अध्यात्म ही एकमात्र सत्य धर्म है।

May 1958

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(स्वामी विवेकानन्दजी)

मैं पूर्व और पश्चिम के अनेक देशों में घूमा हूँ- संसार के सम्बन्ध में मैंने कुछ अनुभव प्राप्त किया है। मैंने देखा है कि सभी जातियों का एक-एक आदर्श है-वही उस जाति का मेरुदण्ड स्वरूप है। किसी-किसी जाति में राजनीति ही की प्रधानता है, कोई जाति सामाजिक उन्नति की ओर झुकी हुई है, और कोई मानसिक उन्नति में लगी है। किसी जाति में जातीय जीवन का आधार इन सबसे भिन्न कुछ और ही है। हमारे देश भारतवर्ष के जातीय जीवन का मूल आधार ‘धर्म’ है- एकमात्र धर्म है। यही हमारे जातीय जीवन का मेरुदण्ड है, इसी पर हमारा जातीय जीवन रूपी प्रासाद खड़ा है।

आज हजारों वर्षों से धर्म ही भारतीय जीवन का आदर्श रहा है। सैकड़ों शताब्दियों से भारत की वायु धर्म के महान् आदर्श से परिपूर्ण है, हम लोग इसी धर्म के आदर्श में पाले-पोसे गये हैं। इस समय यह धर्म भाव हमारे रक्त में मिल गया है, हम लोगों की धमनियों में रक्त के साथ प्रवाहित हो रहा है। वह हमारा स्वभाव-सा बन गया है, हमारे दैनिक जीवन का एक अंग-सा बन गया है। क्या तुम गंगा को उसके उद्गम स्थान हिमालय में वापिस ले जाकर उसे नये प्रवाह में प्रवाहित करने की इच्छा करते हो? अगर यह सम्भव भी हो, तो भी इस देश के लिये धार्मिक जीवन छोड़कर राजनीति अथवा और किसी प्रकार का जीवन अपनाना संभव नहीं। थोड़ी सी बाधा होने पर ही मनुष्य कार्य की ओर प्रेरित होता है- भारत के लिये धर्म ही वह बाधा हैं। इसी धर्म-पथ का अनुसरण करना ही भारत का जीवन है- यही भारत की उन्नति और उसके कल्याण का एकमात्र मार्ग है।

अन्य देशों में तो भिन्न-भिन्न आवश्यक वस्तुओं में से धर्म को भी एक वस्तु मान लिया जाता है। उदाहरणार्थ एक सम्पन्न परिवार के बैठने के कमरे में एक जापानी बर्तन रखना फैशन हो गया है। उसके न रहने से आगन्तुकों को कमरा अच्छा नहीं जान पड़ता। इसी प्रकार हमारे गृहस्थों के अनेक कार्य होते हैं, उनमें एक कार्य ‘धर्म’ भी होना आवश्यक है। इसी कारण उन्हें एकाध कार्य धर्म का भी करना चाहिये। संसार के अधिकाँश लोगों के जीवन का उद्देश्य राजनैतिक व सामाजिक उन्नति करना है। ईश्वर और धर्म भी उनके लिये साँसारिक सुविधायें प्रदान कराने वाली वस्तुएं हैं। तुमने क्या सुना नहीं है कि गत दो सौ वर्ष से अनेक विद्वान् कहलाने वाले-पर दरअसल मूर्ख-भारतवासियों के धर्म के विरुद्ध यही दलील दिया करते हैं कि उसके द्वारा साँसारिक सुख व स्वच्छन्दता प्राप्त करने की सुविधा नहीं होती, उसके द्वारा धन प्राप्ति नहीं होती, उसके द्वारा दूसरे दुर्बल लोगों का शोषण करने का अवसर नहीं मिलता। सचमुच हमारे धर्म में ऐसी सुविधाएँ नहीं हैं। इस धर्म में दूसरी जातियों को लूटने-खसोटने और उनका सर्वनाश करने के लिये भयंकर सेना भेजने की व्यवस्था नहीं है! इसीलिये ये विदेशी कहते हैं कि इस धर्म में क्या रखा है? उससे भविष्य के सुखोपभोग के लिये धन का भंडार संग्रह नहीं किया जा सकता, न उसके द्वारा नाशकारी शक्ति बढ़ाई जा सकती है, इसलिये इस धर्म में क्या रखा है? पर ये पाश्चात्य भावापन्न महानुभाव स्वप्न में भी नहीं सोचते कि इन्हीं के इन तर्कों द्वारा हमारे धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध होती है, क्योंकि हमारे धर्म का उद्देश्य साँसारिक सुविधाएं प्राप्त करना नहीं है, इसलिये एकमात्र वही सत् धर्म है। यह धर्म इस तीन दिन के चंचल इन्द्रिय जगत को ही हमारा चरम लक्ष्य नहीं बतलाता। कुछ हजार मील विस्तृत इस क्षुद्र पृथ्वी में ही हमारे धर्म की दृष्टि आबद्ध नहीं है। हमारा धर्म इस जगत की सीमा के बाहर-दूर, बहुत दूर पर दृष्टि डालता है। वह राज्य अतीन्द्रिय है। हमारा धर्म ही सत्य धर्म है, क्योंकि वह हमको उपदेश देता है- “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या”। हमारा धर्म कहता है कि कंचन लोष्ठवत् व धूल के समान है। संसार में चाहे जितनी क्षमता प्राप्त करो, सभी क्षणिक हैं। यही धर्म श्रेष्ठ है, क्योंकि सबसे ज्यादा यही त्याग की शिक्षा देता है। सैकड़ों युगों से संचित ज्ञान के बल पर दण्डायमान हो वह कल के छोकरों से गम्भीर तथा स्पष्ट भाषा में कहता है- “बच्चों, तुम इन्द्रियों के गुलाम हो, किन्तु इन्द्रियों के भोग अस्थायी हैं, विनाश ही उनका परिणाम है। इसलिये इन्द्रियों के सुख की वासना छोड़ो। यही धर्म प्राप्ति का उपाय है। त्याग ही हमारा चरम लक्ष्य है, वही मुक्ति का सोपान है, इसी कारण हमारा धर्म ही एक-मात्र सत्य धर्म है।

