रसायन विद्या और गायत्री-मंत्र

June 1958

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(डॉ. महावीरप्रसाद, पटना )

हमारे देश में जब तक गायत्री-मन्त्र का ठोस रूप से जप, तप, ध्यान, ज्ञान तथा इस मन्त्र के प्रति अध्ययन, स्वाध्याय तथा प्रचार आदि होता रहा तब तक रसायन विद्या का भी अस्तित्व ठोस रूप से बना रहा। जिस प्रकार से आज लोग गायत्रीमन्त्र के महत्व से अनभिज्ञ होकर इसके अनेकानेक रहस्यमय अर्थों को केवल इस मन्त्र के नाममात्र से परिचित रह गये हैं, उसी प्रकार से वे रसायन विद्या को भूलकर केवल इसके नाम से परिचित रह गये हैं।

आज यदि किसी व्यक्ति को रसायन सोना बनाना आ जाये तो आश्चर्य नहीं कि वह अपने शेष कर्तव्य को भी भूलकर केवल रसायन बनाने और मौज उड़ाने में ही तल्लीन हो जायगा। प्रायः मुझे देखने का मौका मिलता रहा है कि जहाँ कोई साधु आ गया और उसके बारे में यह प्रचार हो गया कि वह रसायन बनाना जानता है, बस फिर क्या, चारों ओर से रसायन प्रेमी लोग (आश्चर्य नहीं कि इनमें अधिक संख्या उन आलसियों की रहती है जो परिश्रम से धनोपार्जन कर पेट पालना भी नहीं चाहते)आकर सच्चे भक्त का ढोंग कर ‘सोना’ बनाना सिखलाने के लिए विनय करेंगे। शायद ही कोई भगवान की प्राप्ति का रास्ता पूछता होगा। यह आज के देश की दशा है। रसायन विद्या भगवान के भक्तों की चीज है। भगवान का भक्त कैसा होता हैं? यह सभी जानते हैं। संसार की सारी दौलत भी उसके सामने रख दी जाये तो भी वह उसे मिट्टी समझता है। ऐसा तो वह निर्लोभी होता है। उसे तो ‘भगवान’ चाहिए ‘सोना’ नहीं।

(इस सम्बन्ध में हमको श्री रामकृष्ण परमहंस के योग विद्या के गुरु स्वामी तोता गिरि (नागा साधुओं के महन्त) की बात याद आती है। उन्होंने एक समय बातचीत करते हुए परमहँसजी को बतलाया था कि उनके मठ में (जो पंजाब में था) प्रधान महन्त को सोना बनाने की विद्या आती है जो वह अन्तिम समय अपने प्रधान चेले (यानी महन्त) को बतला देता है। पर इसके द्वारा साधारणतः कभी सोना बनाया नहीं जाता। केवल ऐसा अवसर उपस्थित होने पर कि जब कुम्भ आदि के समय साधुओं का बहुत बड़ा समुदाय इकट्ठा हो और उसके व्यय की व्यवस्था न हो सके, तो इस विधि से सोना बनाकर काम चलाया जा सकता है।

रसायन विद्या की सत्यता का वर्णन करते हुए गायत्री-मन्त्र का उल्लेख इसलिए कर रहा हूँ कि इस गायत्री-मन्त्र का रस-शास्त्र के आधार पर अपना अलग अर्थ भी होता है। जिस पर गायत्री माता की महान कृपा हो जाती है वह इसके रासायनिक सम्बन्धी अर्थ को भी जान सकता है। माता जरूर उसकी बुद्धि को विकसित कर उसे रासायनिक अर्थ को समझने में प्रेरणा देंगी। गायत्री-मन्त्र के 24 अक्षरों में सभी तरह के ज्ञान-विज्ञान छिपे हैं। सोना आदि बहुमूल्य धातुओं का बनाना तो एक साधारण बात है। राक्षसराज रावण गायत्री का सफल उपासक था। दक्षिण मार्गी तथा वाम मार्गी, ताँत्रिक विद्या तथा रस-शास्त्र का तो वह पण्डित था। अपने रस-शास्त्र के ज्ञान के कारण ही उसने सारे लंका को सोने का बना दिया था। वह अपने नाभि में अमृत रखता था। यह कथन एक अलंकारिक अर्थ रखता है। अर्थात् वह अपने समय का एक भारी वैद्य यानी एक दूसरा ‘धन्वन्तरी’ ही था। धन्वन्तरी अपने हाथ में अमृत लेकर समुद्र से निकले थे और वह अपने नाभि में ही अमृत रखता था।

