भारतीय संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए गायत्री ज्ञान मन्दिरों की स्थापना आवश्यक है।

May 1958

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(श्रीराम शर्मा आचार्य)

गत अंक में गायत्री ज्ञान मन्दिरों की स्थापना के सम्बन्ध में कुछ चर्चा की गई थी। इस सम्बन्ध में जितना अधिक कहा जाय उतना ही कम है। नींव जमाकर उसके ऊपर महल खड़े किए जाते हैं। भारतीय संस्कृति की नींव इन देव-मन्दिरों से प्रारम्भ होती है। किसी तन्त्र के संचालन के लिए उसका कोई केन्द्र बिन्दु स्थापित करना जरूरी है। किसी संस्था, व्यापार, उद्योग या प्रवृत्ति को आरम्भ करने से पूर्व उसके लिए कोई स्थान नियुक्त करना पड़ता है। भारतीय संस्कृति के वे प्रकाश दीप जो दूर-दूर तक धर्मप्रेरणा की शुभ्र किरणें फैलाते रहे ये देव मन्दिर ही हो सकते हैं। भगवान को साक्षी रखकर दुष्प्रवृत्तियों से बचाने और सन्मार्ग को अपनाने की प्रेरणा, धर्म-सेवी पुरोहितों के लिए ही नहीं उन धर्म-संस्थानों से सम्बन्ध रखने वाली सामान्य जन समाज के लिए भी पथ-प्रदर्शक होती हैं।

स्वर्ग के नन्दन वन जैसी सुरभित इस भारत भूमि को बनाने के लिए जिन कल्पवृक्षों को उगाने और बढ़ाने की जरूरत है वे इस प्रकार के देव-मंदिर ही हैं। यदि यह व्यवस्था ठीक प्रकार चलने लगे, मन्दिरों में पूजा करने वाले अपने नित्य-नियमित साधना क्रम से अतिरिक्त अपना धर्म प्रचार करने एवं धर्मप्रवृत्तियों के सञ्चालन की जिम्मेदारी का अनुभव करें और उसकी पूर्ति के लिए प्राण पण से जुटे रहें तो हमें उस संख्या से भी तिगुनी संख्या में धर्म सेवक मिल सकते हैं, जितने के बल पर ईसाइयों ने गत डेढ़ सौ वर्षों से समस्त संसार की लगभग आधी जनसंख्या को ईसाई बना लिया। मंदिरों की प्रथा का प्रारम्भ करने वालों के मस्तिष्क में जहाँ आस्तिकता, ईश्वर विश्वास, भगवद्भक्ति, आत्म-कल्याण की साधना, पूजा उपासना के उद्देश्य थे वहाँ यह बात भी पूरी गहराई तक जमी हुई थी कि सारे राष्ट्र को, सारे समाज को धर्म प्रेरणा देते रहने के लिए कुछ ऐसे धर्म-सेवियों की आवश्यकता है जो अपनी आजीविका की ओर से निश्चित रहकर सारा मस्तिष्क और सारा समय निर्धारित लक्ष के लिए ही लगाते रह सकें। भगवान को उत्तम पौष्टिक भोजन का नित्य भोग लगने के पीछे यही प्रवृत्ति काम करती है, ताकि पूजा करने वाले धर्म-सेवी लोग अपनी सहज त्याग बुद्धि के कारण रूखा-सूखा खाकर अपने कीमती शरीर को ही क्षीण न करने लगें। यों भगवान तो विदुर के साग, शबरी के बेर, सुदामा के तंदुल एवं तुलसी-पत्र का भोग लगने से भी पूर्ण तृप्त हो सकते हैं, पर भगवान के बहाने इन धर्म-सेवियों के आहार का समुचित ध्यान रखना था। इसलिए दूध, घी, शक्कर, उत्तम अन्न, शाक आदि की व्यवस्था भोग में रखनी आवश्यक समझी गई। भगवान की प्रतिमा स्थापित करने के लिए हर मन्दिर में एक छोटी कोठरी ही रखी जाती है। शेष इनकी विशाल इमारत इसी लिए बनाई जाती हैं कि उसमें अनेकों धर्म प्रवृत्तियाँ चलती रहें। वाचनालय, पुस्तकालय, चिकित्सालय, व्यायामशाला, पाठशाला, उपासनाक्रम, कथावार्ता, सामूहिक संगीत, भजन कीर्तन, शंका समाधान, पञ्चायत, न्याय-व्यवस्था, प्रायश्चित्य, उपनयन आदि संस्कारों एवं पर्व, उत्सवों के सामूहिक आयोजन, धर्म प्रचारक अतिथियों के स्वागत, विश्राम आदि की अगणित धर्म प्रवृत्तियाँ इन मन्दिरों के द्वारा चलती थीं। नियत समय की पूजा के अतिरिक्त सुयोग्य पूजा अधिकारी अपना सारा समय इन प्रवृत्तियों में लगाकर उस मन्दिर को एक प्रकार का प्रकाश स्तम्भ बनाये रहते थे जहाँ से दूर-दूर तक धर्म-भावनाओं की दिव्य लहरें प्रसारित होती रहें।

