भारतीय विज्ञान का अपूर्व ग्रन्थ

May 1958

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(प्रो. अवधूत, गोरे गाँव)

आजकल विज्ञान की जो खोजें की जा रही हैं वह वास्तव में आश्चर्यजनक हैं। पर इसमें भी सन्देह नहीं कि प्राचीन भारतीय वैज्ञानिक भी इनसे कहीं बढ़ी-चढ़ी खोजें कर चुके थे। इन दिनों रूस ने जो उपग्रह आकाश में चलाया है और चन्द्रलोक तक जाने की तैयारी की जा रही है, उससे भी बढ़कर आश्चर्यजनक अनेक खोजें भारत के प्राचीन ऋषि मुनि कर गये हैं। जिनका हाल समय-समय पर प्राचीन ग्रन्थों से मालूम होता रहता है। इन ग्रन्थों में पूरे नगर के बराबर वायुयान बनाकर आकाश में ही निवास करने का वर्णन पाया जाता है। हाल में महर्षि भारद्वाज का ‘यन्त्र सरस्वम’ नामक ग्रन्थ मिला है जो मैसूर की ‘अन्तरदेशीय संस्कृत संशोधन संस्था’ के पास है, इसके 40 वें प्रकरण में वैज्ञानिक आविष्कारों का अति आश्चर्यजनक वर्णन मिलता है। इसमें भूः, भुवः, स्वः, महः आदि दूरवर्ती लोकों तक की यात्रा करने की विधि दी गई है, भिन्न-भिन्न ग्रहों में जाने के लिये अलग-अलग तरह के अद्भुत विमानों के निर्माण का विवरण दिया गया है। ऐसे भी यन्त्र बनाना बतलाया गया है जिससे एक ही मनुष्य पक्षी की तरह आकाश में उड़ सके।

पूर्व और पश्चिम के विद्वानों में जो मुख्य और विलक्षण भेद है वह यही है कि पश्चिम वाले बाहरी जगत में से अपनी कामनाओं की पूर्ति करने का प्रयत्न करते हैं, और पूर्व वाले अपनी आत्मा की असीम शक्ति पर आधार रखते हैं। पश्चिम निवासी इन्द्रिय जनित सुखों को प्राप्त करने के लिये परिश्रम करते हैं, जबकि पूर्व के निवासी पंचेन्द्रिय पर संयम रख कर आत्म चिन्तन द्वारा अपूर्व आनन्द प्राप्त करते हैं। पश्चिम के विद्वान वैज्ञानिक प्रकृति के गुणधर्म को जानकर पदार्थों में रहने वाली गुप्त शक्तियों से कार्य लेते हैं जबकि पूर्व के तपस्वी, अपनी ही आत्मा में जो अमोघ और अपरिमित अन्तर शक्ति पाई जाती है, अधिकाँश उसी शक्ति के द्वारा अपने सब कामों को सिद्ध करते हैं।

महर्षि भारद्वाज रचित “अंशु बोधिनी” ग्रन्थ में सूर्य और नक्षत्रों की किरणों की शक्ति पर विचार किया गया है। इस ग्रन्थ में 64 अधिकरण हैं, जिनको छह भागों में विभाजित किया गया है। इनमें से 54 वाँ अधिकरण “विमानाधिकरण” नाम का है। इसके सिवा इन्हीं ऋषि का एक ग्रन्थ “अक्ष-तन्त्र” नाम का है जिसमें आकाश की परिधि और उसके विभागों का वर्णन किया गया है और बतलाया है कि मनुष्य आकाश में कहाँ तक जा सकता है और उसके बाहर जाने से किस प्रकार वह नष्ट हो सकता है। उसमें विमानों के सम्बन्ध में अनेक ऐसी बातें दी गई हैं जिनको पढ़कर आजकल के मनुष्य आश्चर्य में पड़ जाते हैं। “विमानाधिकरण” में यह सूत्र दिया गया है--

“शक्त्युद्गमोदयष्टौ”

इस सूत्र पर बौधायन ऋषि ने निम्नलिखित व्याख्या की है-

शक्त्युद्गमो भूतवाहो धूमयानश्शिखोद्गमः। अंशुवाहस्तार मुखोमणि वाहो मरुत्सखः॥ इत्यष्टाधिकरणें वर्गाण्युक्तानि शास्त्रातः।

अर्थात् विमान-रचना और उनके आकाश के चलने की गति के आठ भेद हैं :-

शक्त्युद्गम वर्गम- विद्युत शक्ति से चलने वाले विमान।

भूतवाह- पंच महाभूत की शक्ति इकट्ठी करके चलने वाले विमान।

धूमयान- भाप अथवा धुँये से चलने वाले विमान।

शिखोद्गमः- पंचशिखी, शिखरीनी, शिखा वति, कुँदशिखी आदि वनस्पतियों के तेल की मोमबत्ती बनाकर उनसे चलने वाले विमान।

अशुवाहः- सूर्य की किरणों की शक्ति से चलने वाले विमान।

तारामुखः- नक्षत्र शास्त्र के अनुसार नक्षत्रों में रस बनकर जो पदार्थ भूमि पर आता है उसके प्रयोग से चलने वाले विमान।

मणि वाहः- हवा में जो उष्णता और बिजली है उसको कुछ यन्त्रों द्वारा पृथक करके उसी शक्ति से चलने वाले विमान।

मरुत्सखाः- हवा में शीत और उष्ण विभाग है उनका आवृत्तिकरण करने से जो शक्ति प्राप्त होती है, उससे चलने वाले विमानों को ‘मरुत्सखा’ कहा जाता था।

