मृत्यु के समय रोना पीटना अनुचित है।

May 1958

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(‘एक तत्वज्ञानी’)

किसी व्यक्ति की मृत्यु के समय रोना-पीटना हमारे देश में आम तौर से प्रचलित है। जिन मनुष्यों के परिवार में बहुसंख्यक व्यक्ति होते हैं और वे उसके लिये खूब रोना-धोना करते हैं तो उसे लोग बड़ा भाग्यवान मानते हैं। और जिनके कोई नहीं होता उनको अभागा समझ कर कहा जाता है कि ‘उसके लिये कोई रोने वाला भी न था’। वास्तव में यह आश्चर्य की बात ही मानी जायगी कि जो हिन्दू पुनर्जन्म के सिद्धान्त पर दृढ़ता पूर्वक विश्वास करते हैं और आत्मा की अमरता की सदा दुहाई देते रहते हैं वे तो किसी के मरने पर इस तरह घोर विलाप करना आवश्यक मानते हैं, और इसके विपरीत ईसाई आदि जो पुनर्जन्म को मानते ही नहीं और अधिकाँश में भौतिकवादी माने जाते हैं किसी के मरने पर प्रकट में बहुत ही कम रोते-धोते हैं। उससे भी हम इसी नतीजे पर पहुँचते हैं कि हिन्दुओं का वर्तमान धर्म अपने असली तत्वों से बहुत दूर हट गया है और उनमें दिखावटीपन बहुत अधिक बढ़ गया है।

हिन्दुओं के शास्त्रों में बार-बार जोर के साथ कहा गया है कि मृत्यु का अर्थ शून्य अथवा सर्वथा नष्ट हो जाना नहीं है, वरन् उसका आशय एक शरीर को छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करना ही है। इस सम्बन्ध में गीता का यह श्लोक बहुत प्रसिद्ध है-

बाँसाँसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि ग्रह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्, यन्यानि संयाति नवानि देही॥

इसका अर्थ तो यह है कि “जिस प्रकार मनुष्य वस्त्रों के पुराने हो जाने पर उनको त्याग कर नये वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार जीव भी इस देह के पुराना हो जाने पर नवीन शरीरों में प्रवेश करता है।” पर मनुष्य के शरीरों का ज्ञान न होने के कारण लोग इस श्लोक का आशय बहुधा यह समझ लेते हैं कि मनुष्य मरने के बाद तुरन्त ऐसा ही दूसरा मानव शरीर अथवा किसी अन्य प्राणी का शरीर ग्रहण कर लेता है। पर इसमें कुछ भूल है। मनुष्य मरने के बाद सदैव मनुष्य ही रहता है। वह कई वर्ष या कई सौ वर्ष या कई हजार वर्ष अन्य लोकों के सूक्ष्म शरीरों में रह कर पुनः स्थूल मनुष्य शरीर ही धारण करता है। इस बीच में वह एक न एक शरीर धारण किये अदृश्य लोकों में निवास करता रहता है। इसलिये उक्त श्लोक में ‘शरीराणि’ से केवल स्थूल शरीरों को ही नहीं समझना चाहिये। उसका असली अभिप्राय भिन्न-भिन्न लोकों में रहने के लिये मनुष्य के कई प्रकार के स्थूल और सूक्ष्म शरीरों से है।

इसलिये स्थूल भूलोक में मृत्यु होने का मतलब स्थूल शरीर का त्याग करना और छाया शरीर (ईथर तत्व से बना शरीर) का ग्रहण करना है। अर्थात् स्थूल भूलोक में मृत्यु होने का अर्थ है दूसरे ‘ईथर’ लोक में जन्म लेना। इसी प्रकार ‘छाया’-शरीर को त्याग करने का अर्थ है ईथर-लोक में मृत्यु होना और वासना-शरीर धारण करके काम-लोक में जन्म लेना। इसी प्रकार एक लोक से दूसरे लोक में जाने पर स्वभावतः जीवन को पुराना शरीर त्यागना ही पड़ता है, क्योंकि वह अन्य लोकों के लिये बेकार होता है।

इन तमाम बातों से एक बहुत महत्वपूर्ण नतीजा यह निकलता है कि भिन्न-भिन्न लोकों में आना-जाना और वहाँ का कार्य करके चल देना तो जीव रूपी पथिक की यात्रा की स्वाभाविक प्रणाली है। इसलिये मृत्यु का समय वास्तव में दुख के बजाय आनन्द का अवसर है, क्योंकि उस समय जीवन मृत्यु लोक का एक सफर तय करके अपने घर की ओर वापिस जाने का प्रयत्न करता है। जीव जितना ही नीचे के लोकों में उतरता है, उसका तेज, उसकी शक्तियाँ उतनी ही घटती जाती हैं। इस भूलोक में जीव का उतरना वैसा ही है जैसा किसी गहरी अँधेरी खाई में कुछ पता लगाने के लिये किसी मनुष्य का उतरना। वहाँ का काम समाप्त करके मनुष्य खाई से ऊपर उठने लगता है तो पद-पद पर उसे अधिक हवा, अधिक प्रकाश मिलता जाता है। इसी प्रकार इस पृथ्वी लोक में तो प्रत्येक मनुष्य किसी विशेष कार्य से आया हुआ है। इस कार्य को समाप्त करके जब वह अपने असली घर की ओर जाने लगता है तो, पद-पद पर उसे अधिक हवा अधिक प्रकाश मिलता है, अर्थात् उसका जीवन क्रमशः बन्धनों से अधिक मुक्त होता जाता है। इसलिये मृत्यु के समय शोक मनाने का कोई कारण नहीं।