आज हमारे सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में सर्वत्र दुर्व्यवस्था व्यापक रूप में फैल गई है। उसका प्रभाव देव मन्दिरों पर भी हुआ है। आज पुजारी लोग केवल यह कोशिश करते हैं कि उन्हें जनता से अधिक से अधिक पैसे प्राप्त होते रहें। इसके लिये वे अन्य मन्दिरों की प्रतिमाओं की अपेक्षा अपने मन्दिर की मूर्ति को अधिक चमत्कारी बताते रहते हैं। जो भक्त इस मूर्ति को जितना अधिक भोग प्रसाद, वस्त्र आभूषण चढ़ायेगा उसे उतनी ही दैवी कृपा प्राप्त होगी, इसी बात पर पूरा जोर दिया जाता है, ताकि पूजा करने वालों के आर्थिक स्वार्थों की पुष्टि होती रहे। वे लोग धर्म सेवा के अपने मूलभूत कर्तव्य को एक प्रकार से त्याग बैठे हैं। और उसके लिये जोर देने वालों को अपना अपमान करने वाला बताते हैं। नौकरी पूरी मिले और ड्यूटी जरा भी न करनी पड़े तो कर्मचारी में अनेक खुराफातें और अनैतिकतायें पैदा होनी स्वाभाविक है। मन्दिरों में आये दिन जिन भ्रष्टाचारों की खबरें आती रहती हैं उनसे जनता में अश्रद्धा भी बढ़ती है। वहाँ कोई धर्म प्रवृत्ति जीवित न रहने से, केवल प्रतिमा को स्नान भोजन करा देने मात्र सीमित कार्यक्रम रहने के कारण अरुचि एवं उपेक्षा तो पहले से लोगों को होने लगी थी।

मन्दिरों के संचालक इस दिशा में कोई उत्साह नहीं दिखाना चाहते। वे कुछ भी हेर-फेर करने से देवता या पुजारी के नाराज होने से कोई अनिष्ट हो जाने की बात सोच कर डरते हैं। दूसरे पिछले दिनों धर्म और अध्यात्म का रूप भी ऐसा विकृत रहा है कि उसकी प्रेरणा मनुष्य को एकाकी, असामाजिक, व्यक्तिवादी, स्वार्थरत एवं झंझटों से दूर रहने वाली ही बनाती है। ‘शान्ति’ चाहने की खोज में अनेकों महत्वपूर्ण व्यक्ति एकाकी और असामाजिक जीवन व्यतीत करने लगे। धर्म सेवा, समाज सेवा, जन सेवा भी उन्हें व्यर्थ लगने लगीं। अपना स्वर्ग, अपनी मुक्ति, अपनी शान्ति के लिये वे एकान्त आवश्यक समझते हैं। जबकि सही बात यह है कि प्राणि-मात्र की सेवा एवं जनहित में अपने को उत्सर्ग करने से ही कोई व्यक्ति स्वर्ग मुक्ति एवं शान्ति का अधिकारी बन सकता है।

जहाँ हमने अनेक बुराइयां अपनाई हैं वहाँ हमारे धार्मिक एवं आध्यात्मिक सिद्धान्त भी उलटे हो गये हैं। मन्दिरों के संचालक सेठ साहूकार उन्हीं औंधे विचारों से अनुप्राणित हैं। उन्हें रोज का धर्मोपदेश देने वाले सन्त महन्त भी ऐसी ही शिक्षा देते हैं, जिससे उनकी दक्षिणा, सुविधा, आर्थिक उन्नति सुरक्षित रहे एवं लोक सेवा जैसे किसी झंझट में न पड़ना पड़े। दोनों की जोड़ी एक अन्धा एक कोढ़ी की उक्ति चरितार्थ कर देती है। एक खाँचा इतना फिट बैठ जाता है कि वर्तमान मन्दिरों में से कुछ विचारशील पुजारियों एवं विवेकवान मन्दिर संचालकों के अतिरिक्त इस दिशा में कोई बड़ा परिवर्तन करने की आशा नहीं की जा सकती।

जहाँ सम्भव हो वहाँ वर्तमान पुजारियों को धर्म प्रवृत्तियों में लगाने की, अथवा उनके स्थान पर धर्म सेवकों को नियुक्त करने का प्रयत्न करना चाहिये। मंदिर संचालकों एवं कमेटियों को भी इसका सुझाव देना चाहिये। प्रयत्न करते रहने में उनमें सुधार होना सम्भव है। यह प्रश्न असाधारण महत्व का है। भारतवर्ष की जनता देव मन्दिरों के लिये अगाध श्रद्धा रखती है, उनके लिये उसने भारी त्याग किया है और अब भी कर रही है।

प्रायः 14500 करोड़ रुपये की इमारतें मन्दिरों की बनी हुई हैं। यह रकम भारतवर्ष में फैली हुई रेलवे की सारी सम्पत्ति से भी अधिक है।

