धर्म बनाम समाजवाद

May 1958

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(श्री. सत्यभक्त)

[धर्म और समाजवाद के पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में लोगों में बड़ी भ्राँति देखने में आती है। अनेक धार्मिक विचारों के सज्जन तो समाजवाद को एक ‘धर्म-विमुख’ सिद्धान्त कहते भी नहीं हिचकते और उसे भारतीय आदर्शों के प्रतिकूल बतलाते हैं। पर बात इसके कुछ विपरीत ही है। प्रस्तुत लेख में बतलाया गया है कि धर्म के मूल तत्व और समाजवाद में पूर्ण ऐक्य है और धर्म का सच्चा पालन करने वाला समाजवाद के आदर्श का कदापि विरोध नहीं कर सकता। विशेषतः गायत्री-मंत्र में निहित सामूहिक कल्याण की भावना से तो इस सिद्धाँत का पूर्ण रूप से समर्थन होता है।]

अधिकाँश लोग समाजवाद अथवा साम्यवाद को आधुनिक समय का आन्दोलन समझते हैं और इसकी उत्पत्ति कल-कारखानों से मानते हैं। यह कथन एक सीमा तक माना जा सकता है, पर वास्तव में साम्यवाद का सिद्धान्त और उसका आन्तरिक भाव नवीन नहीं है। उसका जन्म उसी समय हो गया था जब मनुष्य ने जंगली अवस्था से निकलकर गाँव और कस्बों का निर्माण किया था। तभी से कुछ लोग शक्ति, उद्योग, चालाकी अथवा संयोग के फल से संपत्तिशाली बन गये, और बहुत से निर्बलता, साहसहीनता, भोलेपन अथवा प्राकृतिक कोप से दरिद्र हो गये। अमीरों ने गरीबों को सताना, लूटना और गुलाम बनाकर सेवा कराना आरम्भ किया, जिसके फलस्वरूप गरीबों में असन्तोष के भाव पैदा होने लगा।

इस प्रकार यह अमीरों और गरीबों अथवा अधिकार-सम्पन्न और अधिकार-विहीन लोगों का संघर्ष आर्त प्राचीनकाल से होता आया है। इस कलह में जिन लोगों ने गरीबों का पक्ष समर्थन किया, अथवा जिन्होंने इन लड़ाई-झगड़ों का अंत करके समाज में न्याय और शाँति की स्थापना करने की चेष्टा की, वे वास्तव में अपने समय के साम्यवादी ही थे, चाहे उनकी भाषा आज से सर्वथा भिन्न रही हो और चाहे उनका संगठन आर्थिक आधारों के बजाय धार्मिक या आध्यात्मिक सिद्धाँतों पर हुआ हो। पाठकों को शायद यह बात कुछ असंगत सी प्रतीत हो, पर हमारे ख्याल से महावीर, बुद्ध, ईसा, मुहम्मद आदि जितने महान धर्म-प्रचारक हुए हैं वे सब इसी श्रेणी के व्यक्ति थे और उनके जीवन-कार्य का साराँश यही था। यह बात दूसरी है कि उनके पश्चात स्वार्थी और अवसरवादी लोग उनके संगठन में घुस गये और कुछ ही समय में उन्होंने मूल वस्तु की काया-पलट करके दर्शन, धर्म-शास्त्र, स्मृति, पुराण आदि का तूमार खड़ा कर दिया और एक नये मजहब या सम्प्रदाय को जन्म दे डाला, जो उस महापुरुष के कार्यों और जीवन-उद्देश्य से सर्वथा भिन्न था।

ऐतिहासिक काल के पूर्व की अवस्था का विवेचन तो हम स्थानाभाव के कारण कर नहीं सकते। पर यह सर्वविदित है कि वैदिक-युग का भारतीय समाज, समानता और भ्रातृभाव के सिद्धान्तों पर आधारित था। उस समय मनुष्यों की तो क्या बात यहाँ के ऋषि-मुनियों ने प्राणिमात्र से मैत्री-भाव रखने का उपदेश दिया था और “आत्मवत् सर्वभूतेषु” के सिद्धान्त की संसार भर में घोषणा कर दी थी।

