शास्त्र झूँठे नहीं हैं- समझने वाले झूँठे हैं।

June 1958

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री वी. एस. शाह, बम्बई)

शास्त्र कहते हैं कि आत्मा पर अनेक जन्मों के कर्म-संस्कार वज्रलेप के समान चिपक गये हैं। इसलिये जब हम दीर्घ काल तक तप-जप व्रत-नियम-ध्यान आदि उपाय करते रहें तो अनेक जन्मों के पश्चात मुक्ति मिल सकती है।

बिल्कुल ठीक बात है। पर हमने उसको उल्टा समझा है। पामर मनुष्यों के हाथ में शास्त्रों के पड़ जाने से वे उल्टा ही समझा सके हैं। जो लोग गृहस्थ आश्रम में रहकर अपना निर्वाह भी नहीं कर सकते थे, जिनमें इसके लायक भी ज्ञान और शक्ति नहीं थी, वे ही एकाएक दुनिया को मुक्ति दिलाने वाले बन बैठे और हम भोले-भाले खच्चर! साधु कौन? वैराग्य क्या चीज? दया क्या? मुक्ति क्या? जिन्दगी क्या? इन बातों पर कुछ भी विचार किये बिना, इस कल्पित वैराग्य वालों की मार्फत कल्पित मोक्ष पाने के लिये दौड़ धूप करने लगे। हम अपने इस जीवन को भी भूल गये, अपनी सामान्य बुद्धि-सीधीसादी समझ-को भी गिरवी रख आये। हम इतने मूर्ख बन गये, कि जिनसे सेका हुआ पापड़ भी न तोड़ा जा सके उनसे पहाड़ तोड़ने की आशा करने लगे और वह भी केवल वैराग्य-मोक्ष-परलोक आदि थोथे शब्दों में फँसकर। और हमारी हम मूर्खता का भरपूर लाभ उठाया भिखारियों और श्रीमन्तों ने। भिखारियों को ऐश आराम से जीवन-निर्वाह की आवश्यकता थी और श्रीमन्तों को अपने लिये हथियार बनने वाले मनुष्यों की जरूरत थी। श्रीमन्तों ने इन भिखारियों को साधु-महात्मा के पद पर स्थापित करके और उनके द्वारा मोक्ष, परलोक, वैराग्य का जाल बिछाकर लोगों की रही-सही इच्छा शक्ति को भी निर्बल कर डाला। यह इसलिये कि श्रीमन्त धर्म-धुरन्धर बनकर साधारण लोगों पर बिना तकलीफ के अपनी सत्ता जमा सकें और सत्ता के साथ-साथ गुचपुच आर्थिक लाभ भी उठाते रहें।

यह गंदा खेल मैंने सूक्ष्मता से देखा है। अगर कोई देवता भी आकर मुझसे कहे कि ‘तेरी शंका झूँठ है’- तो मैं उससे कहूँगा कि ‘शैतान! चला जा। किसी गँवार से जाकर बातें कर। मेरी आँखों से देखा हुआ, मेरी बुद्धि से देखा हुआ, मेरे चित्त से अनुभव किया हुआ- उसे झूँठा बतलाने की जो हिम्मत करेगा उसकी बात सुनने की कल्पना तो दूर रही उसे मैं यों ही चला जाने दूँ यह भी मेरे लिये कमजोरी की बात है। उसको तो मैं दो तमाचा मारे बिना जाने ही न दूँगा।” समस्त पाखण्ड श्रीमन्तों के ही हैं, और भिखारी लोग उनके हथियार हैं। सामान्य जन उनके जाल में फँसने वाली मछलियाँ हैं। ये धूर्त वैराग्य हैं? वैराग्य की जो व्याख्या वे करते हैं उनमें से एक में भी वह मिल सकता है? वैराग्य है क्या चीज? मुझे धर्म गुरुओं और धर्म नायक रूप श्रीमन्तों से विराग उत्पन्न हुआ है और वह सच्चा विराग है। वह कैसे उत्पन्न हुआ? मैंने बहुत वर्षों तक उनका अनुभव किया, उनके अन्तःकरण के एक-एक कोने को काट-कूट कर देखा। मुझे उसमें मल भरा हुआ मिला। मल से किसको घृणा नहीं होती? इसी घृणा से मुझ में विराग उत्पन्न हो गया। इसी प्रकार अगर आप संसार की हर एक चीज को काट-छाँट कर उसकी जाँच करो तो फिर उन पर मोह नहीं रह सकता। पर उस चीज का साथ किये बिना, उसकी काट-छाँट किये बिना, उसकी जाँच करने का अवसर प्राप्त किये बिना उसका मोह कैसे छूटेगा? धन को देखा, सेवन किया, अनुभव किया, इसके बिना धन से विराग कैसे हो सकता हैं? फिर भी, विराग होने पर भी उसका सम्बन्ध बना रह सकता है। मुझे साधुओं और श्रीमन्तों से विराग हो गया, तो क्या अब मैं जीवन भर किसी साधु या श्रीमन्त से मिलूँगा ही नहीं? ऐसा नहीं हो सकता, मेरी इच्छा हो अथवा न हो पर इनमें से किसी न किसी व्यक्ति के साथ अच्छा या बुरा प्रसंग आ ही जायगा। पर अन्तर यह होगा कि अब मैं बदले हुये मन से इस प्रकार के प्रसंग को सहन करूंगा। एक कीड़ा-जहरीले कीड़ा के साथ काम पड़ गया है, ऐसी मनोवृत्ति रखकर उनसे व्यवहार करूंगा। यही विराग है। इन पर मेरा मोह नहीं हो सकता, और उनका स्पष्ट तिरस्कार भी मैं नहीं करूंगा। केवल मेरा मन उनके वास्तविक स्वरूप को जानकर सावधानी से व्यवहार करे, इतनी ही बात है।