मन्दिरों के जेवर, आभूषण, रत्न, नकदी, जमीन, जायदाद, व्यवसाय आदि के रूप में स्थायी सम्पत्ति का मूल्य भी लगभग 3000 करोड़ रुपया कूता जाता है।

प्रायः 1300 करोड़ रुपया हर साल मन्दिरों पर खर्च होता हैं। यह रकम उससे अधिक है जितना धन सारे देश में शिक्षा पर व्यय होता है।

पूजा पाठ से सम्बन्धित 56 लाख मनुष्यों का जनता निर्वाह भार वहन करती है, यह जन-संख्या भारत की सारी फौज एवं पुलिस को मिला देने पर भी उससे अधिक बैठती है।

स्थायी सम्पत्ति, इमारतें, चालू खर्च, इन कार्यों में लगी हुई जनसंख्या एवं जनता के प्रमुख भावना केन्द्र होने की दृष्टि से मन्दिरों का एक बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। जनता सरकार को बड़ी कठिनाई और आनाकानी के साथ जितना टैक्स अदा करती है उससे कुछ कम टैक्स वह बड़ी प्रसन्नता पूर्वक धर्म कार्यों के लिये खर्च करती है। राष्ट्र की गतिविधियों को अमुक दिशा में मोड़ने के लिये आज राजनीति को-राजनैतिक संस्थाओं को प्रमुख माध्यम माना जाता है। पर भारतवर्ष देहातों में फैला होने, शिक्षा की दृष्टि में पिछड़ा होने और राजनीति के तत्वज्ञान से अपरिचित होने के कारण वह राजनीति को न तो समझ पा रहा है और न उसका उपयोग करे अपने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन को ऊँचा उठा पा रहा है। भारतीय जनता की मानसिक पृष्ठ भूमि एवं परम्परा धार्मिक है। वह इस आधार को काफी हद तक समझती है। यदि सुव्यवस्थित रूप से इस आधार को लेकर चला जाय तो निश्चय ही आज की स्थिति में जनकल्याण का कार्य बहुत हद तक बढ़ाया जा सकता है।

यह ठीक है कि धर्म के नाम पर आज जो धोखा-धड़ी चारों ओर फैली हुई है उससे जनता के विश्वास की नींव हिलने लगी है और इस ओर उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाना आरम्भ हो गया है। पर अभी वह बुराई इस हद तक नहीं बढ़ी है कि धर्म को अनावश्यक एवं घृणा की दृष्टि में देखा जाय। वैसी स्थिति उत्पन्न होने से पूर्व ही यदि संभल जाया जाय तो धर्म ने जो स्थान भारतवर्ष में बना रखा है। भावना की दृष्टि में तथा धन बल और जनबल की दृष्टि से-एक चलती हुई परम्परा एवं व्यवस्था के सदुपयोग की दृष्टि से इस धर्म भावना का सदुपयोग आवश्यक है। यदि इस ओर विचारवान लोगों का ध्यान न गया और आज जो दुर्व्यवस्था चल रही है। वही चलती रही तो न केवल राष्ट्र की एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति का दुर्व्यय ही होगा वरन् उस बुराई की प्रतिक्रिया के फलस्वरूप लोग पथभ्रष्ट होंगे, साथ ही धर्म की उपयोगिता तक संदेहास्पद बन जायगी। इस दिशा में सुधार न करने की हमारी उपेक्षा नास्तिकवाद को तीव्र गति में फैलने का खुला आमन्त्रण देगी।

भारतवर्ष के धर्म तन्त्र का प्रमुख आधार यह देव मन्दिर हैं। इनके द्वारा जनता की वही सेवा होनी चाहिये जो इनकी स्थापना का मूल उद्देश्य है। यदि वह उद्देश्य पूरा न होगा वरन् उसके विपरीत कार्य होंगे तो अति उत्साही सुधारवादी उन्हें निरुपयोगी ही नहीं धर्म विरुद्ध भी बताने की अपनी योजना में सफल हो जाएंगे। आगे चलकर तो नास्तिकवाद का उत्साह साकार पंथी और निराकार पंथी दोनों ही देव-स्थानों का सफाया कर देगा। इसलिये भी हमें समय रहते चेतना होगा और मन्दिरों में लगी हुई राष्ट्र की एक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण शक्ति को उपयोगिता की कसौटी पर खरी सिद्ध करना होगा। यह कार्य उपेक्षा बुद्धि से नहीं वरन् इस ओर पूरी सावधानी तथा गंभीरता से ध्यान देने पर ही सम्भव हो सकेगा।

गत अंक में हमने दो सुझाव इस दिशा में रखे थे। (1) वर्तमान मन्दिरों के पुजारी एवं संचालकों को इसके लिये तैयार किया जाय कि वहाँ की प्रक्रिया केवल देव-पूजा तक ही समिति न रहे। धर्म प्रसार एवं धर्म संगठन के ऐसे कार्य वहाँ से संचालित हों जिनके फलस्वरूप हमारी नैतिक सामाजिक एवं बौद्धिक प्रगति होती चले।

