योगी बिना खाये पिये किस प्रकार जीवित रहते हैं।

June 1958

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(प्रो. अवधूत, गोरेगाँव, बम्बई)

स्वामी रामकृष्ण जी ने लिखा है कि योगीजनों ने प्रकृति का भली प्रकार निरीक्षण करके बहुत सी विधियों का आविष्कार किया था। जिस प्रकार बहुत सी विद्याओं का अभ्यास प्रकृति को देखकर किया जाता है, उसी प्रकार योग-विद्या भी प्रकृति का अनुसरण करने से प्राप्त हुई है। मेंढक, साँप और कछुआ- इन प्राणियों के शरीर में कुछ स्वाभाविक शक्तियाँ होती हैं, उनका पूर्ण रूप से अवलोकन करके योगियों ने प्राणायाम करने और भोजन बिना जीवित रहने की विधि खोज निकाली थी। उन्होंने देखा कि मेंढक गर्मी के दिनों में कुछ नहीं खाता, साँप प्रायः हवा खाकर ही जीता रहता है और कछुआ आत्म-रक्षा के लिये अपने अवयवों को भीतर खींचकर चाहे जितने समय तक जीवित रहता है। जाड़े में मेंढक का शरीर लगभग मिट्टी में मिल जाता है और उसमें जीवित होने का कोई लक्षण दिखलाई नहीं पड़ता, पर वर्षा ऋतु आरम्भ होते ही वह सजीव हो जाता है। भूख का कष्ट न हो इसलिये योगियों ने मेंढक का अनुकरण किया, कछुआ की तरह अपना मन समस्त विषयों से खींचकर एकाग्र करने की विधि सीखी और इस प्रकार बहुत दिन तक बिना भोजन के रहने का उपाय मिल गया। कछुआ और साँप ये दो प्राणी बहुत धीरे-धीरे अथवा कई-कई घंटे साँस लेते हैं। इससे योगियों ने अपने श्वाँस से कुम्भक करने या प्राणायाम की विधि ढूँढ़ निकाली। उन्होंने यह भी विचार किया कि ये प्राणी थोड़ा खाते हैं, श्वाँस भी बहुत कम लेते हैं और बहुत समय तक जीवित भी रहते हैं, इसलिये उन्होंने उनका अनुकरण किया।

मि. जोशी नाम एक प्राणी शास्त्रवेत्ता था। उसने फूल लगाने वाले गमले में एक मेंढक को रखा। फिर इस गमले को सब तरफ से बन्द करके मिट्टी से लीप दिया और ऐसी व्यवस्था की कि जिससे उसमें हवा न जा सके। तब उस गमले को ऐसे स्थान पर रख दिया कि गरमी या ठण्ड से उस पर किसी प्रकार का असर न पड़े। कई वर्ष बाद उस गमले को खोलने से दिखलाई पड़ा कि वह मेंढक मरा नहीं था, वरन् खूब स्वस्थ दशा में जीवित था।

भारत में ऐसे अनेक योगी अब भी हैं, जो कितने ही वर्ष तक समाधि में रह सकते हैं। यद्यपि ऐसे योगी प्रायः जन-समूह से दूर हिमालय पर्वत के अगम्य स्थानों में रहते हैं, तो भी इस विद्या के जानने वाले अब भी देश में जहाँ-तहाँ मिल जाते हैं और योग का चमत्कार दिखा सकते हैं। इस सम्बन्ध में नीचे लिखा वृत्तान्त बम्बई के ‘किस्मत’ मासिक-पत्र में छपा था-

“स्वामी रामदास जी ने जिनका निवास स्थान बज्रेश्वरी, अनुसुइया कुँड पर है, शनिवार ता0 16 फरवरी, 1957 को संध्या के 6 बजे कालवादेवी रोड पर बने मंमादेवी के विशाल मैदान में अनेक प्रतिष्ठित नगर निवासियों तथा विशाल जन-समुदाय के समाने समाधि ली। समाधि के लिये खोदे गये गड्ढे और लकड़ी की बड़े बक्स का जनता में से कुछ लोगों ने विशेष रूप से निरीक्षण किया कि किसी जगह कोई शंका या चालाकी की बात तो नहीं है। इसके बाद ठीक 6 बजे स्वामी रामदास ने समाधि ली और तुरन्त ही उनको उस बक्स के भीतर रखकर गड्ढे में रख दिया गया और गड्ढे में मिट्टी भरकर ऊपर सीमेंट से पक्की चिनाई कर दी गई।

