मानवता का आदर्श (Kavita)

June 1958

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रज-कणों के रूप मानव! उसी में उत्पत्ति, और समाप्ति जग के भूप मानव!

पंच तत्वों से बनी काया न कंचन-सी रहेगी, सिद्ध होगा साम्य का कटु सत्य जीव अनूप मानव! रज-कणों के रूप मानव!

मोह, माया, लोभ, लिप्सा में गया जीवन का आता, खोल अंतर्चक्षु, मानव! बन न दादुर कूप, मानव! रज-कणों के रूप मानव!

क्या हुआ यदि भाग्य है विपरीत, किसका दोष? अपना! छाँह शीतल कल द्रुमों की, आज मरु की धूप, मानव! रज-कणों के रूप मानव!

क्रोध, निद्रा, काम, चिन्ता में पुरुष! भूला डगर क्यों? वासुदेवमयी धरा है, चर-अचर तद्रूप, मानव! रज-कणों के रूप मानव!

ढूँढ़ता तू चर्च, मस्जिद, मन्दिरों में मूर्ख! किसको? मूक पशुओं, दीन-दुखियों में ‘प्रकाशस्वरूप’ मानव! रज-कणों के रूप मानव!

प्रार्थनाएँ हैं अनाथों की पुकारें श्रवण के हित, झोंपड़े असहाय के हैं वन्दना के स्तूप मानव! रज-कणों के रूप मानव!


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