पशु-प्रवृत्तियों का परिष्कार कीजिये!

June 1958

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(श्री यादराम शर्मा, ‘रजेश’ एम. ए. बी. एड.)

डार्विन विकासवाद के अनुसार प्राणी पशुयोनि से विकसित होते-होते मनुष्य की श्रेणी तक पहुँचा है। हम भारतीय डार्विन के इस दार्शनिक सिद्धान्त में भले ही विश्वास न करें, किन्तु इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि हजारों लाखों सालों से मनुष्य और पशु एक दूसरे के संपर्क में रहते आये हैं। उन्होंने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है और परिणाम यह हुआ है कि पशुओं के स्वभाव में बहुत सी ‘मनुष्यता’ की बातें आ गई हैं तथा मनुष्यों ने पशुओं के अनेक दुर्गुणों को अपना लिया है। कुत्ता, घोड़ा इत्यादि पशुओं की स्वामि-भक्ति और आत्म-बलिदान की ऐसी सैकड़ों सच्ची कहानियाँ सुनने में आई हैं जिन पर अनेक मनुष्यों की मनुष्यता को निछावर किया जा सकता है। इसी प्रकार कभी-कभी मनुष्यों की दुष्टता, स्वार्थ-प्रवृत्ति और वासना-वृत्ति को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे तो पशु ही सौ गुने अच्छे हैं।

कहने का तात्पर्य यह है कि चाहे कारण कोई हो, मानव के मन में ऐसी अनेक पशु-प्रवृत्तियां प्रवेश कर गई हैं जिनका विश्लेषण बड़ा मनोरंजक और जिनका परिष्कार मानव जीवन के उत्थान के लिये बड़ा आवश्यक है। जिस व्यक्ति में जितनी अधिक पशु-प्रवृत्तियों का समावेश होगा, वह उतना ही अधिक मनुष्यता से गिरा हुआ समझा जायेगा और जिसने अपनी इन निम्नगा वृत्तियों का जितना अधिक परिष्कार कर लिया होगा, वह उतना ही महान् होगा। वेदान्त के अनुसार ‘अहं ब्रह्मास्मि’ कहने का अधिकार ऐसे ही महापुरुषों को होता है जो अपनी वृत्तियों का पूर्णतया शमन कर लेते हैं। एक उर्दू कवि ने कहा है :-

“इन्सान, फरिश्ता, खुदा आदमी की हैं हजार किस्में।”

केवल फरिश्ता या परमात्मा बनने के लिये ही पशु-प्रवृत्तियों का परिष्कार आवश्यक नहीं है-वह तो मानवता का चरम विकास है। सच्चा मनुष्य बनने के लिये भी परिष्कार की बड़ी आवश्यकता है। इसलिये आइये, इस बात का विवेचन करें कि कहीं हमारे स्वभाव और संस्कारों में तो पशु-प्रवृत्तियाँ प्रवेश नहीं कर गई हैं। यदि ऐसा हो तो हमें शीघ्र ही उनके परिष्कार का उपाय चाहिये। विलम्ब हो जाने पर अवसर हाथ से निकला जायेगा।

भेड़िया एक हिंसक पशु है। अपनी उदर-पूर्ति के लिये दूसरे जीव की हत्या कर डालना उसका स्वभाव है मनुष्य के रूप में भी अनेक भेड़िये पाये जाते हैं जो अपना पेट भरने के लिये दूसरे की गर्दन पर छुरी चलाने में नहीं हिचकिचाते! आप तो ऐसा नहीं करते हैं।

यदि आप दूसरे मनुष्य को देखकर मुँह सिकोड़ लेते हैं, गुर्राने लगते हैं, आँखें लाल कर लेते हैं। क्रोध में आकर उस पर झपट पड़ते हैं, गालियाँ देते हैं तथा गुत्थमगुत्था करने लगते हैं तो आप में और कुत्ते में कोई अन्तर नहीं है। दो आदमियों और कुत्तों की लड़ाई का चित्र अपनी कल्पना में लाइए। कितना विचित्र साम्य है दोनों की विकृत भावभंगियों और मनोविकारों के प्रदर्शन में!

बिल्ली के बारे में प्रसिद्ध है कि वह सदैव दूसरों को धोखा देने की ताक में रहती है। सोचती रहती है कि देखने वालों की निगाह बचे तो मैं कुछ झपट कर नौ-दो-ग्यारह हो जाऊँ । कहा जाता है कि बिल्ली मनाया करती है कि सामने वाले की आँखें फूट जायें ताकि कोई मुझे देखने वाला न रहे और मैं मनमानी कर सकूँ। अपने मन को कुरेदकर देखिए कहीं आप भी तो बिल्ली नहीं हैं?

