मनुष्य-जीवन में अनुशासन और गायत्री-मंत्र

May 1958

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(श्री पूर्णचन्द एडवोकेट, आगरा)

किसी भी शासन के लिए विधान की परम आवश्यकता है। कोई शासन, उस समय तक शासन का रूप धारण नहीं कर सकता, जब तक उसकी रूपरेखा, उसका आधार और उसके क्रियात्मक नियम विधान के रूप में एकत्रित न हों। जब तक विधान नहीं बनता, तब तक शासन के अधिकार भी पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं होते।

मानवीय संपर्क और संघर्ष को मर्यादित करने के लिए जहाँ विधान या शासन की आवश्यकता है, वहाँ यह भी आवश्यक है कि शासन की शक्ति ऐसे सबल हाथों में हो जो करोड़ों-लाखों मनुष्यों और प्राणियों के संघर्ष ओर संपर्क को मर्यादित कर सके। शासन की शक्ति का आधार या मूल केन्द्र ऐसे स्थान में होना चाहिए जिसे कोई किसी भी दशा और किसी भी काल में, अकेले रहकर या संगठित होकर, उल्लंघन न कर सके।

शासन और मन्त्र

शासन और मन्त्र का घनिष्ठ सम्बन्ध है। मन्त्र से अभिप्राय विचार से है। विचारों से आचार बनता है। किसी व्यक्ति का वह आचार जो दूसरों से सम्बन्धित है व्यवहार कहलाता है। इसलिए शासन-प्रबन्ध के लिए भिन्न-भिन्न विभागों के मन्त्री नियुक्त होते हैं और ये सब मन्त्री एक मुख्यमंत्री के अधीन रहकर कार्य-सञ्चालन करते हैं। इन मंत्रियों को सफलता से कार्य करने और योग्य बनाने के लिए मन्त्र अथवा विधान की आवश्यकता होती है।

कोई भी शासन सफल नहीं हो सकता, जब तक उस शासन-प्रणाली से सम्बन्धित व्यक्ति अनुशासन की मर्यादा का पालन करने वाले न हों। अनुशासन का पर्यायवाची शब्द अँग्रेजी में ‘डिसिप्लिन’ है, जिसका अर्थ उस भावना से है जो कि ‘डिसिपल’ अथवा शिष्य में होनी आवश्यक है। केवल अनुशासन पर जोर देना, परन्तु यह निश्चित न करना कि गुरु कौन और शिष्य कौन है, गुरु-शिष्य का क्या सम्बन्ध है, ठीक नहीं है। इसलिए हमें अनुशासन के उस मन्त्र या विधान को समझना चाहिए, जिससे अनुशासन मर्यादित हो सके।

अनुशासन और योग का भी घनिष्ठ सम्बन्ध है। योग दर्शन के रचयिता पतञ्जलि ऋषि ने, योग-दर्शन का आरम्भ जिस ‘योगानुशासनम्’ सूत्र से किया है उसमें ‘अनुशासन’ शब्द का प्रयोग करने से यही विदित होता है कि अनुशासन के लिए योग की भावना आवश्यक है। योग से अभिप्राय उस मानसिक भावना से है, जिसके आधार पर ऐसा स्वभाव बन जाय कि प्रत्येक मनुष्य अपने विचारों, आचारों और व्यवहार में ईश्वर को अपने समीप दृष्टा और न्यायकर्ता अनुभव करता रहे। योग जब उपासना के अर्थ में आता है तो उसका यह भी अभिप्राय होता है कि मनुष्य अन्य प्राणियों के साथ अपने व्यवहार में ईश्वर को न भूले, ईश्वर आदेशों का ध्यान रखकर ही सबके साथ उचित संपर्क रखे।

