सच्ची सभ्यता और इन्द्रिय संयम

June 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(महात्मा गाँधी)

सभ्यता का आचरण वह प्रणाली है जिससे मनुष्य अपने कर्तव्य का पालन करता है। कर्तव्य-पालन करने का तात्पर्य है नीति का पालन करना और नीति के पालन करने का अर्थ है अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखना। ऐसा करने से हम अपने आपको पहिचानते हैं। यही सभ्यता है और इससे विरुद्ध आचरण करना असभ्यता है।

बहुत से अँग्रेज लेखकों ने लिखा है कि ऊपर दी गई सभ्यता की व्याख्या के अनुसार भारतवर्ष को कुछ भी नहीं सीखना है। यह बात बिलकुल ठीक है। हम देखते हैं कि मनुष्य की वृत्तियाँ चंचल हैं, मन व्यर्थ इधर-उधर भटकता फिरता है। शरीर को हम जितना ज्यादा देते हैं, उतना ही ज्यादा वह माँगता है और ज्यादा लेकर भी वह सुखी नहीं होता। हम जितने ज्यादा भोग भोगते हैं, उतनी ही ज्यादा हमारी भोग की इच्छा बढ़ती जाती है। इसलिए हमारे पूर्वजों ने उसकी मर्यादा बाँध दी। उन्होंने बहुत विचार करके देख लिया कि सुख-दुख मन के कारण होते हैं। धनवान, धन के कारण सुखी नहीं और न गरीब, गरीबी के कारण दुखी हैं। धनी को दुखी देखा जाता है और गरीब भी सुखी मिलते हैं। करोड़ों लोग तो हमेशा गरीब ही रहने वाले हैं। यह देखकर हमारे पूर्वजों ने हमसे भोग की वासना छुड़वाई। हजारों वर्ष पहले जोतने का जो हल था उसी से हम ने अपना काम चलाया। हजारों वर्ष पहले हमारे जैसे झोंपड़े थे, उन्हीं को हमने कायम रखा। हजारों वर्ष पहले जैसी हमारी शिक्षा थी, वहीं चलती आई। हमने नाशकारी होड़ (कम्पटीशन) की पद्धति को अपने यहाँ स्थान नहीं दिया। सब अपना-अपना धन्धा करते रहे, उसमें उन्होंने दस्तूर के मुताबिक दाम लिए हमें यन्त्रों का आविष्कार करना नहीं आता था, ऐसी बात नहीं। लेकिन हमारे पूर्वजों ने देखा कि यन्त्रों वगैरह की झंझट में लोग फंसेंगे तो गुलाम ही बनेंगे और अपनी नैतिकता छोड़ देंगे। उन्होंने विचारपूर्वक कहा कि हम अपने हाथ-पैरों की मदद से जो कुछ कर सकें वहीं हमें करना चाहिए। हाथ-पैरों का उपयोग करने में ही सच्चा सुख है, उसी में तन्दुरुस्ती है।

उन्होंने सोचा कि बड़े-बड़े शहरों की स्थापना करना बेकार की मुसीबत मोल लेना है। उनमें लोग सुखी नहीं होंगे। उनमें चोर-डाकुओं के गिरोह पैदा होंगे और व्यभिचार व अनेक तरह की बुराइयाँ फैलेंगी। गरीब लोग धनियों द्वारा लूटे और चूसे जायेंगे। इसलिए उन्होंने छोटे-छोटे गाँवों से ही सन्तोष माना।

उन्होंने देखा कि राजाओं और उनकी तलवारों से नीति-बल ज्यादा बलवान है। इसलिए उन्होंने राजाओं को नीतिमान पुरुषों-ऋषि-मुनियों और साधु-सन्तों के बनिस्बत नीचा स्थान दिया।

जिस राष्ट्र का ऐसा विधान है वह दूसरों को सिखाने लायक है, दूसरों से सीखने लायक नहीं।

हमारे उस राष्ट्र में अदालतें थीं, वकील थे, वैद्य-डॉक्टर थे। लेकिन वे सब नियमों के बन्धन में थे। सब जानते थे कि ये धन्धे कोई बड़े नहीं हैं। इसके अलावा वकील, डॉक्टर, वैद्य वगैरह लोगों के मालिक बनकर नहीं रहते थे। इन्साफ ठीक-ठीक होता था। लोग सामान्यतया अदालतों में जाते ही न थे। लोगों को अदालतों का मोह लगाने वाले स्वार्थी मनुष्य तब नहीं थे। इतनी बुराई भी राजधानियों और उनके आस-पास ही दिखाई देती थी। साधारण लोग तो स्वतन्त्र रहकर अपना खेती का धन्धा करते थे। वे सच्चा स्वराज्य का उपभोग करते थे और जहाँ-जहाँ यह निकम्मी सभ्यता नहीं पहुँची है वहाँ हिन्दुस्तान आज भी इस तरह का देखा जा सकता है। वहाँ के लोगों के सामने आप नये ढंगों की बात करेंगे तो वे इनका मजाक उड़ायेंगे। यह सत्य है कि ऐसे आधुनिक आवागमन के साधनों रेल, मोटर आदि से दूर भू भाग आधुनिक सभ्यता वालों को पिछड़े हुए जान पड़ते हैं, पर सत्य बात यही है कि जिनको देश भक्त या जन-सेवक बनना हो, उनको पहले एक वर्ष ऐसे स्थानों में ही जाकर रहना चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles