समाजवाद और यन्त्रों का प्रयोग

June 1958

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(श्री सत्यभक्त)

समाजवाद या साम्यवाद का सिद्धान्त अब तक दृष्टि से विश्वव्यापी बन चुका है और कुछ विरोधी पक्ष वालों को छोड़कर सभी न्यायशील व्यक्तियों ने उसकी सामयिकता तथा उपयोगिता को स्वीकार कर लिया है। पर इस बात में लोगों में जरूर मतभेद पाया जाता है कि समाजवाद की स्थापना किस विधि-से की जाय। इसी मतभेद के आधार पर भारतवर्ष में भी साम्यवादी (कम्यूनिस्ट) समाजवादी और प्रजा समाजवादी नाम से तीन पार्टियाँ बनी हुई हैं और अन्य देशों में और भी अनेकों पार्टियाँ पाई जाती हैं। ये मतभेद प्रायः दो विषयों से सम्बन्ध रखते हैं। प्रथम तो यह है कि राजनैतिक सत्ता किस प्रकार प्राप्त की जाय और दूसरा यह कि आर्थिक व्यवस्था का निर्माण किस आधार पर हो। पहली बात के सम्बन्ध में जहाँ कम्यूनिस्ट विशेष रूप से सशस्त्र क्राँति और हिंसात्मक उपायों पर जोर देते हैं, दूसरे दल वाले आन्दोलन, प्रचार कार्य और शिक्षा द्वारा जनमत को इस पक्ष में करना उचित मानते हैं। इसी प्रकार दूसरी बात के सम्बन्ध में जहाँ साम्यवादी और समाजवादी दोनों ही अधिक से अधिक यंत्रीकरण (मशीनों की वृद्धि) के पक्षपाती हैं, वहाँ दूसरे लोग ऐसे भी हैं जो समाजवाद के सिद्धान्त को पूर्ण रूप से स्वीकार करते हुये भी यंत्रों के अधिक प्रयोग को हानिकार मानते हैं। कुछ लोग ऐसे भी हैं जो पूर्णतया यंत्रों के बहिष्कार के पक्ष में हैं।

यंत्रों के पक्षपातियों का कहना है कि “यंत्रों द्वारा ही मनुष्य प्रकृति की गुलामी से छूट सका है और आगे चलकर साम्यवादी शासन में जब यंत्रों का अधिकार समाज को मिल जायगा तो मनुष्यों को इन यंत्रों की बदौलत बहुत थोड़े समय काम करने से जीवन निर्वाह के साधन प्राप्त हो जायेंगे और शेष समय को वह अपने बौद्धिक विकास और आमोद-प्रमोद में लगा सकेगा” इतना ही नहीं वे चाहते हैं कि यंत्रों में दिन पर दिन अधिकाधिक ऐसा सुधार किया जाय कि वे वर्तमान समय की अपेक्षा और भी तेजी से काम करने लगें और मनुष्य कम से कम परिश्रम करके उनके द्वारा अधिक माल तैयार कर सके। उनका कहना है कि “हो सकता है ऐसा समय आये जब संसार के सभी काम करने लायक मनुष्यों का एक घण्टे का श्रम ही उनके जीवन की सभी उपयोगी चीजें (जैसे खाना, कपड़ा, मकान, बाग, सड़क, विद्यालय, नाट्य यन्त्र आदि) प्राप्त कराने को पर्याप्त हो। वैसी दशा में आठ घण्टा सोने के लिये रख लेने पर भी बाकी 15 घण्टों में आदमी क्या करेगा? इस समय का उपयोग मनुष्य अपनी-अपनी रुचि के अनुसार साहित्य, संगीत और कला के निर्माण में या उसके रसास्वादन में कर सकेंगे। स्वास्थ्य और साहस के खेल तथा यात्राएँ कर सकेंगे। आकाश, भूमि और समुद्र की यात्राएँ क्या मनुष्य के लिये मनोरंजक और ज्ञान वर्धक न होंगी? मनुष्य, पशु, पक्षी तथा दूसरे छोटे-छोटे जन्तुओं के मनोविज्ञान का अनुसंधान या अध्ययन कर सकता है। दर्शन और विज्ञान सम्बन्धी खोजों में लग सकता है। चिकित्सा सम्बन्धी अभी तक हल न हो सकने वाली कितनी ही समस्याओं को हल कर सकता है। यात्राएँ, क्रीड़ा और नाट्य ऐसी चीजें हैं, जिनमें आदमी चाहे उतना समय दे सकता है।”

पर यह कल्पना बहुत युक्तियुक्त नहीं जान पड़ती। अन्य विचारकों का यह भी ख्याल है कि इस प्रकार जब मनुष्य श्रम से छुट्टी पा जायगा तो कुछ सौ वर्षों के भीतर उसमें अवश्य ही निष्क्रियता और आलस्य का भाव उत्पन्न हो जायगा तथा शारीरिक और मानसिक दृष्टि से उसका ह्रास हो जायगा। कुछ भी हो हमको यह मशीनों की गुलामी अधिक रुचिकर नहीं जान पड़ती और हमारा ख्याल है कि इस हद तक प्रकृति से अलग हो जाने का परिणाम मनुष्य के लिये कल्याणकारी नहीं हो सकता।