आजकल ‘योग्यतम का उज्जीवन’ (सरवाइवल आफ दी फिटेस्ट) के सिद्धान्त को लेकर अनेक लोग बहुत सी बातें कहते रहते हैं। उनका कहना है कि जिसमें जितनी अधिक शक्ति है वह उतने ही अधिक समय तक बचा रहेगा। अगर इस सिद्धान्त को सत्य मान लें तो प्राचीन काल की जो जातियों लड़ाई-झगड़े में ही समय बिताया करती थीं वह आज भी बड़े गौरव के साथ जीवित रहतीं, और हम लोग-यह कमजोर हिन्दू जाति-(मुझ से एक बार एक अँग्रेज रमणी ने कहा था कि हिन्दुओं ने क्या किया? उन्होंने तो एक भी जाति को कभी नहीं जीता) कभी के पृथ्वी तल से लुप्त हो गये होते। लेकिन जबकि अन्य सभी लड़ाकू जातियों का चिन्ह पृथ्वी तल से मिट चुका है यह हिन्दू जाति तीस करोड़ प्राणियों को लिये जीवित है। और यह कहना भी सत्य नहीं कि इस जाति की सारी शक्ति क्षय हो गई है अथवा इसके सारे अंग शिथिल हो गये हैं। इस जाति में अब भी काफी जीवनी शक्ति है और जब उपयुक्त समय आयेगा, वह जीवनी शक्ति महानदी की तरह प्रवाहित होने लगेगी। पश्चिमी देशों में सभी लोग यह चेष्टा करते है किस प्रकार वे और जातियों से बढ़कर धनवान बन सकते हैं। इसके विपरीत हम लोग सदैव इसी विषय पर विचार करते रहते हैं कि कितनी थोड़ी-सी सामग्री लेकर हम जीवन निर्वाह कर सकते हैं। दोनों जातियों में यही संघर्ष और भेद अब भी कई शताब्दियों तक चलेगा। लेकिन इतिहास में यदि कुछ भी सत्य का अंश हो, यदि वर्तमान चिन्हों को देखकर भविष्य का अनुमान करना जरा भी सम्भव हो, तो हम यह कह सकते हैं कि जो थोड़े-से में जीवन निर्वाह करेंगे और अच्छी तरह से आत्म-संयम का प्रयत्न करेंगे, वही संघर्ष में अन्त में विजयी होंगे। और जो लोग ऐश आराम तथा विलासिता की ओर झुक रहे हैं, वे कुछ देर के लिये भले ही तेजस्वी ओर बलवान जान पड़ें, पर अन्त में वे सर्वथा नष्ट हो जायेंगे।

पाश्चात्य देशों के बड़े से बड़े विद्वान और विचारक अब इस बात को अनुभव करने लगे हैं कि धन-ऐश्वर्य के लिये सिर तोड़ परिश्रम करना बिल्कुल व्यर्थ हैं। वहाँ के अनेक शिक्षित स्त्री-पुरुष अपनी वाणिज्य प्रधान सभ्यता की प्रतियोगिता, संघर्ष और पाशविकता से बड़े विरक्त हो गये हैं। इन लोगों ने समझ लिया है कि सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तन चाहे कितना ही क्यों न हों, इससे मनुष्य जाति दुःख और कष्टों से छुटकारा नहीं पा सकती। केवल आत्मा की उन्नति करने से ही सब प्रकार के दुःख और कष्ट दूर हो सकते हैं। चाहे कितना ही बल प्रयोग क्यों न हो, शासन-प्रणाली में कितना ही परिवर्तन क्यों न कर दिया जाय, कानूनों को चाहे कितना ही कड़ा क्यों न बना दिया जाय, पर इनसे किसी जाति की दशा वास्तविक रूप से नहीं सुधर सकती। केवल आध्यात्मिक और नैतिक शिक्षा ही लोगों की कुप्रवृत्तियों को बदल कर उन्हें सन्मार्ग पर ले जायेगी। इसलिये पश्चिम निवासी किसी नये भाव और नये दर्शन के लिये व्यग्र हो रहे हैं। वे लोग जिस धर्म के मानने वाले हैं, उस धर्म-ईसाई मत के सिद्धान्त उदार और सुन्दर होने पर भी वे उसका मर्म भली भाँति नहीं समझते। इतने दिनों से वे ईसाई धर्म को जिस रूप में समझते आये हैं, वह उन्हें अब पर्याप्त नहीं जान पड़ता। पाश्चात्य देशों के ये विचारशील लोग हम लोगों के प्राचीन दर्शनों में, विशेषकर हिन्दुओं के वेदान्त में ही इस प्रकार की आध्यात्मिक सामग्री को पाते हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं, क्योंकि ईसाई मुसलमान आदि सभी धर्मों का आधार किसी न किसी व्यक्ति धर्म-प्रचारक पर है, जब कि हिन्दू धर्म का आधार किसी व्यक्ति विशेष पर न होकर केवल जीवन के अनादि और अटल सिद्धान्तों पर ही स्थिर है।


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