भक्ति का वास्तविक स्वरूप

May 1958

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(डॉ. सम्पूर्णानन्दजी, मुख्यमन्त्री उ. प्र.)

परमार्थ सम्बन्धी किसी विषय की चर्चा करते समय मैं इस बात को आँखों से ओझल नहीं कर सकता, कि अभ्युदय और निःश्रेयस के सम्बन्ध में हमारे लिये श्रुति एकमात्र स्वतः सिद्ध प्रमाण है। अभ्युदय की बात जाने दीजिए, निःश्रेयस के सम्बन्ध में कोई दूसरा ग्रन्थ, किसी महापुरुष का कथन, श्रुति का समकक्ष नहीं माना जा सकता। यदि ‘भक्ति’ श्रेयस्कर है तो उसका पोषण श्रुति से होना चाहिए। यहाँ ‘पोषण’ शब्द से मेरा तात्पर्य स्पष्ट आदेश से है। यदि भक्ति का विवेचन कहीं असंदिग्ध शब्दों में श्रौत वाङ्मय (श्रुति-साहित्य) में मिल जाय तब तो किसी ऊहापोह के लिये जगह ही नहीं रहती। यदि ऐसा न हो तो फिर तर्क के लिये जगह निकलती है।

मैं यह दावा नहीं कर सकता कि मैंने ‘वेद’ शब्द से उपलक्षित सारे वाङ्मय का अध्ययन किया है। पर यह भी कहना यथार्थ न होगा कि मेरे द्वारा इस अलौकिक साहित्य के पन्नों पर दृष्टिपात नहीं हुआ है। पहले मन्त्र भाग को लीजिये। जहाँ तक मैं देख पाया हूँ किसी भी संहिता की किसी भी प्रसिद्ध शाखा में यह (भक्ति) शब्द नहीं मिलता ओर कहीं आ भी गया होगा तो उसका व्यवहार उसी अर्थ में नहीं होगा, जिस अर्थ में हम आजकल उसका प्रयोग करते हैं। अब ‘ब्राह्मण’ ग्रन्थों को लीजिये। उपनिषद् भाग को छोड़ कर ‘ब्राह्मणों’ का शेष अंश तो कर्मकाण्ड परक है। उसमें भक्ति की बात हो नहीं सकती। अब उपनिषद् भाग बच रहता है। इस नाम से सैकड़ों छोटी-बड़ी पुस्तकें पुकारी जाती हैं। इनमें से कुछ तो निश्चय ही अपने-अपने सम्प्रदाय की समर्थक हैं। गोपालतापनी, नृसिंह तापनी, कालिकोपनिषद वृहज्जावालोपनिषद्- जैसे ग्रन्थ इसी कोटि में आते हैं। मैं इस समय इस विषय में कुछ नहीं कहता कि इस प्रकार की पुस्तकों की प्रामाणिकता वस्तुतः कहाँ तक है, परन्तु इस बात से सभी लोग सहमत होंगे कि जिन दस उपनिषदों पर शंकर तथा अन्य आचार्यों ने भाष्य किये हैं, वे निश्चय ही प्रामाणिक रूप से उपनिषद् नाम वाली कृतियाँ हैं। शंकर ने श्वेताश्वेतर पर भी भाष्य किया है, परन्तु इस पुस्तक की गणना भी ‘ईशावास्य’ आदि दश उपनिषदों के बराबर नहीं होती। अब यदि इन दस ग्रन्थों को देखा जाय तो इनमें भी भक्ति का कहीं पता नहीं चलता।

मोक्ष के उपाय सभी उपनिषदों में बताये गये हैं, परन्तु कहीं भी इस प्रसंग में भक्ति की चर्चा नहीं आती। नचिकेता को यम ने-

विद्यामेताँ योगविधिं च कृत्स्नम्।

उस ब्रह्म विद्या और सम्पूर्ण योगविधि की दीक्षा दी, जिससे नचिकेता को मोक्ष की प्राप्ति हुई। वहीं यह भी लिखा है कि जो कोई दूसरा भी इस मार्ग का अवलम्बन करेगा, वह भी मुक्त हो जायगा। छान्दोग्य में कई विद्याओं का उपदेश है, परन्तु उनमें भक्ति की गणना नहीं है। इसका तात्पर्य क्या है? क्या वैदिक काल में कोई मुक्त नहीं हुआ? क्या जिसको वे लोग मुक्ति मानते थे, वह कोई दूसरी चीज थी? क्या वेद मोक्ष के विषय में प्रमाण नहीं हैं? यदि यह बात हो तो फिर हिन्दुओं के पास कोई भी धार्मिक आधार नहीं रह जायगा, क्योंकि श्रुति को छोड़कर एक भी ऐसा ग्रन्थ नहीं जो सर्वमान्य हो।

