मनुष्य का उत्तरदायित्व और उसका कर्तव्य

May 1958

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(श्री. अगरचन्दजी नाहटा)

साधना ही सिद्धि का सोपान है। बिना साधना सिद्धि नहीं मिलती। साधना के लिये बहुत बड़े त्याग की आवश्यकता होती है। निवृत्ति-जीवन में वह अधिक सुलभ होती है, क्योंकि अनेक प्रवृत्तियों में जहाँ तक मन, वचन, काया लगी रहती है वहाँ तक साधना के उपयुक्त एकाग्रता प्राप्त नहीं हो सकती और बिना एकाग्रता के साधना बलवती एवं इच्छित फलदात्री नहीं हो सकती। इसीलिये त्यागमय साधु जीवन को साधना के लिये उपयुक्त माना गया है। गृहस्थ जीवन में अनेकों जिम्मेदारियां होती है, अपने परिवार के भरण-पोषण और लोक-व्यवहार एवं सामाजिक नियमों को सुव्यवस्थित संचालित करने के लिये विविध प्रवृत्तियों में व्यस्त रहना पड़ता है। साधु-जीवन में आवश्यकताएँ और बाहरी जिम्मेदारियां बहुत कम हो जाती हैं। इसलिये साधना में पूरा समय, शक्ति लगाई जा सकती है। एक तरह से साधु जीवन साधनामय ही होता है। लक्ष्य को स्थिर करके निरन्तर उस ओर अग्रसर होते रहना साधु जीवन में अधिक सम्भव है।

ऐसे ही एक सन्त की वाणी का परिचय करीब डेढ़ वर्ष पूर्व सिलचर में मिला। इन सन्त पुरुष का नाम हैं स्वामी स्वरूपानन्द परमहंस। बंगाल-आसाम के अतिरिक्त बनारस में भी इनका आश्रम है। वहीं से आपकी वाणी और कार्यों का प्रचार ‘प्रतिध्वनि’ नामक एक मासिक पत्रिका द्वारा हो रहा है। इसके विगत अग्रहायण के अंक में स्वामीजी की वाणी के अस्सी उपदेशों का संकलन प्रकाशित हुआ है, इस संकलन के कुछ चुने हुए वाक्यों का सार प्रस्तुत लेख में उपस्थित किया जा रहा है। जिससे उनकी अनुभूति प्रधान और प्रेरणादायक वाणी का कुछ परिचय पाठकों को मिल जायगा।

1.हमारा ऋण

व्यक्तिगत रूप से मैं अनुभव करता हूँ कि मैं अपने पूर्व पुरुषों का आपादमस्तक ऋणी हूँ। केशाग्र लगाकर पदनखाग्रत के मेरे शरीर के प्रत्येक अंग-प्रत्यंग के प्रत्येक अणु-परमाणु एक न एक महाभाव को वहन कर रहे हैं। ये सब महाभाव मुझे दूसरों से ही प्राप्त हुए हैं। एक महापुरुष ने कहा “झूठ बोलना पाप है।” दूसरे ने कहा ‘परनिन्दा पाप है।’ तीसरे ने ‘पराये धन की ओर दृष्टि देना पाप बताया’ और चौथे ने ‘परानिष्ठ चिन्तन करना बुरा बतलाया’। इस तरह एक-एक व्यक्ति की एक-एक बात ने मेरे कर्म, वाक्य, चिन्तन और जीवन को गठित किया। मैं उन सब शिक्षादाताओं का ऋण कैसे भूल सकता हूँ? साधारणतया रास्ते में खड़े हुये एक दीन मजदूर के साथ भी एक मिनट भी बात की जाती है, उससे भी कोई-कोई अज्ञात बात प्राप्त हो जाती है। इसी प्रकार एक व्यक्ति जो कुछ भी नहीं बोलता हैं, के चेहरे की ओर स्थिर चित्त से दो मिनट भी देखा जाय तो उसके आन्तरिक भावों की उपलब्धि होने लगती है। उससे सम्बन्धित अनेक ज्ञान की किरणों का प्रकाश हमारे हृदय में प्रकट हो जाता है। हमारी इच्छा हो, न हो, पर दसों दिशाओं से हर समय हमें कुछ-न-कुछ नयी जानकारी और अनुभूति मिलती रहती है। इस तरह हम जो कुछ बन पाते हैं, वह दूसरों से प्राप्त अनुभूतियों के द्वारा ही और इस नाते हम असंख्य वस्तुओं और प्राणियों के ऋणी हैं ही। जगत की समस्त वस्तुएं, घटनाएँ और प्राणीगण हमारे लिये एक ‘लोन आफिस’ ही समझिये, जिनके द्वारा अनेक प्रकार की बातें हमें प्रतिपल मिल रही हैं। जिस ओर भी जायं, जहाँ कहीं भी रहें, हम निरन्तर दूसरों से कुछ-न-कुछ पाते ही रहते हैं। प्रत्येक श्वासोच्छवास के साथ हम यह ऋण कर रहे हैं और बढ़ा रहे हैं।

