी देव सविता नारायण था। वह आधिदैविक रूप में सब देवों का अधिदेव था। उसी की प्रेरणा से आकाश स्थित सूर्य को असंख्यों किरणों द्वारा विश्व को प्रकाशित करने की शक्ति मिली थी और उसी की चेतना इस देह में स्थित सूर्य को प्रकाश प्रदान कर रही थी। जिस प्रकार ‘साँझी’ (बहुत से छेद वाली हाँडी) में रखे हुए देवी के दीपक का प्रकाश प्रत्येक छेद में से झलकता है, उसी प्रकार देह में बैठे अन्तर्यामी का प्रकाश प्रत्येक इन्द्रिय और एक-एक रोमकूप से प्रगट होता रहता है। सच्चे साधु, संतजनों की देह के छिद्र निर्मल, स्वच्छ रहते हैं, इससे उनकी देह में स्थित प्रकाश विशेष रूप से दिखलाई पड़ता है। पर संसारी और पापी जनों के छेद विषय वासना के मैल से भरे रहते हैं, इसलिये भीतर बैठा अन्तर्यामी पुरुष अपना प्रकाश बाहर नहीं फेंक सकता, अथवा बहुत ही मन्द रूप में फेंक सकता है। इसी से साधुजनों के शरीर का प्रकाश (ओरा) सफेद स्वच्छ होता है और पापी संसारी जनों का ‘ओरा’ काला होता है।

विश्वामित्र ऋषि ने अनेक वर्षों तक तप करके अपनी देह के सब छिद्रों को स्वच्छ, निर्मल बना लिया था। उन्होंने अपनी बुद्धि शक्ति को पारदर्शक बनाया था। भीतर का या बाहर का किसी प्रकार का मैल उनमें शेष नहीं रह गया था। विश्वामित्र का देह तपे हुये सुवर्ण के समान प्रकाशमान बना था। अब उनकी देह अपनी नहीं रही थी। वह पंचभूतों का बना देह सर्व भूतों-सब प्राणियों से बने समाज के लिये भेंट कर दिया गया था। वह विश्व के साथ एकता स्थापित कर चुका था। विश्वामित्र के साथ एकता स्थापित कर चुका था। विश्वामित्र ने वास्तविक रूप में विश्व का मित्र बनकर अपना नाम सार्थक कर दिखाया था।

साधना के पक्ष में आगे बढ़ते-बढ़ते विश्वामित्र अपना व्यक्ति-भाव भूल गये थे। विश्व की समस्त विभूतियाँ उनकी अपनी बन चुकी थीं। वे जो कुछ प्रयत्न कर रहे थे वे अपने लिये नहीं, वरन् अन्य अनेकों के लिये-समाज के लिये कर रहे थे। पहले उनको अपने अन्तःकरण से प्रेरणा मिलती थी। पर अब उनको प्रेरणा मिल रही थी। प्रत्यक्ष सविता नारायण से। इसी के प्रभाव से उस स्वर्णमय प्रभात को उनको एक दिव्य-दर्शन हुआ। उस दर्शन में जो प्रकाश था वह सूर्य और सविता का ही था। पर वह केवल प्रकाश ही न था, उसमें ज्योति थी और चेतना भी थी।

विश्वामित्र के अन्तरतल से एक नाद शब्द प्रकट हो रहा था- ‘भर्ग’। यह ‘भर्ग’-परम तेज, परम प्रकाश सविता नारायण का सर्वोत्तम तत्व था। इसी प्रसंग में विश्वामित्र को अपने गुरुदेव का स्मरण आ गया, उनका भी नाम तो ‘भृगु’ ऋषि था। उन्हीं की परम कृपा से उनको यह परम-प्रेरणा यह समाज-कल्याण की भावना-यह विश्व-हित की चेतना प्राप्त हुई थी। इसलिये अपने गुरुदेव तथा अपने को प्राप्त हुये इस परम तेज का नाम ‘भर्ग’ सब प्रकार से उचित ही था।

मुनिवर विश्वामित्र को जब इस परम तत्व का दर्शन हुआ तो उसी समय उनको एक मंत्र की स्फुरणा हुई। उनके अन्तराल पर एक नाद जागृत हुआ, जिससे उनका हृदय नाच उठा। ऐसा जान पड़ता था कि कोई अन्तर्यामी उनके हृदय में प्रवेश करके उनको दिव्य-मन्त्र का उपदेश दे रहा है। परम तपश्चर्या करके और परम तत्व स्वरूप सवितानारायण का दर्शन करके उनको जो परम चेतना और प्रेरणा मिली थी, उसके प्रभाव से उनका मुख मण्डल प्रकाशित हो रहा था। उनके मुख से सवितानारायण की महिमा गाने वाले तीन मन्त्र निकले जिनमें प्रथम यही था-

तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि, धियो यो नः प्रचोदयात्।

ऋग्वेद के दस मंडल हैं। उनमें से तीसरे मंडल के 617 मन्त्रों के दृष्टा विश्वामित्र ऋषि हैं। उन सब मंत्रों का दर्शन उनकी अन्तः प्रेरणा में से हुआ है और उन सब मन्त्रों में सब से उत्तम यही मन्त्र माना गया है। तीसरे मंडल में 62 सूक्त हैं। उनमें यह मन्त्र अन्तिम सूक्त का दसवाँ है।

विश्वामित्र ऋषि ने इस मन्त्र का दर्शन करके समाज-कल्याण की सर्वोत्तम भावना को प्रकट किया है। तप-शक्ति के प्रभाव से उनकी बुद्धि को वह प्रेरणा मिली, जो समस्त समाज के कल्याण का मुख्य आधार बनी रहती है। गायत्री छन्द में गाये हुये इस मन्त्र में विश्वामित्र ने ‘सविता’ की परम शक्ति ‘सावित्री’ का अनुपम गान गाया है। विश्वामित्र के मुख में से प्रकट होने वाली इस सरस्वती वाणी को, शब्द, अर्थ और व्यंजना की शक्ति ने, मन्त्र का रूप देकर साधना का सर्वश्रेष्ठ मार्ग प्रकट किया है।


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