अवतार और उसके कार्य

May 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री मेहर बाबा)

सचेतन अथवा अचेतन, प्रत्येक जीवित प्राणी केवल एक वस्तु की खोज करता है। नीची श्रेणी के जीवों में तथा कम विकसित मनुष्यों में, यह खोज अचेतन रूप से विकसित होती है और विकसित मनुष्यों में सचेतन रूप से। इस खोज की वस्तु को लोग अनेक नामों से सम्बोधित करते हैं, जैसे सुख, शाँति, स्वतन्त्रता, सत्य, प्रेम, पूर्णता, आत्मदर्शन, ईश्वर-प्राप्ति, ब्रह्म साक्षात्कार इत्यादि। इस खोज में एक विशेषता होती है, कि सभी को सुख के क्षण प्राप्त होते हैं, सत्य की झलक दिखलाई देती है और ईश्वर साक्षात्कार के क्षणिक अनुभव होते हैं। वे इन्हें स्थायी बनाना चाहते हैं। नित्य के परिवर्तन के बजाय एक स्थायी सत्य की स्थापना करना चाहते हैं।

यह एक स्वाभाविक इच्छा है। ईश्वर से प्राणी की जो तात्विक एकता है, उसी की स्मृति के आधार पर यह इच्छा उत्पन्न हुआ करती है। उक्त इच्छा स्वाभाविक इसलिए है, कि प्रत्येक जीव ईश्वर की ही आँशिक अभिव्यक्ति है, जो अपने स्वरूप के न जानने के कारण आबद्ध हो गया है। इसलिये विकास का एकमात्र तात्पर्य ‘अज्ञात ईश्वरत्व’ से ‘ज्ञात ईश्वरत्व’ की ओर अग्रसर होना है। इसमें एक ही नित्य और अविनाशी ईश्वर स्वयं विभिन्न रूपों को धारण करके नाना प्रकार के अनुभव का आस्वादन करता है और अनन्त सीमाओं को पार करके पुनः पूर्णता को प्राप्त करता है। इस विकासक्रम में जीव को अपने सीमित ज्ञान, सीमित शक्ति तथा आनन्द प्राप्त करने की सीमित योग्यता के कारण विश्राम एवं संघर्ष, सुख एवं दुख और प्रेम एवं घृणा का एक के बाद एक अनुभव होता रहता है। अन्त में पूर्ण मनुष्य में ईश्वर इन द्वन्द्वों को समतोल अवस्था में ला देता है जिससे अनित्यता के बीच नित्यता की स्थापना हो जाती है और ईश्वराँश अपनी ईश्वरता को जानने लग जाता है, उसे अपनी नित्यता का बोध हो जाता है और वह आत्म-ज्ञान के सर्वोत्कृष्ट आनन्द का स्थायी रूप से अनुभव करता है। यह ज्ञान जीवन के मध्य में ही प्रकट होना चाहिए और होता भी है, क्योंकि जीवन के मध्य में ही सीमा का अनुभव किया जा सकता है और उसका उल्लंघन भी किया जा सकता है और फलस्वरूप सीमातीत स्थिति या मुक्ति का आनन्द प्राप्त किया जा सकता है। इस प्रकार की मुक्ति तीन रूप धारण करती है। अधिकाँश ईश्वर प्राप्त पुरुष तुरन्त एवं सदा के लिए शरीर त्याग देते हैं और ईश्वर के अनन्त रूप में स्थायी रीति से निमग्न हो जाते हैं। उन्हें केवल मिलन के आनन्द का ज्ञान रहता है। उनके लिए सृष्टि का अस्तित्व नहीं रह जाता तथा उन्हें जन्म-मरण के अविश्राँत चक्कर से छुटकारा मिल जाता है। यह मुक्ति कहलाती है।

कोई ईश्वर प्राप्त पुरुष कुछ समय के लिए शरीर धारण किये रहते हैं, किंतु उनकी चेतना ईश्वर के अव्यक्त स्वरूप में पूर्णतः निमग्न हो जाती है, अतएव न तो उन्हें अपने शरीर का ज्ञान रहता है और न सृष्टि का ही। वे ईश्वर के अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द एवं अनन्त शक्ति का निरन्तर अनुभव करते हैं, किंतु ज्ञानपूर्वक इनका उपयोग सृष्टि में नहीं कर सकते हैं और न मुक्ति प्राप्त करने में दूसरों की सहायता ही कर सकते हैं, तो भी उनकी उपस्थिति ईश्वर के अनन्त ज्ञान, अनन्त शक्ति एवं अनन्त आनन्द के एकत्रीकरण और प्रसार के लिए, एक केन्द्र बिंदु की भाँति होती है। जो कोई उनके निकट जाते हैं, उनकी, सेवा, पूजा करते हैं, उनका आध्यात्मिक कल्याण होता है। ऐसे आत्मा ‘विदेह’ या ‘मझजूव’ कहे जाते हैं।

तीसरी प्रकार के ईश्वर प्राप्त पुरुष शरीर बनाये रखते हैं, तो भी ईश्वर के व्यक्त और अव्यक्त दोनों स्वरूपों में उनको अपने ईश्वरत्व का ज्ञान रहता है। वे जानते हैं कि वे नित्य दैवी तत्व भी हैं तथा अनन्त विभिन्न रूप भी हैं। वे अपने को, सृष्टि से पृथक ईश्वर अनुभव करते हैं। ऐसा ईश्वर जो समस्त सृष्टि का रचने वाला, पालक और संहारक है। साथ ही साथ वे अपने को ऐसा ईश्वर भी अनुभव करते हैं, जिसने सृष्टि की सीमाओं को स्वीकार किया है। वे ईश्वर का अनन्त ज्ञान, अनन्त आनन्द, अनन्त शाँति एवं अनंत शक्ति का निरन्तर अनुभव करते हैं। वे सृष्टि की दिव्य लीला का पूर्ण आनंद लाभ करते हैं। वे प्रत्येक वस्तु में अपने ईश्वर अनुभव करते हैं, अतः मुक्त आत्मा या सद्गुरु की हैसियत से वे प्रत्येक वस्तु की आध्यात्मिक सहायता कर सकते हैं और अन्य आत्माओं को ईश्वर दर्शन करा सकते हैं।