‘किस्मत’ के प्रतिनिधि ने यह समाधि सीमेंट से बन्द की जाती स्वयं देखी थी। उस समय वहाँ पर भक्तों की भीड़ लगी थी और लोग समाधि पर फूल, पैसा आदि बहुत बड़ी संख्या में चढ़ा रहे थे। समाधि के पास किसी प्रकार की अव्यवस्था या अनुचित कार्य न हो सके इसलिये पुलिस का पहरा भी लगा था।

“सोमवार ता. 18 को दोपहर के तीन बजे स्वामीजी समाधि से उठने वाले थे।” इसकी घोषणा पहले से कर दी गई थी, इसलिये लोगों की बहुत भारी भीड़ जमा हो गई थी। सैंकड़ों प्रतिष्ठित नागरिक और महिलाएँ भी थीं, जिनमें प्राँतीय काँग्रेस समिति के मन्त्री श्री भानुशंकर याज्ञिक तथा अन्य काँग्रेसी नेता भी मौजूद थे।

“नियत समय पर समाधि के ऊपर की पक्की चिनाई तोड़ी गई और गड्ढे की मिट्टी निकाल कर स्वामी जी को बाहर निकाला गया। इस समय लोगों में धक्कम धक्का ऐसे प्रचंड वेग से होने लगा कि उसे सँभालना पुलिस के लिये भी कठिन हो गया। तब स्वामी जी को एक खूब ऊँचे मंच पर बिठा दिया गया, जिससे सब कोई दूर से भी उनको भली प्रकार देख सकें। उस समय डॉक्टर पोपट ने स्वामी जी की नाड़ी देखी तो मालूम हुआ कि वह बराबर ठीक चल रही है। कुछ समय बाद स्वामी जी भली प्रकार स्वस्थ और सावधान हो गये। उनकी यह समाधि 45 घण्टे की थी।”

दूसरा उदाहरण श्री बालयोगी महाराज का है। इनका जन्म महाराष्ट्र के एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में हुआ था। ध्रुव की तरह से 10 वर्ष की आयु में ही श्री भुवनेश्वरी की प्रेरणा से हिमालय में तप करने चले गये थे। वहाँ इनको एक बहुत बड़े योगी गुरु मिल गये, जिन्होंने 11 वर्ष तक योग की भली प्रकार शिक्षा दी और तत्पश्चात् देश सेवा के लिये पुनः जनता के मध्य भेज दिया। ये बालयोगी जी जमीन में, जल में, अग्नि में समाधि लेकर अपने शरीर को सुरक्षित रख सकते हैं और देश के विभिन्न भागों में इन विद्याओं का प्रयोग करके उन्होंने लाखों व्यक्तियों को चकित कर दिया है। अब उन्होंने श्री भुवनेश्वरी देवी के पास रहकर योग-शास्त्र, तन्त्र-शास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष, धर्म-शास्त्र सम्बन्धी प्राचीन साहित्य का उद्धार करने के लिये प्रतिज्ञा की है। उनको भुवनेश्वरी विद्यापीठ की तरफ से ‘योग मार्तण्ड’ की उपाधि दी गई है।

आधुनिक समय के वैज्ञानिक, चमत्कारों और सिद्धियों पर किसी के कहने सुनने से विश्वास करने को तैयार नहीं होते। वे उनका विज्ञान सम्मत कारण बतलाने की माँग करते हैं। इस विषय में गहरा विचार करने से जान पड़ता है कि सभी जड़ पदार्थ वास्तव में तो चेतन से ही उत्पन्न हुये हैं, इसलिये यह मानना पड़ता है कि चेतन ही हमारे जीवन को बनाने वाला और रक्षा करने वाला है। हम जो भोजन करते हैं उसमें से खून बनता है और खून में से चेतन बनता है। इसके सिवाय शरीर को पृथ्वी, पानी, तेज, वायु और आकाश से भी स्वतन्त्र रूप से चेतन मिलता रहता है। यही चेतन शरीर का पोषण और रक्षा करता है। अगर भोजन में से चेतन न मिले और ऊपर बताये पाँच तत्वों में से चेतन मिलता रहे, तो शरीर का काम बिना खुराक के भी चल सकता है। रेडियो के ‘एरियल’ की तरह योगी लोग अपने कंठ-चक्र द्वारा सीधे उपर्युक्त पाँच मूल तत्वों से ही चेतन प्राप्त कर लेते हैं, इसी से वे बिना भोजन किये भी बहुत समय तक अपने शरीर को जीवित अवस्था में रख सकते हैं।


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