इस सुधार का प्रधानतया उन लोगों द्वारा घोर विरोध होगा जिनके आर्थिक स्वार्थ टकराते हैं और जो सार्वजनिक सेवा की भागदौड़ को बेकार का झंझट मानते हैं। इस विरोध पर विजय प्राप्त करने के लिये लोकमत जागृत करना होगा। जनता को वास्तविकता समझानी पड़ेगी ओर उससे इस प्रकार के परिवर्तनों के लिये प्रेरणा देनी होगी।

यह कार्य धीरे-धीरे होगा क्योंकि संचालकगण, पुजारी महोदय तथा कानूनी दाव-पेंच, तीनों ही इस प्रकार के सुधारों में भारी अड़चन पैदा करते हैं। अनुकूल परिस्थितियां उत्पन्न करने के लिए हमें काफी परिश्रम करना पड़ेगा और देर तक ठहरना पड़ेगा। इस आन्तरिक कार्य के लिए दूसरा सुझाव यह है कि (2) कुछ आदर्श देव मन्दिरों की स्थापना की जाय, जिन्हें देखकर लोग यह जान सकें कि मंदिरों का उपयोग धर्म सेवा के लिए किस प्रकार हो सकता है। दो वस्तुएं सामने होने से लोग उनकी तुलना कर सकते हैं और यदि एक में कोई अच्छाई होती है जनता उसे पसन्द करती है तो दूसरे को भी उसका अनुकरण करने को विवश होना पड़ता हैं। इसलिए नमूने के मन्दिर बनाकर जहाँ-तहाँ खड़े किये जायं।

गायत्री तपोभूमि का निर्माण इसी आधार पर हुआ है। यहाँ देव पूजा भी अन्य मन्दिरों की भाँति होती है पर केवल उतना ही करके अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं मान ली जाती। जो भी व्यक्ति यहाँ निवास करते हैं, वे निरन्तर धर्म सेवा में लगे रहते हैं। तपोभूमि की इमारत अनेकों धर्मप्रवृत्तियों का केन्द्र बिन्दु बनी रहती है। इस आदर्शवाद के कारण ही गायत्री तपोभूमि के छोटे से संस्थान ने अपने इस छोटे से जीवन में कितने बड़े काम कर लिये और आगे क्या-क्या करने की तैयारी है, उसे देखकर लोग आश्चर्य करते हैं। पर वस्तुतः आश्चर्य की इसमें कोई भी बात नहीं हैं। अधिकाँश देव-मन्दिरों को तपोभूमि की अपेक्षा अधिक साधन उपलब्ध हैं, वे चाहे तो ऐसी ही, वरन् इससे भी अनेक गुनी धर्म सेवा कर सकते हैं यदि ये प्रवृत्तियां सभी देव मन्दिरों में चल पड़ें तो भारतवर्ष के साढ़े 8 लाख देख मन्दिर प्राचीन काल जैसा स्वर्ण युग सहज ही उत्पन्न कर सकते हैं। यदि इनमें थोड़ा उत्साह एवं जीवन आ जाय तो भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान कुछ भी कठिन न रहे। इस तथ्य को प्रत्यक्ष हृदयंगम कराने के लिये ही गायत्री तपोभूमि का निर्माण किया गया था। अब ऐसे ही कुछ और आदर्श देवालय जहाँ-तहाँ और भी बनने की आवश्यकता है, जिनकी उपयोगिता देखकर वर्तमान मन्दिरों को भी उनका अनुकरण करने के लिए विवश होना पड़े।

देव मन्दिरों की स्थापना हिन्दू धर्म में एक बहुत बड़ा पुण्य माना गया है। उपयोगिता एवं धर्म सेवा की दृष्टि से सचमुच ही वे ऐसे ही केन्द्र बिन्दु थे जिनकी स्थापना करने वाला भारी जनहित के सत्परिणामों के कारण सचमुच ही स्वर्ग जाता होगा। हर प्रक्रिया का पुण्य पाप उसकी उपयोगिता अनुपयोगिता के आधार पर होता है। आज जिस प्रकार की गतिविधि आमतौर से मन्दिरों में चल रही है इससे उसके निर्माता उस पुण्य की आशा नहीं कर सकते जो शास्त्रों में लिखा है। वह पुण्य तो उन्हें ही मिलेगा जो मन्दिर की इमारत बनाने एवं उसका चालू खर्चा जुटाने में ही नहीं, वहाँ से धर्म प्रवृत्तियों का संचालन होते रहने के प्रधान कार्य की व्यवस्था बनाने में भी सफल हो सकेंगे। लोग मन्दिरों की कीमती-बड़ी इमारतें बनाने में गर्व अनुभव करते हैं, पर अच्छा यह होता कि मन्दिर चाहे फूँस के झोंपड़े में ही रहते पर वहाँ से वह प्रकाश उत्पन्न होता रहता जिससे अनेक तमसाच्छन्न आत्माएँ प्रकाशमान होकर जगमगातीं। ऐसे ही मन्दिरों की स्थापना पर गत अंकों में जोर दिया गया है।