बहुधा यह कहा जाता है कि कलियुग में मोक्ष का एकमात्र साधन भक्ति ही है। दूसरे युगों के मनुष्य आज की अपेक्षा अधिक समर्थ होते थे, अतः उनका काम दूसरे साधनों से चल जाता था। मैं ऐसा समझता हूँ कि यह कथन निराधार है। यह मानने का कोई आधार नहीं कि प्राचीन काल के लोग आज की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली होते थे। किसी-किसी पौराणिक ग्रन्थ में लोगों की उम्र भले ही सहस्रों वर्ष की बताई हो, परन्तु सबसे प्राचीन ग्रन्थ ‘वेद’ पुकार-पुकार कर कहता है “शतयुर्वै पुरुषः”- अर्थात् “पुरुष की आयु सौ वर्ष की है।” वेद आज से कितने वर्ष पहले की बात कहता है, यह भले ही विवादास्पद हो, परन्तु बुद्धदेव के समय के, जिसको 2500 वर्ष हो गये, लिखित प्रमाण तो मिलते ही हैं, उस समय भी पूर्णायु लगभग 100 वर्ष की थी। मिश्र से 5000 वर्ष पूर्व के जो लेख उपलब्ध होते हैं, उनसे भी इससे अधिक आयु का पता नहीं चलता। दीर्घायु ही नहीं, पुराने समय में अल्पायु व्यक्ति भी होते थे। भगवान् शंकराचार्य ने 32 वर्ष की आयु में ही अपनी इहलीला समाप्त कर दी। जो प्रमाण मिलते हैं, उनसे यह भी सिद्ध नहीं होता कि पहले के लोग आज की अपेक्षा अधिक डील-डौल वाले होते थे। जिन ग्रन्थों का निर्माण उन लोगों ने किया है, आज का मनुष्य उनको भी पढ़ता है और उनसे कहीं अधिक जटिल अन्य ग्रन्थों को भी पढ़ता है। उसने भले ही अपनी प्रतिभा का कुछ दिशाओं में दुरुपयोग किया हो, परन्तु प्रतिभा के अस्तित्व में सन्देह नहीं किया जा सकता। अतः आज के मनुष्य को किसी भी पहले समय के मनुष्य की अपेक्षा हीन मानना असिद्ध है। इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि जो उपाय प्राचीनकाल के लोगों के लिये सुसाध्य थे, वे आज कल के मनुष्यों के लिये दुःसाध्य हैं फिर इस काल के लिये नये और सरल उपायों की आवश्यकता क्यों पड़ी? क्या सचमुच कोई सरल उपाय निकला है और यदि निकला है तो क्या वह वेदोक्त प्राचीन उपायों से भिन्न है अथवा किसी प्राचीन परिपाटी को ही नया नाम दे दिया गया है शाण्डिल्य सूत्र के अनुसार भक्ति की परिभाषा यह है-

“सा परानुरक्तिरीश्वरे”

यह स्मरण रखना चाहिये कि यजुर्वेद-काल के पहले वेद में ईश्वर शब्द का व्यवहार नहीं किया गया है। शुक्ल यजुर्वेद के अवतरण की कथा स्वयं यह बतलाती हैं कि यह सब के पीछे प्रकट हुआ है। उसमें भी ‘ईश्वर’ शब्द रुद्र के लिये ही आया है। यदि यह माना जाय कि ईश्वर ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तु समर्थ’ है तो बहुत अन्धेर हो जायगा। पुण्य और अपुण्य के लिये कोई आधार नहीं रह जायगा। ऐसी कल्पना का लोगों पर बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ेगा। ऐसा माना जाने लगा है कि मनुष्य चाहे जितने भी दुष्कर्म करे, भगवान् का नाम स्मरण करने से सब पापों से छूट जाता है। कहाँ तो श्रुति की यह शिक्षा थी-

“नाविरतो दुश्चरितात्”