योग-दर्शन के 26 वें सूत्र में ईश्वर को आदि गुरु माना गया हैं-

“पूर्व षामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” आदि में उत्पन्न होने के कारण सबका गुरु ब्रह्मा माना गया है, परन्तु उसका काल से अविच्छेद है। ईश्वर आचार्य भी है और गुरु भी है। ईश्वर आचार्य इसलिए है, क्योंकि यह सत्य आचार का ग्रहण कराने वाला और सब विद्याओं की प्राप्ति का हेतु होता है। ईश्वर गुरु भी इसी आधार पर है कि सब प्रकार के धर्म और विद्या आदि का स्रोत वही है। “यो धर्मान् शब्दान् गुणात्युपदिशति गुरु।” ईश्वर गुरु है और आदिगुरु है। उसका संचालन सारे जगत में चरितार्थ है। इसलिए उस आदि गुरु के मन्त्र या विधान का जानना आवश्यक है, जिससे मनुष्य के हृदय-जगत की, अर्थात् उस केन्द्र की जहाँ से इच्छा और द्वेष उत्पन्न होते हैं, व्यवस्था ठीक हो सके। प्राचीन पद्धति के अनुसार वह गुरु-मन्त्र गायत्री ही है-

ॐ भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं। भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्॥

यह मन्त्र गुरु-मन्त्र इसलिए कहलाता है कि इसमें परमात्मा की ओर से वह आदेश और उपदेश है, जिससे समस्त जीवन मर्यादित होता है। मनुष्य के लिए उसका ज्ञान और उसकी बुद्धि की सबसे अधिक उपयोगी है। जीवन ज्ञान प्राप्त करने की योग्यता रखता है पर वह स्वयं भी बिना किसी दूसरे निमित्त के ज्ञान प्राप्त नहीं कर सकता। ज्ञान का आदि स्रोत ईश्वर है और वही आदि गुरु है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य के ज्ञान का आधार ईश्वर है और जब मनुष्य अपने ज्ञान, अपनी बुद्धि को ईश्वर के ज्ञान से सम्बन्धित समझता है तो उसके ज्ञान का दुरुपयोग नहीं हो सकता।

इस मन्त्र में ‘ॐ’ से लेकर ‘भूर्भुवः स्वः’ तक, लक्ष्य में रखते हुए, ईश्वर का मुख्य नाम और उसके विशेष गुण हमारे सम्मुख आ जाते हैं। ‘सविता’ से उसके रचियता होने की भावना उत्पन्न होती है और ‘वरेण्यं’ से उसके न्यायकारी होने की।

“भर्गो देवस्य धीमहि” से अभिप्राय है कि हम उस दिव्य गुण युक्त और पापों से दूर करने वाली परमात्मा की बुद्धि को अपनी बुद्धि से संयुक्त करते हैं, अर्थात् उसकी बुद्धि को अपनी बुद्धि का आधार मानते है। यदि बुद्धि उससे जुड़ी हुई न होगी तो हमारा जीवन धार्मिक और सफल न हो सकेगा। यदि बुद्धि हमारे हमारे कर्म से जुड़ी हुई और उसको प्रकाशित करने वाली न होगी, तो भी हमारे कर्म अच्छे न होंगे और हम पापों से न बच सकेंगे। इसलिए मन्त्र के अन्त में “धियो यो नः प्रचोदयात्” से यह दर्शाया गया है कि हमारी बुद्धि केवल ईश्वर से जुड़ी हुई ही न हो, प्रत्युत वही बुद्धि जो ईश्वर के प्रकाश से प्रकाशित है, हमारे कर्म को भी मर्यादित कर सके।

जैसा हम बतला चुके हैं, परमात्मा ज्ञान-स्रोत और परमानन्द का आदि स्रोत है। अगर हम एक बिजली घर की उपमा लें तो परमात्मा को विद्युत का उत्पादक केन्द्र मान सकते हैं। उस अवस्था में गायत्री मन्त्र का जप और उच्चारण उन तारों के समान है, आचरण उस फिटिंग के समान है जिसके कारण हम उत्पादन केन्द्र से लाभ उठा सकते हैं। गायत्री-मन्त्र से उपासना द्वारा सम्बन्ध स्थापित करना और इस प्रकार जो गति तथा प्रकाश प्राप्त हो उससे अपने कर्म, ज्ञान को प्रकाशित करना, क्रियात्मक जीवन बन जाता है। इसलिए हमें तीनों बातें ध्यान में रखनी चाहिए कि ईश्वर उत्पादन केन्द्र है, हमारे ज्ञान का आदि स्रोत है और आनन्द का आधार है। यदि हम चरित्रवान और सदाचारी होकर अपने जीवन को सफल बनाना चाहते हैं तो अपनी बुद्धि का प्रयोग करते समय ईश्वर के आदि स्रोत या मूल आधार होने का ध्यान रखना अनिवार्य हैं।


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