सूर्य-किरणों के मुख्य बारह विभाग होते हैं। उनके द्वारा ऋषियों ने जो आश्चर्यजनक कार्य किये थे, उनका विचार कर सकना भी हमारे लिये असम्भव है। सूर्य किरणों की बारह शक्तियों के नाम ये हैं- (1.) प्रकाश, (2.) उष्णता, (3.)अनिल, (4.) जल, (5.) वर्ण, (6.) चालन, (7.) मुग्ध, (8.) विद्युत, (9.) वेग, (10.) जृम्भण, (11.) नलिका, (12.) वारुणि।

सूर्य की इन बारह शक्तियों को पृथक करके 12 मणि तैयार करके और उनके दर्पण बनाकर उनकी शक्ति द्वारा जो विमान चलाया जाता है उसे मणिवाह-विमान कहते हैं। इन बाहर मणियों को तैयार करने में जो द्रव्य काम में लाये जाते हैं, उनका पूरा वर्णन इस ग्रन्थ में है।

“अंशुबोधिनी” के चौथे भाग में कूट-केन्द्र का वर्णन किया गया है, जिसका आशय यह है कि अनेक शक्तियों को एक केन्द्र पर एकत्रित करके उनका प्रयोग करना। सूर्य-राशियों में हमेशा होने वाले परिवर्तन, उनसे बनने वाले ‘कूट’ और उनके परिणामों का भी वर्णन है। ये ‘कूट’ अमुक ‘गोल’ के किस-किस भाग को स्पर्श करते हैं और उनसे तरह-तरह की गति किस प्रकार उत्पन्न होकर कार्य करती है, इसका वर्णन भी आश्चर्यजनक है। इस कूटविद्या को स्पष्ट करने के लिये दण्ड, त्रिकोण, जया, वाण, पाँजरा, वाहा, वर्तुल, ज्वलन, सन्त, घोर, मुग्ध, प्रकाश, ईषत् स्फुरण, उर्द्धगुण, अधोमुख, तिर्यंग मुख, विविध-वर्तुल, चित्र, आन्दोलन आदि अनेक प्रकार की सूर्य-किरणों के परिवर्तनों का जो वर्णन किया गया वह भी बड़े महत्व का है।

सूर्य और सूर्य रश्मियों का ज्ञान मनुष्यों के लिये वास्तव में अति उपयोगी है और इसके लिये भारद्वाज ऋषि का यह ग्रन्थ अलौकिक है। पर इस ग्रन्थ के रहस्य को समझने के लिये ब्रह्मचर्य और वेदाध्ययन द्वारा शुद्ध बुद्धि की आवश्यकता है। इन ऋषि महाराज ने इन्द्र सत्ता (वीर्य बल) प्राप्त करने के लिये तप किया था अर्थात् मानसिक उपाँशु जप करके अजपा गायत्री सिद्ध की थी। तब परब्रह्म की कृपा से दीर्घायु प्राप्त करके वेद का तथ्य जानने के लिये अन्तर्मुख होकर घोर तप किया था। इससे वेद का गुह्य तत्व उन पर प्रकट हो गया और योग शक्ति द्वारा वे सूर्य के समान ही तेजस्वी हो गये। उनको वेदों के ज्ञान के पर्वत पर पर्वत दिखलाई पड़ने लगे। उनकी विशालता से चकित होकर ऋषि परमात्मा की प्रार्थना करने लगे कि इस अपार वेद-ज्ञान के एक अंश को देख सकने की भी शक्ति मुझ में नहीं है तो फिर महान् पर्वतों के तुल्य ज्ञान को मैं कैसे जान सकता हूँ? परब्रह्म ने सन्तुष्ट होकर अनन्त वेद में से तीन अक्षर (ओम्) उनको दिखलाये और बतलाया कि इनमें सब प्रकार की विद्याओं को प्रकाशित करने की सामर्थ्य है। इस प्रणव-शक्ति की सहायता से भारद्वाज ऋषि ने परमात्मा के वेद-स्वरूप अनन्त ज्ञान को समझा और उसमें से मनुष्यों के उपकारार्थ इस और सौर-विद्या के महान् ग्रन्थ की रचना की। परन्तु क्षुद्र बुद्धि के लोग ऋषि-प्रणीत ग्रन्थों का मर्म न जानने के कारण उनका वास्तविक आशय ग्रहण नहीं कर पाते। आजकल के मनुष्य विषयों में फँसकर बहिर्मुख हो गये हैं, इसलिये उनको बाह्य-विज्ञान की बातें ही समझ में आती हैं। यद्यपि ‘अंशु-बोधिनी’ ग्रन्थ भी विज्ञान का है, पर उसके भी आवश्यक है। अगर ऋषि संतान फिर से पुरुषार्थ करेगी और संध्या, देव पूजन आदि कर्मों को सच्ची श्रद्धा के साथ करने लगेगी, तो वह फिर ऋषियों की सी शक्ति प्राप्त कर सकेंगे और बड़े से बड़े वैज्ञानिक कार्यों को सहज में पूरा करके दिखा सकेंगे। इसके लिये गायत्री-उपासना सबसे महत्व की है। क्योंकि गायत्री माता ही शुद्ध बुद्धि की प्रदाता हैं। अगर मनुष्य उसके आदेशानुसार कर्म करे तो उसकी कृपा से ज्ञान-विज्ञान के बड़े से बड़े पद पर अवश्य पहुँच सकता है।


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