2. ऋण परिशोध न के लिये सेवा

जब तुम समस्त विश्व के आकण्ठ ऋणी हो तो जगत् की सेवा के द्वारा इस ऋण का परिशोध न करते रहना तुम्हारा कर्तव्य हो जाता है। निष्कपट और निरहंकार मन से तुम्हें जगत् की सेवा में अपनी समग्र शक्ति, बुद्धि और प्रतिभा को नियोजित कर देना चाहिये। यदि किसी की सेवा नहीं करते, उपकार नहीं करते, केवल अपना ही स्वार्थ-साधन कर रहे हो तो तुम्हारा ऋण कभी भी नहीं उतरेगा। किसी की सेवा करके तुम उसका उपकार नहीं कर रहे हो, इस बात को कभी न भूलकर जगत् की सेवा में अपने को समर्पित कर दो।

3. पुरुषार्थ

सेवा का मार्ग विकट है। उसके लिये प्रचण्ड उत्साह की आवश्यकता है। भय और कष्टों से हताश होने से काम नहीं चलेगा। अदृष्ट के ऊपर निर्भर न रहकर अपनी शक्ति पर विश्वास रक्खो। अच्छे कार्य करने से भविष्य उज्ज्वल है ही। हमारी भाग्य के निर्माता हम स्वयं हैं। अपने पुरुषार्थ से हम उसे बदल सकते हैं। जैसा चाहें बना सकते हैं, मृत्यु को अमृत में रूपांतरित कर सकते हैं।

4. उपासना-प्रार्थना कामना रहित हो

जब ईश्वर हमारे सुख और दुःख सभी बातों को जानने वाले हैं, तब हमें उनके समक्ष ‘धन-दौलत दो, दुःख दूर करो’ इत्यादि प्रार्थनाएँ करने की आवश्यकता नहीं रहती। हम जिस समय जो प्राप्त करने के अधिकारी हैं, हमें वह निरन्तर मिल ही रहा है। हमें अपनी योग्यता को बढ़ाना चाहिये। जो चाहते हैं, उसके योग्य बन जाने पर वह स्वयं मिल जायगा इसलिये हमें कामना रहित होकर उपासना करनी चाहिये। साधना के बल पर ही हम जो चाहें प्राप्त कर सकेंगे।