केवल ‘देवों की पूजा’ तक ही बात समाप्त न हो जानी चाहिये। गायत्री सद्बुद्धि की देवी है। गायत्री मन्दिरों से सद्ज्ञान का प्रसार होते रहना आवश्यक है। इस प्रमुख उद्देश्य को भुला न दिया जाय इसलिए इनका नाम केवल गायत्री मन्दिर न रखकर ‘गायत्री ज्ञान मन्दिर’ रखा जाय। नाम का भी बड़ा महत्व है। तब गायत्री मन्दिर ही कहते थे और यही नाम रहने देने पर जोर देते थे। पर चूँकि नाम के साथ भावना जुड़ी रहती है, इस लिए ‘गायत्री तपोभूमि’ रखा गया जिससे यहाँ निवास करने वाले अपने आप को तपस्वी, तप के उद्देश्य से आया हुआ समझें और तप करें। सचमुच ही इस नाम ने लोगों को बहुत बल दिया है, जो तप करने नहीं आते उन्हें भी तपस्वी बनना पड़ता है, पीछे वह बात उनकी आदत में शामिल हो जाती है। गायत्री ज्ञान मन्दिर नाम रहने के पीछे भी यही लक्ष छिपा है कि वहाँ से सद्ज्ञान का प्रकाश अवश्य उत्पन्न होता रहे। इस ज्ञान का प्रतीक वहाँ अखण्ड घृत दीप न सही तो अखण्ड अग्नि को जलती रखा जा सकता है। इसमें थोड़ी देखभाल तो है पर खर्च बहुत कम है। घी का अखण्ड दीप जैसाकि अखण्ड-ज्योति कार्यालय में जलता है 24 घंटे में प्रायः एक पाव घी खर्च करा देता है। इसमें तीस चालीस रुपया मासिक खर्च पड़ता है। पर अखण्ड अग्नि यज्ञ कुण्ड में जलती रखने में गाय के गोबर के 2-3 मन उपले एक महीने के लिये पर्याप्त होते हैं। इनका मूल्य देहातों में कुछ नहीं और शहरों में दो-तीन रुपया महीना पड़ता है। कम से कम 24 आहुतियों का दैनिक हवन वहाँ होता रहे। साप्ताहिक बड़े हवन हों। जहाँ मूर्ति की नियमित पूजा व्यवस्था में कठिनाई हो, कोई स्थायी कार्यकर्ता नियुक्त न किया जा सके वहाँ गायत्री माता का बड़ा सा चित्र स्थापित करना सुविधाजनक होगा। सारे भारत के तीर्थों का जल रज तपोभूमि से इन ज्ञान मन्दिरों के लिये मंगाया जा सकता है। जहाँ संभव हो अखण्ड अग्नि भी मथुरा से ले जाकर स्थापित की जा सकती है। मन्त्र लेखन उस क्षेत्र के वहीं स्थापित किये जा सकते हैं। सुन्दर चित्रों, आदर्श वाक्य, सुन्दर पर्दे, तथा कपड़े लगाकर उसे सुन्दर बनाने एवं सुसज्जित करने की ओर पूरा-पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। यह मन्दिर कला एवं सजावट की दृष्टि से इतने आकर्षक बनें कि हर किसी का उसे देखने के लिये जी ललचे।

यों धर्म के नाम पर धन को जल प्रवाह की तरह इस देश में बहाया जाता रहता है, उसमें कोई परम्परा एवं रूढ़ि तो रहती है, पर गुण-अवगुण, भला-बुरा परिणाम, पात्र-कुपात्र आदि के भेद करने के लिये विवेक एवं विचार शक्ति का उपयोग नहीं किया जाता। यह अन्ध परम्परा सर्वत्र देखी जा सकती है। फिर भी अभी ऐसे विचारवान एवं विवेकशील धर्म प्रेमियों का सर्वथा अभाव नहीं है जो परम्परा के साथ-साथ जहाँ उपयोगिता का समावेश देखें वहाँ अपनी उदारता प्रकट करने का आदर्श उपस्थित करें। प्रत्येक क्षेत्र में एक-एक गायत्री ज्ञान मन्दिर होने की आज भारी आवश्यकता है। उदार एवं विवेकशील साधन सम्पन्न सज्जन अपनी धर्म कमाई में से यदि 4-6 हजार रुपया भी खर्च कर दें तो बड़ा उपयोगी कार्य करने का पुण्य फल प्राप्त कर सकते हैं। जनता भी थोड़ा-थोड़ा करके इतने पैसे इकट्ठे कर सकती है और क्षेत्रीय मन्दिर बन सकते हैं। इन मन्दिरों में सेवाभावी धर्म प्रचारक एवं सार्वजनिक सेवा संगठनों में पूरा उत्साह रखने वाले पुजारी ही नियुक्त किये जाने चाहिए।

