मन की अपार शक्ति और उसका उपयोग

May 1958

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(श्रीमती लिली एलेन)

जब कोई साधक ईश्वर की खोज में आगे बढ़ता है तो सबसे अधिक कठिनाई अपने मन को रोकने में होती है। जो मन को रोकने का अभ्यास कर रहे हैं, वे ही इसका प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं। जब हम विचारों का संयम करने बैठते हैं, तो हमें मालूम होता है कि हमारा मन कितना स्वच्छन्द और निरंकुश रहा करता है तथा उसमें सब प्रकारों के विचारों को ग्रहण करने की भी कितनी अपार शक्ति रहती है। हमें यह स्मरण करके बड़ा दुख और आश्चर्य होता है कि हमने इधर-उधर की निरर्थक बातों में अपना कितना अमूल्य समय नष्ट किया है। अगर इसी समय को हम किसी विशेष लक्ष्य की ओर, जीवन ऊपर उठाने वाले विचारों की ओर लगाते तो हमारा चरित्रबल कितना अधिक बढ़ जाता, हमारा हृदय कितना शुद्ध हो जाता, हमारा प्रभाव कितना बढ़ जाता और हमारी आत्मिक-उन्नति कितनी अधिक हो गई होती।

यदि उपरोक्त कथन की सचाई जिस किसी दिन किसी की समझ में आ जाय, तो उस दिन को उसके जीवन का एक बड़ा महत्वपूर्ण दिन समझना चाहिये।

मन पहिले पहल अपने ऊपर हाथ नहीं रखने देता। उसकी अवस्था उस बछड़े की सी होती है जो मुँह में पड़ी लगाम तोड़कर स्वतन्त्र होना चाहता है। वास्तव में यदि हम मन को वश में करना चाहते हैं, तो हमें बड़े धैर्य से काम लेना होगा और उसको इधर-उधर जाने से बार-बार रोकना होगा। सम्भव है निराश होकर हम उसे रोकने का प्रयत्न बन्द कर दें, पर ऐसा करना हमारे लिये बहुत घातक होगा।

मन को रोकने के लिए सबसे पहले धैर्य धारण करने की आवश्यकता है। शीघ्रता करने से सिवाय हानि के लाभ नहीं है। धीरे-धीरे काम करके सफलता प्राप्त करना अच्छा है, किन्तु शीघ्रता करके असफल हो जाना बुरा है, अतएव मन को प्रारम्भ में तंग करने का अधिक प्रयत्न न करो और न उसे एकाग्र करने में अधिक समय लगाओ। सम्भव है, इस प्रकार के व्यवहार में अभ्यस्त न होने के कारण वह थम जाय और अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर सके। सच्चा मनुष्य वही है जो धीरे-धीरे मन को वश में- कर लेता है।

मन को एक स्थान पर लगाने का अभ्यास करो। प्रातःकाल का समय इसके लिये सबसे उत्तम समय है। दस मिनट से प्रारम्भ करो और फिर बीस मिनट कर दो। इस प्रकार धीरे-धीरे मन किसी स्थान पर आपसे आप एकाग्र होने लगेगा।

आत्मा की उन्नति के लिए एक आदर्श की अत्यन्त आवश्यकता है। यह आदर्श तभी फलदायक हो सकता है जब मन उस पर एकाग्र हो जाय। पहले परीक्षा करके अपने आपको जानना चाहिए। मनुष्य का मन बड़ा ही दुर्ज्ञेय है। पर अपने को जानना उतना सुगम नहीं जितना कि जान पड़ता है। तो भी यदि हम मन को वश में करना चाहते हैं तो सबसे पहले अपने आपको जानना चाहिए। हम अपनी गहरी जाँच-पड़ताल करें, अपनी कामनाओं का विश्लेषण करें, अपनी इच्छाओं को तौलें और फिर यह विचार करें कि हमने अमुक बात क्यों कही थी अथवा हमने अमुक कार्य क्यों किया था। प्रतिदिन हम अपने कामों का निरीक्षण करते रहें और यदि कोई भूल हमसे हुई हो तो उसको मानने में न हिचकें। अपनी अन्तरात्मा से अपने दोष कहने में किसी प्रकार का भय न करो। इससे तुम्हारी आत्मा निरन्तर उन्नति करती जायगी। इस प्रकार उद्योग करते हुए धीरे-धीरे हम अपने लक्ष्य तक अवश्य पहुँच जायेंगे और अन्त में अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल मनोरथ होंगे।


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