इस प्रकार के विराग का अर्थ है मानसिक गुलामी से छुटकारा। साधु लोग जिन्दगी को पाप रूप मानते हैं, पर क्या इस विचार से वे आत्महत्या कर लेते हैं? भोजन को पाप रूप मानने से क्या जीवन भर भूखे रहते हैं? ऐसे अवसर पर वे यही कहते हैं कि जिन्दगी की व्यर्थता को समझ लिया, इससे अब इस पर मोह नहीं हो सकता। आहार के स्वाद की व्यर्थता देख ली, अब खाते तो हैं, पर स्वाद के मोह में फँसे बिना। अगर भोजन हितकर जान पड़ेगा तो खायेंगे, और हानिकारक जान पड़ा तो बिना गाली दिये उसे त्याग देंगे। गाली देना और बात है और किसी चीज के मोह से छूट जाना दूसरी बात है। मोह से छूटने के लिये गालियाँ देने की कोई आवश्यकता नहीं है। और मोह कब छूट सकता है? मोह तभी छूटेगा जब उस वस्तु के गन्देपन को, निकम्मेपन को अनुभव कर लिया जायगा। इन भिखारियों को धन का, जीवन का, सत्ता का अनुभव ही कब हुआ, जिससे उनका मोह छूट सके? और वैराग्य हो सके? इतना ही नहीं वे तो मुफ्त में धन, सत्ता, जीवन का उपभोग करते हैं। दूसरे के श्रम के ऊपर। बिना श्रम का जीवन, और बिना मेहनत की प्राप्ति- यही इस समय भारतीय मानस का भयंकर से भयंकर रोग है। प्रायः हर एक मनुष्य में यह रोग पाया जाता है। एक पुस्तक कैसी भी उत्तम हो, उसके विचार तुमको कैसे भी पसन्द आये हों, उसके लेखक के प्रति तुम्हारी कैसी भी सम्मान की भावना हो, तो भी तुम उस पुस्तक को मुफ्त में प्राप्त करने या कम से कम मुफ्त में पढ़ने की इच्छा तो जरूर करोगे। शेयर, सट्टा आदि का धन्धा बगैर मेहनत के धन पाने की इच्छा नहीं तो और क्या है? इससे क्या प्रकट होता है? भिक्षुक-मानस! भिखारी-पन का स्वभाव!! गुलाम की गुलामी की आदत!!! योरोप में दो सगे भाई भी एक ही समाचारपत्र की दो अलग-अलग प्रतियाँ खरीदते हैं। पुस्तक को मुफ्त में या उधार लेने की बात तो दूर रही, अगर लेखक मित्र हुआ उसने एक प्रति भेंट स्वरूप भेज दी, तो वे ऐसा समझते हैं कि मित्र को दस गुना या सौ गुना लाभ पहुँचाने की जिम्मेदारी मेरे सर पर आ गई। किसी मित्र या स्नेही के यहाँ निमंत्रण खाने जाना पड़े तो उसके बच्चे के लिये कुछ न कुछ भेंट लिये बिना कभी नहीं जायेंगे। बड़े दिन के त्यौहार पर, अपनी जन्मगाँठ के अवसर पर, मित्र की जन्म गाँठ के दिन, कोई न कोई भेंट भेजे बिना नहीं रहेंगे, फिर चाहे वे स्वयं कैसे भी गरीब क्यों न हों। उन लोगों के मन हमारे जैसे ‘भिखारीपन’ के नहीं होते।

जो लोग शास्त्र के वास्तविक तत्व को न पकड़ कर बाहरी उछलकूद और भ्रमों में पड़े रहने का ही आग्रह करते हैं, वे स्वयं धर्म से विमुख रहते हैं और दूसरों को भी वैसा ही बनाते हैं। अगर उनकी यह प्रवृत्ति ऐसे ही चलती रही, तो एक दिन ऐसा आयेगा जब कि समस्त भारतवासी ‘धर्म’ को पूर्णतः त्याग देंगे। क्या ‘धर्मात्मा’ कहलाने वाले इसको पसन्द करेंगे? क्या यह स्थिति अच्छी समझी जा सकती है? यदि नहीं, तो धर्म के बाहरी ढोंग को छोड़कर शास्त्र के वास्तविक आशय पर चलना सीखो।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118