ऐसे गायत्री मन्दिर जगह-जगह स्थापित हों, इसके लिए जहाँ तक हो प्रयत्न आरम्भ किये जाने चाहिये। पर अभी ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की पूर्णाहुति तक गायत्री परिवार के सदस्यों का उस कर्म में लगना कठिन है। क्योंकि यह कार्य भी पहाड़ की तरह भारी है। इसकी ओर से ध्यान हटा लिया जाय और अन्यत्र दिशा में सोच विचार प्रारम्भ कर दिया जाय तो शक्ति बंट जायेगी और यह कार्य अधूरा रहेगा। इसलिये जहाँ कोई धनी व्यक्ति अपने खर्च से मन्दिर बना सकें वहाँ को छोड़कर जहाँ सार्वजनिक धन संग्रह एवं व्यवस्था की जरूरत है वहाँ अभी अस्थायी मन्दिर बना लिये जाये। किसी का माँगा हुआ कमरा न मिले तो किराये पर ले लेना चाहिए। पर यह स्थान ऐसी जगह पर ही होना चाहिए जहाँ अधिकाधिक लोग आ सकें। जिन स्थानों पर जन साधारण को पहुँचने में असुविधा हो ऐसे एकान्त, गाँव से दूर जंगल बगीचों में गायत्री मन्दिर कदापि न बनाने चाहिए। इसमें जनसाधारण की पहुँच न होने से लगाया हुआ पैसा व्यर्थ चला जाता है। गायत्री मन्दिर नगर के मध्य भाग में जहाँ बैठने के स्थान हों, सड़क के किनारे हों, ऐसे ही स्थान पर होने चाहिये। गायत्री परिवारों की शाखायें अपने केन्द्रीय कार्यालय के रूप में ऐसे गायत्री ज्ञान मन्दिर बनाने का प्रयत्न करें’। पीला रंगा हुआ तिकोना ॐ चिन्हाँकित झण्डा उस पर लहरा दें।

ऐसे ज्ञान मन्दिर पूर्णाहुति तक प्रत्येक गायत्री परिवार की प्रत्येक शाखा को बना लेने का प्रयत्न करना चाहिये। संस्था की प्रवृत्तियों का, गोष्ठियों का, सामूहिक आयोजनों का केन्द्र यही स्थान रहे। यों साप्ताहिक सत्संग एवं हवन परिवार के सदस्यों के घरों पर भी बदल-बदल कर होते रहें।

उपरोक्त सामूहिक सार्वजनिक गायत्री ज्ञान मन्दिरों के अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य के घर-घर पर एक पारिवारिक गायत्री ज्ञान मन्दिर भी होना चाहिये। शास्त्रों में लिखा है कि ‘जिस घर में देव मन्दिर न हो वह श्मशान तुल्य है।’ घर में देव-स्थान रहने से निश्चय ही घर के लोगों में आस्तिकता एवं धर्म बुद्धि स्थिर रहती है। घर में उपासना का वातावरण बना रहने से सतोगुण बढ़ता है और अनेकों बुराइयों से बचे रहने का अवसर रहता है। जिस घर में माता की सच्ची मन से उपासना हो, उनकी स्थापना हो, वहाँ सुख शान्ति की, समृद्धि की, सफलता सम्पन्नता की कमी नहीं रहती।

पारिवारिक गायत्री ज्ञान मन्दिरों की स्थापना अति सरल है। नीचे बड़ी चौकी, ऊपर छोटी चौकी, रखकर उन्हें पीले वस्त्रों से ढक देना चाहिये। ऊपर गायत्री माता का तथा यज्ञ पिता का चित्र शीशे में मढ़ा हुआ सुसज्जित रहे। नीचे आरती, पंचपात्र, धूपदानी, घंटा, शंख, गंगाजल, माला आदि पूजा उपकरण सुसज्जित रहें। नीचे कुश के आसन बिछे हों जिन पर बैठकर घर के लोग उपासना करें। मन्त्र-लेखन की कापियाँ भी यहाँ रखी रहें। चारों और आदर्श वाक्य एवं महापुरुषों के चित्र टंगे हों। यदि यह कोठरी अलग से स्वतंत्र हो तो अधिक उत्तम है, अन्यथा ऐसे कमरे में यह पूजा स्थान बनाना चाहिये जहाँ कम से कम खटपट या आवागमन रहता हो। इस पूजा गृह को जहाँ तक हो सके अधिक सुन्दर सुसज्जित एवं आकर्षक बनाने में उदार एवं कलात्मक दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। फूहड़पन, गन्दगी, मलीनता, कंजूसी को इस पूजा गृह में अधिक स्थान न मिलने पावे इसका ध्यान रखें।

