कंटकों को फूल कर दूँ (Kavita)

May 1958

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शान्ति के मादक स्वरों में क्यों न हाहाकार भर दूँ? सृष्टि के स्वर्णिम कलश में प्रलय का संहार भर दूँ?

आग भर दूँ कण्ठ में पिक के पिकी के गान छूटें। सभ्यता के जीर्ण तन पर क्यों न मैं अंगार धर दूँ?

रिक्त कर दूँ सागरों को ध्वंस सारे कूल कर दूँ। धूल को पर्वत बना दूँ, पर्वतों को धूल कर दूँ॥

क्रान्ति के जय घोष से मैं आज इन्द्रासन हिला दूँ। फूल को कंटक बना दूँ, कंटकों को फूल कर दूँ॥

तोड़ लाऊँ तारकों को, दिनकरों को चूर कर दूँ। और बसुधा को सुधाकर की सुधा से पूर कर दूँ॥

नील नभ के दिव्य उन्नत भाल को पल मात्र में ही। युग चरण पर सिर झुकाने के लिए मजबूर कर दूँ॥

नोंक से संगीन की इतिहास के अक्षर बदल दूँ। क्रान्ति के भैरव स्वरों में शान्ति के मृदु स्वर बदल दूँ॥

नियत की गति ही बदल दूँ, चन्द्र बदलूँ, सूर्य बदलूँ। यदि कहो तो विश्व का मैं आज विश्वम्भर बदल दूँ।


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