इस प्रकार स्थूल भूलोक की मृत्यु का अर्थ जीव द्वारा स्थूल शरीर को त्याग करना और अन्य कोषों के साथ ‘ईथरिक’ (लिंग शरीर) में इस देह से बाहर निकल जाना होता है। इसलिये जैसे-जैसे ‘छाया शरीर’ स्थूल शरीर से बाहर निकलता जाता है, वैसे-वैसे स्थूल शरीर शिथिल पड़ता जाता है और अन्त में वह सूक्ष्म सूत्र जो ‘छाया’ देह को स्थूल शरीर के साथ बाँधे रहता है, वह भी टूट जाता है, और साधारण बोल-चाल में मनुष्य की मृत्यु हो जाती है।

मृत्यु होने के कुछ पूर्व जीव अपने इस जन्म की सारी कार्यवाहियों का सिंहावलोकन करता है। यह क्रिया ठीक वैसी ही होती है, जैसा प्रत्येक यात्री अपनी एक मंजिल को छोड़कर दूसरी मंजिल के लिये रवाना होते समय करता है। इस समय जीव अपने दो-चार दिनों अथवा दो-चार वर्षों की ही नहीं, वरन् जन्म भर की अच्छी-बुरी कार्यवाहियों पर एक बार चन्द क्षणों के भीतर ही दृष्टि फेर जाता है। ऐसे अवसर पर यही उचित है कि उस मनुष्य को निश्चिन्त छोड़ दिया जाय ताकि वह अपने जीवन भर का लेखा अर्थात् हिसाब-किताब समझ ले। ऐसा न कर हम बहुधा रोने-चिल्लाने लगते हैं। यह बात सहज ही में समझी जा सकती है कि ऐसा करने से उस प्रस्थान करने वाले जीव के चित्त में कितनी उद्विग्नता, कितनी अशान्ति फैलती होगी, जिससे वह अपना लेखा, अपना सिंहावलोकन समुचित रीति से न कर सकता होगा इसलिये ऐसे समय में उस जीव के वास्तविक हित के लिये, जिसके साथ हम इतना प्रेम करते थे, पूर्ण शान्ति, प्रेम तथा आनन्द का ही वातावरण उसके चारों ओर बनाये रखने की हमें हर तरह से कोशिश करनी चाहिये।

एक बात और स्मरण रखनी आवश्यक है कि प्राकृतिक मृत्यु के पश्चात जीव की गति ऊपर के लोकों की तरफ होती है। इसलिये यदि हम वास्तव में ऊपर जाने वाले जीव के साथ प्रेम रखते हों, तो हमारा कर्तव्य है कि हम उसकी ऊपर की गति में उसे सहायता पहुँचावें। यहाँ रह कर भी ऐसी सहायता पहुँचाई जा सकती है। श्राद्ध कर्म आदि का यही उद्देश्य होता है। खेद है कि इन बातों को हम समझ कर नहीं करते, केवल एक रस्म निबाहने के भाव से कर देते हैं, जिससे उनका प्रभाव बहुत हद तक बेकार हो जाता है। पर कम से कम एक बात पर तो पूरा ध्यान देना चाहिये कि किसी की मृत्यु के समय और उसके बाद भी उसके लिये रोना-पीटना तथा शोक न करना चाहिये। क्योंकि मरने के बाद भी मनुष्य तुरन्त उस स्थान से कहीं बहुत दूर नहीं चला जाता। प्रायः वह अपने रिश्तेदारों और इष्ट मित्रों के ही इर्द-गिर्द घूमा फिरा करता है। उसका प्रेम प्रत्येक के साथ जैसा पहले था वैसा अब भी रहता है। अन्तर सिर्फ इतना ही रहता है कि यहाँ जो सूक्ष्म लोक वर्तमान है, उनमें वह सूक्ष्म शरीर धारण करके रहता है। इसलिये इस शरीर की इन्द्रियों द्वारा हम उसे देख अथवा छू नहीं सकते। पर अपनी अनुभूतियों तथा अपने विचारों द्वारा उसके साथ हमारा सम्बन्ध एक भाव से लगा रहता है। वह तो स्वयं भी अपने प्रेमियों की ओर झुका रहता है, और यदि प्रेमियों ने अपने रोने-पीटने और शोक, विलाप द्वारा उसे अपनी तरफ और अधिक आकृष्ट करे रखा तो उसके आगे जाने के रास्ते में बाधाएँ पड़ती है। इस बात को स्मरण रख कर सच्चे प्रेम का संचार करते रहने से तथा समझ-बूझ कर श्राद्ध, आदि करने से हम उस परलोकगामी जीव को बहुत सहायता पहुँचा सकते हैं। इसलिये यदि हम अधिक न कर सकें, यदि हम विशेष सहायता न पहुँचा सकें, तो कम से कम हमें इतना तो अवश्य करना चाहिये कि उस जीव के रास्ते में हम बाधायें उपस्थित न करें और यह तभी सम्भव हो सकेगा जब हम वृथा रोने-पीटने तथा शोक विलाप करने से परहेज करेंगे।


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