अर्थात्- “दुश्चरित्र से विरत हुये बिना कोई मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता।” और कहाँ यह धारणा कि किसी भी प्रकार की पूजा, अर्चना, मोक्ष का द्वार खोल देती है। इसका प्रत्यक्ष प्रभाव यह पड़ा है कि सच्चरित्रता का मोक्ष की प्राप्ति में कोई स्थान ही नहीं रह गया है। लाखों मनुष्य सत्यनारायण की कथा पढ़वाते हैं, जिसमें कहीं भी सत्यनिष्ठा का उपदेश नहीं हैं। भगवान मानो उत्कोच (रिश्वत) के भूखे हैं! ‘भक्तमाल’ प्रसिद्ध भक्त नाभाजी की कृति है, उसमें बहुत से भक्तों की कथाएं हैं। ऐसे भी भक्तों का उल्लेख है, जो चोरी करके मन्दिर बनवाते हैं और भगवान उनसे प्रसन्न होते हैं। तोते को पढ़ाने वाली गणिका और पुत्र को ‘नारायण’ नाम से पुकारने वाला ‘अजामिल’ दोनों गो-लोकगामी होते हैं। कोई भी सिद्धान्त हो, उसके लिए ‘फलेन परिचीयते’ का तर्क लागू होता हैं। जिस किसी सिद्धान्त की शिक्षा मनुष्य में इस प्रकार की प्रवृत्ति उत्पन्न करती हो, वह निश्चय ही दूषित है। भक्ति का स्वरूप कुछ भी हो, किन्तु बार-बार यह कहना कि वह बड़ा सरल मार्ग है, भ्रामक है। मोक्ष का उपाय कदापि सरल नहीं हो सकता, उसके लिए कठोर व्रत की आवश्यकता होगी और उस मार्ग पर चरित्र हीन व्यक्ति के लिए कदापि स्थान नहीं हो सकता। भगवान के नाम पर दम्भ और दुराचार उसी प्रकार अक्षम्य है, जैसे किसी देवी और देवता का नाम देकर जिह्वा के स्वाद के लिए निरीह पशु की बलि देना। प्राचीन काल में मनुष्यों को कर्म पर भरोसा था और वह आत्म-निर्भर होता था। उसके लिए उपनिषद् का यह उपदेश था-

“नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः”

परन्तु जब से उसको सरल मार्ग का प्रलोभन मिला और ऐसे ईश्वर का परिचय बताया गया, जो कर्म को अपनी इच्छा से काट सकता है, तब से वह पथ-भ्रष्ट हो गया-

“कबहुँक करि करुना नर देही। देत ईस बिन हेतु सनेही।” “होइहि सोई जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावहि साखा।” ऐसे उपदेशों का प्रचार निश्चय ही मनुष्य की आत्मनिर्भरता को कम करता है और वह इस बात को भूल जाता है कि-

क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया, दुर्ग पथस्तत् कबयो वदन्ति।

अर्थात्- “मोक्ष का मार्ग छुरे की तीखी धारा के समान दुर्गम है, उस पर चलना कठिन है।” इसके बजाय मनुष्य सीधे-सादे रास्तों के भ्रम जाल में पड़ जाता है और यह समझने लगता है कि ईश्वर उसको अवश्य ही भव समुद्र के पार कर देगा।

मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि ‘भक्ति’ नाम का मोक्ष के लिए कोई स्वतन्त्र साधन नहीं हैं। वह या तो योग-सूत्र के रचियता पतञ्जलि के बतलाये ‘ईश्वर प्राणिधान’ का नाम है, या योगाभ्यास की क्रिया का। योगाभ्यास की धारणा के लिए अनेक अवलम्ब हो सकते हैं। वीतराग पुरुष के रूप में साधक अपने उपासक या गुरु को धारणा का सहारा बना सकता है। अथवा उन उपायों से काम ले सकता है जिनकी दीक्षा सुरत शब्द-योग के आचार्यों ने दी है। किसी भी अवलम्बन का सहारा लिया जाय परिणाम एक ही होगा, अनुभूति एक ही होगी। यदि ‘भक्ति’ योगाभ्यास का दूसरा नाम नहीं है और योग-दर्शन में बतलाये ‘ईश्वर प्राणिधान’ का भी अपर नाम नहीं है, तो फिर वह मृग-मरीचिका है। प्राचीन बातों को असाध्य बताने से और आजकल के मनुष्यों को दुर्बलता का पाठ पढ़ाने से कुछ सौ वर्षों से इस देश में पर्यावरण छा गया है। दुर्बल को लकड़ी का सहारा चाहिए ही। मार्ग तो वही प्रशस्त योग-मार्ग है, दूसरा कोई मार्ग नहीं हैं। परन्तु जब लोगों को बार-बार दुर्बल कहा जाता है तो उनसे योग के कठिन मार्ग पर चलने को कैसे कहा जाय। इसलिए ‘भक्ति’ नाम प्रचलित हुआ। इससे जो सच्चे साधक थे उनकी तो कोई क्षति नहीं हुई। नाम भले ही नया हो, किन्तु वस्तु वही पुरानी थी, वही चिर अभ्यस्त सनातन काल से परीक्षित ‘रामबाणवत्’ मूल औषधि थी। उन्होंने उसी को ग्रहण किया और निःश्रेयस पद को प्राप्त किया। परन्तु साधारण साधक धोखे में पड़ा रह गया। उसका अकल्याण हुआ। दुर्बल बताकर सन्मार्ग से तो वह हटा दिया गया और दूसरा और कोई मार्ग नहीं हैं, इसलिए वह भटकता रह गया। योग-मार्ग कुछ हद तक कण्टकाकीर्ण होते हुए भी शक्ति का उद्बोधन करने वाला है और इसलिए उसी का अवलम्बन करना सर्वथा कल्याणकारी है।


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