5. सेवक की सेवा

जिन व्यक्तियों और वस्तुओं को हम निम्न श्रेणी का मानते हैं, वे भी हमारी अनेक प्रकार की सेवाएँ कर रही हैं। चमड़े को हम अस्पृश्य मानते हैं और उसके द्वारा जूता बनाने वाले चमार को भी अस्पृश्य समझते हैं। पर वह चमड़ा हमारे पैरों की रक्षा करता है, स्वयं क्षत और आघात सहता है पर हमारे पैरों को बचाता है। उस चमड़े को पैरों की रक्षा करने के उपयुक्त बनाने वाला वह चमार भी हमारी कितनी सेवा करता है। हमारे पैर के नाप से चमड़े को इस तरह सिलाई करता है कि जिससे उस चमड़े की सेवा की क्षमता बढ़ जाती है। जो दूसरे की सेवा करता है उसकी सेवा करना भी कम सौभाग्य की बात नहीं है। महापुरुषगण समस्त पृथ्वी के लाखों प्राणियों की सेवा करते हैं, जो साधारण व्यक्ति के लिये सम्भव नहीं, पर वह साधारण व्यक्ति उस महामना पुरुष की सेवा करके उनके सेवा कार्य को सहयोग तो दे ही सकता है। उसकी सेवा के द्वारा महापुरुष की सेवा की क्षमता बढ़ती है। वे जगत का अधिक उपकार कर सकते हैं। इस तरह प्रत्यक्ष रूप में जगत की सेवा न करने पर भी यह साधारणजन परोक्ष रूप में जगत के सेवक की सेवा करके जगत की सेवा का ही भागीदार हो सकता है। अतः सेवा निरत व्यक्ति की सेवा करो, उसे सहयोग दो। यह महान लाभप्रद है।

6. साधना के शत्रु

साधना की प्राथमिक अवस्था का शत्रु है- ‘आलस्य’ और परिणतावस्था का शत्रु है- ‘अहंकार। आलस्य से साधना में प्रवृत्ति ही नहीं होती और अहंकार आगे बढ़ने में रुकावट डालता है। अभिमान के द्वारा उच्च स्थिति से पतन हो जाता है। वह कहाँ जाकर गिरेगा इसका कोई ठिकाना नहीं रहता।

आलस्य के दमन का उपाय है उच्च आकाँक्षा को प्रबल करते रहना। इसी जीवन में चरम उत्कर्ष और परम सत्य प्राप्त करना है, ऐसा दृढ़ संकल्प करने से आलस्य भाग जायगा, क्योंकि आलसी व्यक्ति के लिये उस संकल्प की सिद्धि सम्भव नहीं। निरन्तर पुरुषार्थ करते रहने से ही वह उच्च आकाँक्षा पूर्ण हो सकेगी।

अहंकार के दमन का उपाय है अपने से अधिक उन्नत व्यक्तियों का ध्यान। साधारणतया हम अपने में दूसरों की अपेक्षा अधिक उल्लेखनीय विशेषता देखते हैं, तभी हमारे में अहंकार आता है। जब हम अपने से अधिक गुणी व्यक्तियों के जीवन पर दृष्टि डालेंगे, तभी हमारी अवनत स्थिति का सही भान होगा, अपने दोष और कमजोरियों के सामने आते ही हमारा अभिमान चूर्ण हो जायगा। अभी हमें बहुत आगे बढ़ना है, उन महापुरुषों की तुलना में हम बहुत ही नीचे हैं, अतः हमें उनके आगे का अनुसरण कर अपनी कमजोरियों को हटाना है।

7. सत्संग

वर्तमान युग के ब्रह्मचर्य को स्मरण रखना होगा। एक ओर से भगवान् के साथ योग रखना होगा, दूसरी ओर भगवान् के द्वारा सृष्टि जीव-जगत् के साथ सेव्य-सेवक सम्बन्ध अटूट भाव से रखना होगा। भगवान् की पूजा के साथ पूजक को भगवान् के जीवों को नहीं भूलना चाहिये। उनके दुःखों को दूर करने के लिये सतत प्रयत्नशील रहना चाहिये।

परमात्म परायणता का लक्षण है अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों को परमात्मा की ओर आकर्षित किया जाय। सत्संग ही भक्ति मार्ग का सब से बड़ा पाथेय है। सत्पुरुषों की कृपा से परम मंगल होता है।


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