गायत्री-मन्त्र के रासायनिक-अर्थ को समझने के लिए सर्वप्रथम गायत्री माता के असीम प्रेम को प्राप्त करना होगा, तभी कुछ सफलता मिल सकती है, फिर भी माता की कृपा से जो अनुभव मुझे मिला है वह केवल इशारा मात्र है। जिस प्रकार से भगवान अनेक रूप होकर भी ‘एक’ है और एक होकर भी अनेक हो जाते हैं, उसी प्रकार से ‘पारा’ भी अनेक खण्ड होकर भी एक हो जाता है और एक खण्ड से अनेक हो जाता है। रस-शास्त्र के आधार पर ‘पारा’ को साकार परमात्मा मानना होगा। भगवान सर्वशक्तिवान है। ‘पारा’ से भी बढ़कर कोई धातु सर्व शक्तिमान नहीं है। गायत्री-मन्त्र में ‘पारा’ के लिए ‘भर्ग’ शब्द रासायनिक अर्थ रखते हैं। जिस प्रकार भगवान को प्राप्त करने के बाद कोई इच्छा का अभाव नहीं रहता उसी प्रकार ‘पारा’ सिद्ध कर लेने पर किसी भी साँसारिक चीजों का अभाव नहीं रहता।

अब रसायन विद्या की सत्यता पर कुछ समाचार पत्रिकाओं द्वारा प्राप्त किए हुए प्रमाणों को यहाँ पर उल्लेख कर रहा हूँ :-

पहली बार जेठ शुक्ला 1 वि. सं. 1998 ता. 27 मई सन् 1941 बिड़ला हाउस नई दिल्ली में पंजाब निवासी श्री पं0 कृष्णपाल शर्मा ने 1 तोला पारा से 1 तोला ‘सोना’ लोगों के समक्ष बनाकर दिखलाया था। दर्शकों में श्री अमृतराय बी0 ठक्कर, प्रधान मन्त्री अ॰ भा0 हरिजन सेवक संघ, श्री गो0 गनेशदत्तजी, बिड़ला मिल दिल्ली के सेक्रेटरी श्री सीता-रामजी खेमका, चीफ इंजीनियर श्री विल्सन और श्री वियोगी हरि उपस्थित थे।

दूसरी बार चैत्र मास वि. सं. 1999 ऋषिकेश में उक्त शर्मा जी ने ढाई सेर पारद को आधा घण्टे में ‘सोना’ बना डाला था। दर्शकों में उस समय महात्मा गाँधी के मंत्री स्व. श्री महादेव देसाई, श्री गो. गनेशदत्त तथा श्री युगलकिशोर बिड़ला थे। शर्मा जी को यह विद्या एक साधु ने बतलाई थी। किन्तु उनकी दृष्टि में कोई सुपात्र व्यक्ति न मिलने के कारण उन्होंने यह विद्या किसी को नहीं बतलाई।

यद्यपि यह रहस्य इस वर्तमान समय में लुप्त प्रायः सा हो गया है तथापि इस समय भी इस विद्या को जानने वाले भारतवर्ष में कोई-कोई हैं। मेरे पास भी रसायन सम्बन्धी नुस्खे, इधर-उधर से आते रहते हैं। कभी-कभी तो इस सम्बन्ध में पुस्तकें भी पढ़ने को मिल जाती हैं। पर ये नुस्खे साधारण मनुष्यों के लिए उपयोगी नहीं हो सकते, क्योंकि रसायन की धातुओं और जड़ी-बूटियों को ठीक-ठीक आँच लगाकर फूँक सकना बड़ा कठिन कार्य है, जो बिना सीखे अपने आप नहीं आ सकता। फिर पारा एक ऐसी धातु है जो आग लगने पर तुरन्त उड़ जाती है। इसलिए इस सम्बन्ध में जो नुस्खे लिखे जाते हैं या बतलाये जाते हैं वे लोगों का कौतूहल शाँत करने के लिए ही समझने चाहिए और हमारा यही आग्रह है कि ऐसे नुस्खों को पढ़कर कोई व्यक्ति अपने आप ‘रसायन’ सिद्ध करने का विचार न कर बैठे। रसायन खिलवाड़ नहीं है, जो परिश्रम करके वर्षों तक प्रयत्न करेगा वही थोड़ा बहुत इसके मर्म को जान सकता है। वैसे एक औलिया साहब ने हमको एक नुस्खा बतलाया था, जिसके विषय में उनका कहना था कि जो भाग्यशाली इसे बनाने में परिश्रम करेगा और आँच का ठीक-ठीक हिसाब रख सकेगा वह असफल नहीं हो सकता। नुस्खा इस प्रकार है :-

हरताल बरकिया की 2-2 तोला की 4 डेलियाँ ले, उनको नीचे ऊपर आक के चार-चार पत्ते लगाकर लोहे के पतले तार से भली प्रकार बाँधकर या सीकर एक बालिश्त भर लम्बे, चौड़े गड्ढे में रखकर बकरियों की मैंगनी की अग्नि में पकालें। पत्ते जलने के पहले उसे बाहर निकाल लें और हरताल की गरम-गरम डेलियों को नमक के पानी में डाल कर बुझा दें। फिर इन डेलियों को पूर्ववत् आक के पत्तों में सीकर अग्नि में पकावें। इस प्रकार 100 बार अग्नि में पकाने से जो चीज बनेगी उससे ताँबा को सोना बनाने में सहायता मिलेगी।

इस प्रकार और भी अनेक नुस्खे हैं जो रसायन सिद्ध करने वाले बतलाये जाते हैं। पर कार्य में तब तक सफलता मिल सकना सम्भव नहीं जब तक कोई जानकार व्यक्ति ठीक-ठीक विधि करके न दिखला देवे।


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