जिस प्रकार सामूहिक देवालयों से पूजा उपासना के अतिरिक्त सद्ज्ञान का प्रसार एवं धर्म सेवा कार्यों का चलते रहना नितान्त आवश्यक है। इसी प्रकार इन छोटे पारिवारिक गायत्री ज्ञान मन्दिरों में भी वे दोनों प्रवृत्तियां चलती रहनी चाहियें। परिवार के लोगों की विवेक बुद्धि सुविकसित होती रहे इसके लिये पूजा की तरह स्वाध्याय को भी घर के हर सदस्य के लिये एक आवश्यक धर्म कार्य बना दिया जाय। स्वाध्याय की आवश्यकता अमुक देवता, अमुक अवतार के चरित्र या अमुक प्राचीन ग्रन्थ को रोज-रोज दुहराते रहने से ही काम नहीं चल सकता। मनुष्य के व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन में आती रहने वाली अनेक समस्याओं तथा गुत्थियों को तर्क, विवेक एवं कारण, प्रमाण के आधार पर सुलझाने वाला साहित्य ही स्वाध्याय के लिये लाभदायक एवं उपयोगी सिद्ध हो सकता है। इसलिये गायत्री ज्ञान मन्दिर में इस प्रकार के साहित्य के लिये एक कक्ष अवश्य ही निर्धारित रहना चाहिये इसके बिना ज्ञान मन्दिर का ज्ञान शब्द सार्थक न हो सकेगा। बुद्धि की देवी गायत्री के प्रत्येक उपासक के लिये स्वाध्याय भी उतना ही आवश्यक धर्मकृत्य है जितना जप ध्यान-पाठ स्नान। बिना स्वाध्याय के-बिना ज्ञान की उपासना के बुद्धि पवित्र नहीं हो सकती, मानसिक मलीनता दूर नहीं हो सकती और इस सफाई के बिना माता का सच्चा प्रकाश कोई उपासक अपने अन्तःकरण से अनुभव नहीं कर सकता। जिसे स्वाध्याय से प्रेम नहीं, उसे गायत्री उपासना से प्रेम है यह नहीं माना जा सकता। बुद्धि की देवी गायत्री का सच्चा भोजन स्वाध्याय ही है। ज्ञान के बिना मुक्ति संभव नहीं। इसलिये गायत्री उपासना के साथ ज्ञान की उपासना भी अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई है।

देव पूजा और ज्ञान उपासना के उपरोक्त दो कार्यों के अतिरिक्त प्रत्येक ज्ञान मन्दिर को एक तीसरा कार्य भी करना है वह है-धर्म सेवा, लोक सेवा, जन कल्याण। इसके लिये गायत्री परिवार के सदस्यों को अपने समय में से कुछ समय नित्य नियमित रूप से निकालना चाहिये। ज्ञान प्रसार के लिये ‘धर्मफेरी’ का कार्यक्रम इसके लिये सर्वोत्तम है। लोगों को अन्य कोई भी कीमती चीज देकर भी हम उनकी उतनी सेवा नहीं कर सकते जितनी ज्ञान देकर कर सकते हैं। ज्ञान ही वह पारस है जिसे छूकर लोहे जैसे कलुषित मन स्वर्ग जैसे सुहावने बन सकते हैं। आगे चलकर इस श्रमदान, समय-दान के और भी अनेकों उपयोग होंगे पर अभी तात्कालिक कार्यक्रम यही है कि अपने समीपवर्ती क्षेत्र के कुछ ऐसे लोगों के नाम नोट कर लिये जाएं जिनमें विचारशीलता, सज्जनता एवं धार्मिकता के कुछ बीजाँकुर दिखाई पड़ते हों। इन नोट किये हुये नामों में से प्रतिदिन एक-एक दो-दो व्यक्तियों के यहाँ अकेले ही, या एक दो साथियों को और लेकर धर्मफेरी के लिये जाया जाय। उन्हें अपने गायत्री ज्ञान मन्दिर की पुस्तकें पढ़ने का आग्रह किया जाय, तैयार होने पर उन्हें अपनी पुस्तकें पढ़ने देने के लिये तथा लेने के लिये जाते रहना चाहिये। इस प्रकार पुस्तकों द्वारा ही नहीं, स्वयं बार-बार उनके घर आने-जाने, संपर्क बढ़ाने और अच्छी सलाह शिक्षा द्वारा आदर्श की ओर प्रेरणा देने का द्वार खुलेगा।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के होता यजमानों के लिये यह तीन सूत्री कार्यक्रम एक महत्वपूर्ण शर्त के रूप में रखा जा चुका है। (1) सवालक्ष जप, मंत्र-लेखन, पाठ आदि के द्वारा स्वयं उपासना करना, (2) ज्ञान मन्दिर साहित्य खरीद कर अपने घर में ज्ञान-मन्दिर स्थापित करना (3) लोगों के घरों पर जाकर धर्मफेरी द्वारा गायत्री का संदेश पहुँचाना। यह त्रिसूत्री कार्यक्रम एक प्रकार से घर-घर में देव मन्दिर स्थापित करने और उनके साथ संलग्न स्वाध्याय (ज्ञान उपासना) एवं लोक सेवा के महान कार्य को आगे बढ़ाता है। यह तीन कार्य बड़े विशाल सामूहिक सार्वजनिक देव मन्दिरों के हैं। इन्हें ही बड़े पैमाने पर अधिक विस्तृत क्षेत्र में पूरा समय लगाने वाले पुजारियों को करना होता है। चूँकि पारिवारिक गायत्री ज्ञान मन्दिर छोटे हैं इसीलिये इनके द्वारा उपरोक्त उद्देश्यों की पूर्ति छोटे पैमाने पर की जा सकती है। गायत्री परिवार के सदस्य स्वयं ही इन मन्दिरों के संस्थापक, संचालक का पुजारी की जिम्मेदारी पूरा कर सकते हैं। इन पारिवारिक ज्ञान मन्दिरों के चलाने के लिये दो रुपया मासिक की बचत भी काम चलाऊ हो सकती है। आर्थिक तंगी वाले व्यक्ति सप्ताह में शरीर को एक दिन भूखा रखकर आठ आना सप्ताह बचा सकते हैं। बाल बच्चे वाले अपने एक आना रोज और खर्च करा देने वाले घर में एक बच्चा इस ज्ञान मन्दिर को भी मान सकते हैं। धर्म का महत्व समझने वालों के लिये शरीर खर्च में जहाँ इतना पैसा खर्च होता है वहाँ एक आना रोज आत्मा की शान्ति के लिये खर्च कर देना कुछ मुश्किल नहीं। अपनी जन्मदात्री माता की भाँति गायत्री माता को एक आना रोज का भोजन करा देना कोई इतना बड़ा भार नहीं हैं जो उठ न सके। बाधक केवल मनुष्य की कंजूसी, कृपणता, संकीर्णता एवं अश्रद्धा ही है। यदि इन पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो गायत्री मन्दिरों की घर-घर में स्थापना और उनका संचालन आर्थिक दृष्टि से तो किसी के लिये भी भार रूप नहीं हो सकता। इतने महान कार्य एवं इतने बड़े कार्य के लिये इतने थोड़े से त्याग का जहाँ प्रश्न उपस्थित हो वहाँ किसी भी उदार भावना के धर्म प्रेमी को पीछे न हटना चाहिये, अनावश्यक कृपणता एवं संकीर्णता प्रकट न करनी चाहिये।