ऐतिहासिक युग के महापुरुषों में सम्भवतः महावीर स्वामी का नाम ही सर्व प्रथम आता है, क्योंकि वे भगवान बुद्ध से भी कुछ पूर्व कार्य-क्षेत्र में अवतीर्ण हो चुके थे। उस समय भारत में कर्मकाँडों के धर्म की अति हो चुकी थी और उसका उद्देश्य भी आध्यात्मिक के बजाय खुलेआम लौकिक और भौतिक हो गया था। इससे समाज में स्वार्थ और अन्याय की भरमार हो गई थी और धर्म के नाम पर उच्च वर्ण नीच वर्णों का शोषण कर रहे थे। महावीर स्वामी ने अहिंसा, अपरिग्रह और संयम के रूप में जिस मार्ग का उपदेश दिया वह लोक में फैली हुई असमानता, उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध ही था। उन्होंने स्पष्ट कहा- “किसी का बिना दिया धन नहीं लेना, क्योंकि धन मनुष्य के बाह्य प्राण के समान है, इसलिए किसी का धन हरण करना उसके वध करने के बराबर है।” इसे आश्चर्य और खेद का विषय ही समझना चाहिए कि जिस धर्म का मूल त्याग और अपरिग्रह था वह आज ‘सेठों’ का धर्म बना हुआ है।

भगवान बुद्ध महावीर स्वामी के समकालीन और एक दृष्टि से सहयोगी ही थे। यह कल्पना सर्वथा असम्भव नहीं कि महावीर स्वामी के उदाहरण और उनके द्वारा उत्पन्न वातावरण ने ही गौतम बुद्ध को गृहत्याग के लिए प्रेरित किया था। जिस कार्य को महावीर स्वामी ने उठाया था उसी अहिंसा और त्याग के प्रचार को बुद्ध ने आगे बढ़ाया और उसमें आश्चर्यजनक सफलता प्राप्त कर दिखाई। उस समय शोषण करने वालों का स्थान ब्राह्मण और क्षत्रियों ने ग्रहण कर रखा था और किसान, बढ़ई, लुहार, सुनार, तेली, चर्मकार आदि उद्योग-धन्धों में लगी जातियाँ शोषित बनी थीं। बुद्ध ने भी यह कहा था कि- “जो अधर्म द्वारा धनवान नहीं होना चाहता, वही धार्मिक है।” इतना ही नहीं उनके संगठन में अधिकाँश वैश्य और शुद्र जातियों के लोग सम्मिलित हुए थे जिन्होंने कुछ समय बाद शोषक वर्ग की सत्ता को सैकड़ों वर्षों के लिए मिटा दिया और शासन की बागडोर शोषितों के हाथ में दे दी। स्वयं सम्राट अशोक भी इन्हीं जातियों में से था।

जब हम विदेशों की तरफ दृष्टि डालते हैं तो दो सबसे बड़े, धर्म-संस्थापकों में से एक महात्मा ईसा को भी इसी पथ का पथिक पाते हैं। उनके समय में पैले-स्टायन में ‘फरीसीज’ नामक पूँजीपतियों का आधिपत्य था, जो साधारण श्रम जीवियों को पददलित रखते थे। ईसा ने गरीबों का पक्ष लिया और कहा कि सुई के नाके में होकर ऊँट भले ही निकल जाय पर किसी धनवान का स्वर्ग के द्वार में प्रवेश कर सकना सम्भव नहीं, साथ ही यह भी कहा- ‘उस सर्वशक्तिमान ने अहंकारियों का दर्प भंग कर दिया। उसने शक्ति सम्पन्नों को अपने आसन से गिरा दिया और दीन-दुखियों को महत्व प्रदान किया।” इस प्रकार की भावनाओं का फैलना शोषक वर्ग को कब पसन्द आ सकता था? अतः वहाँ के शासकों और धर्माधिकारियों ने ईसा पर समाज-द्रोह का आरोप लगाकर सूली पर चढ़ा दिया।