संसार में हमेशा अनेक सद्गुरु मौजूद रहते हैं। ज्ञान में वे सब एक होते हैं, पर कार्य उनके सदैव भिन्न रहते हैं। अधिकाँश भाग में वे जन साधारण से, लोगों से अलग और अज्ञात रहकर कार्य करते हैं। किन्तु पाँच सद्गुरु जो एक प्रकार से एक संचालक-संघ की भाँति काम करते हैं, सदैव सर्व साधारण के बीच रहकर काम करते हैं। अवतार-युग में, अवतार सर्वश्रेष्ठ सद्गुरु की हैसियत से, इस संघ तथा समस्त आध्यात्मिक परम्परा के रूप में अपना स्थान ग्रहण करता है।

अवतार भिन्न रूपों में, भिन्न नामों से, भिन्न समयों पर, विश्व के भिन्न भागों में प्रकट होता है। उसके आविर्भाव होते ही मनुष्यों की महान आध्यात्मिक प्रगति होने लगती है। अतः उसका जन्म ऐसे ही समय पर होता है, जिसमें मानवता भावी उन्नति अथवा विकास की किसी विशेष सीढ़ी पर चढ़ने के लिए प्रयत्नशील होती है और इसके फल से संसार में संघर्ष की वृद्धि हो जाती है। मनुष्य हमेशा की अपेक्षा अधिक इच्छा का दास हो जाता है, हमेशा से अधिक लोभ-ग्रस्त, भयत्रस्त तथा क्रोध-दग्ध बन जाता है। बलवान दुर्बल पर शासन करते हैं, धनवान निर्धन पर अत्याचार करते हैं, विशाल जन-समुदाय का शोषण उन थोड़े से लोगों के लाभ के लिए किया जाता है, जिनके हाथ में सत्ता होती है। कहीं भी शक्तियां विश्राम न पाकर व्यक्ति उत्तेजना और विलास में डूबकर अपने आपको भूल जाने का यत्न करता है। दुराचार बढ़ता है, अपराधों में वृद्धि होती है तथा धर्म का परिहास किया जाता है।

ऐसे समय में अवतार होता है। मानवीय रूप में ईश्वर की पूर्ण अभिव्यक्ति होने के सबब से, वह एक माप-दण्ड के तुल्य होता है, जिसके, उदाहरण से प्रत्येक व्यक्ति अपने को नाप सकता है। मानवीय उत्कृष्टताओं के आदर्श को वह दिव्य जीवन के दृष्टाँत द्वारा यथार्थ कर दिखाये है।

प्रत्येक वस्तु में उसकी रुचि होती है, पर किसी वस्तु से उसका लगाव नहीं होता। अत्यन्त छोटी दुर्घटना उसकी सहानुभूति प्राप्त करने के लिए पर्याप्त है, पर महान से महान शोक भी उसे विचलित नहीं कर सकता। दुःख और सुख, इच्छा और सन्तोष, विश्राम और संघर्ष, जीवन और मृत्यु के द्वन्द्वों से वह परे रहता है। उसके लिए ये ऐसे भ्रम हैं जिनसे वह मुक्त हो चुका है। वह जानता है कि मृत्यु से मनुष्य के अस्तित्व का अंत नहीं होता, अतः मृत्यु से उसे कोई मतलब नहीं। वह जानता है कि सृजन के पहले संहार होता है, यंत्रणा के गर्भ से शाँति और आनन्द का जन्म होता है, प्रयत्न के ही द्वारा, कर्म के बन्धनों से छुटकारा मिलता है। इन काम की बातों पर ही उसकी दृष्टि रहती है।

उसका कार्य केवल अपने समय के मनुष्यों के लिए ही नहीं होता, किन्तु भावी मानवता के लिए भी होता है। वह मानव जाति को जागृत कर उसके सच्चे आध्यात्मिक स्वभाव का ज्ञान कराता है। वह उन लोगों को मुक्ति दिलाता है जो उसके लिए तैयार रहते हैं। भावी मानव संसार के लिए वह अपना आदर्श छोड़ जाता है। उसका दिव्य मानवीय दृष्टाँत उसके तिरोहित हो जाने के बाद मानवता का पथ-प्रदर्शन करता है।

पृथ्वी पर दिव्य जीवन सभी मनुष्यों के लिए सम्भव है, वह अपने जीवन के उदाहरण के द्वारा यह सिद्ध कर देता है। इच्छा होने पर साहसी और सच्चे मनुष्य उसका अनुकरण करके मुक्ति-मार्ग पर अग्रसर हो सकते हैं।

ऐसा समय आजकल पृथ्वी पर दिखलाई पड़ रहा है। एक तरफ घोर संघर्ष छिड़ा है, तो दूसरी ओर सद्गुरु आध्यात्मिक चेतना को जाग्रत कर रहे हैं। जब मनुष्य अपने हृदय की गहराई से, धन की अपेक्षा किसी स्थायी वस्तु की इच्छा करेगा, भौतिकता की अपेक्षा किसी अधिक सत्य वस्तु की चाह करेगा, तब शाँति, आनन्द और प्रकाश का आगमन होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118