तात्कालिक कार्यक्रम के रूप में 13) की चार-चार आने वाली 42 पुस्तकें एवं 16 आदर्श वाक्य 2 रु. के, कुल 24 रु. का साहित्य मंगाकर ज्ञान मन्दिर की स्थापना अपने घरों में करना, ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के होता यजमानों का एक पवित्र कर्तव्य है। जिन्होंने अपना यह कर्तव्य अभी पालन न किया हो उन्हें तुरंत ही इसकी व्यवस्था कर लेनी चाहिये और उपासना स्वाध्याय एवं फेरी के जरूरी कार्यक्रमों को पूर्ण करना चाहिये। 10 पड़ोसियों को पूरा गायत्री ही साहित्य पढ़वाने का कार्य धर्मफेरी में सम्मिलित है। इसे पूरा करने वाले धर्म प्रचारक-ब्रह्मविद्यालय के उपाध्याय माने जायेंगे और महायज्ञ के अवसर पर इनका सार्वजनिक सम्मान किया जायेगा।

जन समाज में फैली हुई अनेकों दुष्प्रवृत्तियों, भावनाओं कुरीतियों अन्य परंपरा की रूढ़ियों संकीर्णताओं एवं अनैतिकताओं को हटाना है, उनके स्थान पर सत्य, प्रेम, न्याय, सदाचार, सेवा, उदारता, विवेक एवं सद्गुणों का विकास करना है। असुरता का साम्राज्य हटाकर देवत्व की सत्ता स्थापित करने को ही वह प्राचीन काल का जैसा स्वर्ण युग लाना, युग निर्माण करना, सांस्कृतिक पुनरुत्थान एवं धर्म संस्थापन का कार्य सम्पन्न होगा। इसके लिये सब से पहला कार्य जनता का विचार सुधार ही है।

यह बौद्धिक क्राँति ही गायत्री आन्दोलन का प्रधान उद्देश्य है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए आधारशिला के रूप में इन ज्ञान मन्दिरों की स्थापना करना निताँत आवश्यक है।

देव मन्दिर भारतीय संस्कृति के प्रधान स्तम्भ हैं। इनकी उपयोगिता असाधारण है। इसका सुचारु और सुव्यवस्थित रूप से जनता के सामने रखा जाना चाहिए। वर्तमान मन्दिरों का सुधार और नये गायत्री मन्दिरों का निर्माण इस क्रिया में दो महत्वपूर्ण कदम हैं। सामूहिक रूप से बड़े पैमाने पर यह कार्य हो इसकी प्रतीक्षा न करके हमें छोटे रूप से अपने घरों पर यह आदर्श तुरन्त ही स्थापित कर देना है। छोटे बीज ही बड़े वृक्ष के रूप में पल्लवित होते हैं। हमारे आज के छोटे पारिवारिक ज्ञान मन्दिर आगे चलकर जगमगाते तारे के रूप में भारत भाग्य निर्माण के आकाश पर चमकेंगे और इनमें से ही कई का दर्शन संसार सूर्य और चन्द्र जैसे महान प्रकाश पिण्डों के रूप में करेगा। आवश्यकता कदम उठाने की है। आइये, शुभ कार्य के लिए अधिक विचार न करें, अपना सुदृढ़, कदम बढ़ाएं।


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