मशीनों के पक्षपातियों का यह कहना कि यदि मनुष्य यन्त्रों का प्रयोग छोड़ दे तो वह पुनः अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले हब्शियों या आस्ट्रेलिया के जंगलियों की सी हालत में पहुँच जायगा, कोरा शुष्क तर्क है। प्राचीन काल में भी अनेक समाजों ने बिना यन्त्रों के ऊँचे दर्जे की नैतिक, चारित्रिक उन्नति की थी, इसके प्रमाण मौजूद हैं। मिश्र, चीन आदि दूर देशों की बात छोड़ भी दें, तो हमारे ही देश में अशोक, विक्रम, भोज आदि शासकों के काल में बिना यन्त्रों के जिस उच्चकोटि की सभ्यता के प्रमाण हमको मिलते हैं उसकी तुलना हब्शियों या जंगलियों से कोई दुराग्रही ही कर सकता है। हमको तो यह स्पष्ट दिखलाई पड़ रहा है कि वैज्ञानिक आविष्कारों के फल से मनुष्य को उतना लाभ नहीं हो रहा है, जितनी कि हानि। इन आविष्कारों के कारण मनुष्यों के रहन-सहन में नकलीपन बहुत बढ़ गया, जिससे उसका स्वास्थ्य और सहनशक्ति घटती जाती है। जरा-जरा से परिवर्तनों के लिये उसे दवा का सहारा लेना पड़ता है और फिर भी रोगों की बढ़ती ही होती जाती है। कपड़े की मिलों द्वारा बेशुमार कपड़ा बनने का ही यह परिणाम है कि आज करोड़ों व्यक्ति बिना आवश्यकता के ही बनियान, कमीज, बास्कट, कोट, पतलून, टोपी आदि कई-कई वस्त्र सदैव लादे रहते हैं और अपने शरीर को सूर्य के जीवन प्रदायक प्रकाश और शीतल पवन के प्रफुल्लित करने वाले गुण से वंचित रखते हैं। इसी प्रकार चमड़े के कारबार की वृद्धि से मनुष्यों को हर समय जूता पहनने की आदत लग गई है और इसके फल से वे भूमि के स्वास्थ्यप्रद स्पर्श से वंचित रह जाते हैं। आवागमन के यन्त्रों की बहुलता से ही अनेक लोगों को पैदल घूमने-फिरने का अभ्यास नहीं रहा है जिसका उनके स्वास्थ्य पर घातक प्रभाव होता है।

वे लोग पढ़-लिखकर भी मूर्ख समझे जाने लायक हैं जो यन्त्रों द्वारा मनुष्य को इस प्रकार निर्बल और परावलम्बी बनते देखकर भी केवल राजनैतिक अथवा आर्थिक कारणों से यन्त्रों का समर्थन करते हैं। अगर आज संसार के विभिन्न देशों में शत्रुता बढ़ रही है, अथवा कुछ देश संसार भर पर अपना आर्थिक प्रभुत्व स्थापित करना चाहते हैं, तो ये सामयिक बातें हैं। यन्त्रों के विरोधी अगर सतयुग का सा समय लाने की अभिलाषा करते हैं तो उसका आशय यह नहीं कि आज ही तमाम लड़ाई के जहाजों, वायुयानों और रेलों को तोड़-फोड़ कर रख दो। पर इन चीजों का सामयिक आवश्यकता के लिये उपयोग करते हुये भी हम यह कह सकते हैं कि इनका प्रचार जान-बूझकर और अनावश्यक रूप से न बढ़ाया जाय और जनता के सामने आदर्श यही रखा जाय कि जिस कार्य में और जिस स्थान में यन्त्रों के बिना काम चल सके तो वैसा अवश्य किया जाय। उदाहरण के लिये अगर हाथ के करघे द्वारा कपड़ा बनाने से वह मिल के कपड़े की अपेक्षा ड्यौढ़े या दुगने भाव का पड़े, तो इसमें कोई ऐसी बात नहीं जिससे देश पर आपत्ति आती हो। बजाय इसके हाथ द्वारा काम करने से दुगुने-तिगुने लोगों को काम मिल सकेगा, लाखों व्यक्तियों की बेकारी दूर हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि इससे लोगों को कपड़ा महंगा मिलेगा तो वह भी ठीक नहीं, क्योंकि जैसा हम कह चुके हैं आजकल बहुसंख्यक व्यक्ति आधुनिक सभ्यता के नियमों से भ्रम में पड़कर आवश्यकता के अधिक वस्त्र काम में ला रहे हैं। भारत जैसी आबोहवा के देश में इससे बहुत कम वस्त्रों से काम चल सकता है और उस तरह का रहन-सहन स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हितकारी है। यही बात और भी बहुत से यन्त्रों के सम्बन्ध में कही जा सकती है।