ईसा को प्रचार-कार्य करने का बहुत थोड़ा समय मिला था और जिन लोगों का पक्ष-समर्थन उन्होंने किया था वे बहुत ही शक्तिहीन और पिछड़ हुए थे। इसलिए उनके विचार ज्यादा प्रभाव न दिखा सके, केवल अल्पसंख्यक यहूदी श्रमजीवी छोटी-छोटी स्वतन्त्र समितियाँ बनाकर उनके सिद्धान्तों के अनुसार सामूहिक और समाजवादी जीवन बिताते रहे। वे लोग ‘एबियोनाइट’ कहलाते थे और गरीबी को गौरव का विषय मानते थे। पर शोषकों से यह भी सहन न हुआ और उन्होंने ईसा के नाम पर बहुत-सी चमत्कारपूर्ण कथाएं और बाह्याडम्बर रचकर एक नया मजहब चला दिया। इन धर्माचार्यों में सबसे प्रमुख सेंटपाल था जो स्वयं एक ‘फर्रासीज’ था। सम्भवतः इसी कारण आज ईसाई धर्म पूँजीवाद का सबसे बड़ा आश्रय-स्थल बना हुआ है और उस सच्चे महापुरुष के नाम को बदनाम कर रहा हैं।

दूसरे धर्म इस्लाम के संस्थापक मुहम्मद साहब का उदाहरण भी इससे भिन्न नहीं है। उन्हें भी वहाँ के दुर्दशाग्रस्त जन-समुदाय को उठाने का प्रयत्न किया जिससे कुरैशी लोग (अरब के पूँजीपति) उनको मानने की कोशिश करने लगे, पर वे व्यावहारिक आदमी भी थे और उन्होंने खूँखार कुरैशियों का दमन करके समानता और भ्रातृ-भाव के सिद्धान्तों से युक्त मजहब का प्रचार करने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने घोषणा की कि “सूद लेना बहुत बड़ा पाप है। धन को अन्य लोगों के उपकारार्थ खर्च करना ही धर्म है। जिसकी आमदनी अधिक हो उसे टैक्स (जकात) के रूप में अपनी आय का 40 प्रतिशत गरीबों को दान कर देना चाहिए। फिर भी धन इकट्ठा हो जाये तो हज (मक्का की यात्रा) कर आनी चाहिए।” इस प्रकार मुहम्मद साहब ने अपने समाज-संगठन में ऐसे नियमों का समावेश किया जिससे पूँजीवाद के पनपने को मौका न मिल सके। उनके प्रयत्न से कई सौ वर्ष तक इस्लाम समानता का एक बड़ा प्रचारक बना रहा। पर बाद में उसमें भी बादशाहों, नवाबों और अमीरों ने श्रेणी-भेद उत्पन्न कर दिया और मुहम्मद साहब के मूल उद्देश्य को बहुत कुछ बदल डाला।

इस प्रकार साम्यवाद का समाजवाद की भावना हजारों वर्षों से सामाजिक न्याय की स्थापना की प्रयत्न करती आई है। पर कुछ व्यक्तियों की स्वार्थ और अपहरण की प्रवृत्तियों ने सदैव उसको दबाने और अन्याय तथा शोषण की प्रणाली को जारी रखने का प्रयत्न किया है। होते-होते हम वर्तमान समय में आ पहुँचे हैं जबकि पूँजीवाद अपनी चरमसीमा पर पहुँच गया है। और सत्य भी यह है कि जब तक कोई सामाजिक-प्रणाली अपनी चरमसीमा पर नहीं पहुँच जाती तब तक स्वाभाविक रूप से उसका अन्त भी नहीं हो सकता। यही अवस्था अब पूँजीवादी प्रणाली की हो रही है, पर वह अब भी अपनी स्वाभाविक मृत्यु से मरने को तैयार नहीं, वरन् अपने साथ समस्त संसार विनाश करने की धमकी दे रही है।

पूँजीवादी की एकत्रित शक्ति को देखते हुए यह असम्भव नहीं कि वह अपनी धमकी को कार्य-रूप में परिणित करके संसार में प्रलय काण्ड उपस्थित कर दे। पर साथ ही यह भी अटल सत्य हैं कि पूँजीवाद चाहे कितनी भी बड़ी नाश लीला क्यों न कर दिखाये और संसार की प्रगति को सौ-दो-सौ वर्ष के लिए रुद्ध कर दे, पर अब उसका अन्त अवश्यंभावी है और उसका स्थान समाजवादी प्रणाली ही ग्रहण करेगी, क्योंकि यही प्रकृति और मानव-धर्म का निर्देश है।


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