किसी खेत के एक सिरे पर चरता हुआ साँड दूसरे सिरे पर किसी दूसरे साँड को देखकर जोर जोर से दहाड़ने लगता है। स्वयं चरना छोड़कर दूसरे को खेत से निकालने की चेष्टा में लग जाता है। कभी-कभी मामला बहुत बढ़ जाने पर दोनों साँड बेदम हो जाते हैं और जान तक से हाथ धो बैठते हैं। दूसरे यात्री को रेल के डिब्बे में चढ़ते देखकर आप तो पैर फैलाकर नहीं लेट जाते? अन्य स्वयं थोड़ा कष्ट उठाकर भी आप अपने सह-यात्रियों को बैठने का स्थान तो दे देते हैं? हाँ आपसे ऐसी ही आशा है क्योंकि आप साँड नहीं हैं, मनुष्य हैं!

चींटी के समान परिश्रम करके परिग्रह करना गृहस्थ जीवन में श्रेयस्कर है, किन्तु मधु-मक्खी के समान स्वयं उपभोग न करके केवल दूसरों के लिये संचय करना किसी दशा में अच्छा नहीं कहा जा सकता। ऐसी सूम-मनोवृत्ति आत्म के विकास के लिये बड़ी घातक है।

घोड़ा, घोड़ी को देखकर हिनहिनाने लगता है, रस्सा तोड़कर भागने का प्रयत्न करता है। उसके ऐसे कामुक स्वभाव की जितनी निन्दा की जाये थोड़ी है। किन्तु वह तो आखिर पशु ही ठहरा। बाजार में किसी महिला को देखकर आप तो आवाजें नहीं कसने लगते? आपका मन तो संयम और विवेक का रस्सा नहीं तुड़ाने लगता? आप तो पशु नहीं हैं?

एक साधु द्वारा बार-बार बिच्छु की रक्षा करने और बिच्छू द्वारा बार-बार डंक मारने की कहानी आपने सुनी होगी। आप साधु जैसा स्वभाव बना सकें तो बड़ी अच्छी बात है लेकिन देखना तो यह है कि कहीं आपका स्वभाव बिच्छू जैसा तो नहीं है?

ऊपर जो थोड़े से उदाहरण दिए गए हैं इन्हीं से मिलते-जुलते और भी बहुत से लक्षण इस ‘रोग‘ के पाए जाते हैं जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष और अभिमान की भावना को व्यक्त करते हैं। मनोविश्लेषण करके देखिए, कहीं आपको तो यह रोग नहीं लग गया है? यदि इसका एक भी लक्षण दिखाई दे तो तुरन्त अपनी मानसिक चिकित्सा कर डालिए अन्यथा आत्मा के दूषित होकर नष्ट हो जाने की सम्भावना है।

हमें दृढ़ विश्वास है कि आप अपने आपको कुत्ता, भेड़िया, घोड़ा, साँड, बिल्ली या बिच्छू नहीं कहलाना चाहते। आप तो मनुष्य हैं सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी। अशरफुलमखलूक!! राम, कृष्ण, गौतम, महावीर, ईसा, मुहम्मद और गाँधी के अनुगामी!!! अतः अपने आपको पहचानिये। पशु-प्रवृत्तियों का परिष्कार कीजिये, कल्पना कीजिए आप कितने महान हैं! आप ही जैसे दो हाथ और दो पैर वाले मनुष्यों ने आज संसार को क्या से क्या बना दिया है। आप भी मानवता के निर्माण में अपना योग-दान करने के लिए अपने चरित्र को ऊँचा उठाइए। विश्व के विकास के लिए, मानवता के उत्थान और उद्धार के लिए, अनन्त शक्ति के साथ एकाकार होने के लिए, मिथ्या आवरण को हटाकर आत्मस्वरूप का अनुभव कीजिए। कवि ने कहा है :-

“तू विवेकशील, पापहीन है पवित्र है, धैर्य, वीरता, प्रताप का सजीव चित्र है, तू अनन्त शक्ति है, अजेय है, महान है, क्या तुझे अभी नहीं हुआ स्वरूप ज्ञान?”

इतनी महानता के पात्र होते हुए भी यदि आपके मन में पशु-प्रवृत्तियों का प्रवेश हो गया है तो उसका एक मात्र कारण आपकी असावधानता, आलस्य और प्रमाद हैं। एक बार स्वाभिमानपूर्वक मुक्त आकाश में अपना सिर उठाइए और एक ही बार दृढ़ निश्चय में इन पशु-प्रवृत्तियों का परिष्कार कर डालिए।


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