हमारे कहने का यह भी आशय नहीं कि सब प्रकार के यंत्रों का पूर्ण रूप से त्याग कर दिया जाय यह कहना एक प्रकार की हठधर्मी या विवेकहीनता ही है कि या तो यंत्रों का प्रचार अधिक से अधिक बढ़ाओं या बिल्कुल ही त्याग दो। मनुष्य को अब इतना अनुभव हो चुका है कि वह निर्णय कर सके कि किस हद तक और किन प्रकार के यन्त्रों का प्रयोग मनुष्य के लिये हितकारी है और किस प्रकार का प्रयोग हानिकारक है। सच पूछा जाय तो आज-कल जिन यंत्रों का आविष्कार और प्रचार हो रहा है, उसमें सार्वजनिक हित का कोई ख्याल नहीं रखा जाता। आजकल इसका एकमात्र आधार पूँजीपतियों के नफा के ऊपर है। जिस चीज में उनको अधिक नफा मिलेगा उसी प्रकार के यंत्रों की वे उन्नति करने का प्रयत्न करेंगे, उसके लिये आविष्कार करने वालों को धन और प्रोत्साहन देंगे और पत्र-पत्रिकाओं, पुस्तकों द्वारा जनता का ध्यान उस ओर आकर्षित करेंगे। रिस्टवाच, फाउण्टेनपेन, बिजली का टार्च, बाइसिकल आदि कितनी ही चीजें ऐसी गिनाई जा सकती हैं, जिनका प्रचार पिछले पच्चीस-तीस वर्षों में ही अनेक गुना बढ़ गया है। पर कोई यह नहीं कह सकता कि कलाई में अधिक संख्या में घड़ी बाँधने के कारण लोग पहले से अधिक समय के पाबन्द हो गये हैं, अथवा फाउण्टेनपैनों की अधिकता से लोग अधिक विद्या-प्रेमी बनते जाते हैं। इन सब से बढ़कर मिसाल सिनेमा की है। सभी समाज हितैषी इसको विष तुल्य बतलाते हैं और वास्तव में इसके कारण कम उम्र के लड़कों का चारित्रिक पतन हो रहा है, पर यह दिन दूना बढ़ता जाता है। इस सब का आशय यही है कि यन्त्रों की तरक्की और प्रचार में इस समय जनता के हित का कोई प्रश्न नहीं है, उसमें मुख्य उद्देश्य पूँजीपतियों द्वारा धन कमाना ही है।

हमारे कथन का साराँश यही है कि यन्त्रों का प्रचार और उपयोग सर्वसाधारण के लिये विशेष हितकारी-नहीं है और अभी तो उससे लाभ के स्थान में हानि ही अधिक दिखलाई पड़ती है। इसलिये राजनैतिक और सामाजिक नेताओं का कर्तव्य है कि यन्त्रों के उपयोग को सीमित और नियन्त्रित करके मनुष्यों को जहाँ तक संभव हो शारीरिक श्रम और हाथ द्वारा कार्य करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा दें। भारतवर्ष जैसे बढ़ी हुई जनसंख्या के देश के लिये तो यन्त्रों का प्रयोग और भी बेकारी बढ़ाने वाला है। इसलिये यहाँ सहकारिता के सिद्धान्तानुसार दस्तकारी का प्रचार अधिक उपयोगी सिद्ध होगा। यदि यह कहा जाय कि जब चीजों के बनाने का कार्य यन्त्रों द्वारा अपेक्षाकृत थोड़े व्यक्तियों से हो सकता है, तो जान-बूझकर मानवीय शक्ति को बर्बाद करना कहाँ की बुद्धिमत्ता है? क्यों न उतने मनुष्यों को उपार्जन के किसी अन्य काम में लगाया जाय? इसका उत्तर यही है कि अगर हम नये-नये कारखाने खोलकर उन आदमियों से और सामग्री बनवायें तो फिर उसको बेचने के लिये विदेशों में बाजार ढूँढ़ने पड़ेंगे और इसी बात पर आज पश्चिमी राष्ट्र एक दूसरे का गला काटने पर उतारू हैं। फिर हमारी असली आवश्यकता तो अन्न की है सो भारतवर्ष की लगभग सभी काम लायक जमीन में खेती हो रही है। इस दस-पाँच वर्षों में लाखों एकड़ बंजर और ऊसर जमीन को भी तोड़कर खेती शुरू कर दी गई है। फिर भी लोगों की जमीन की भूख इतनी अधिक है कि दस-पाँच गज जमीन के लिये नित्य प्रति सर फूटते और खून होते रहते हैं। ऐसी हालत में मशीनों का अधिकाधिक प्रचार किसी तरह समाज के लिये कल्याणकारी नहीं हो सकता।


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