‘जो जस करहि सो तस फल चाखा’

June 1958

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(श्री ज्वालाप्रसादजी, एम. ए.)

मनुष्य अपने किये भले अथवा बुरे कर्मों का फल अवश्य पाता है, यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसकी सचाई से संसार का कोई व्यक्ति इनकार न कर सकेगा। आस्तिक जन तो परमात्मा को शुभ और अशुभ कर्मों का फल-प्रदाता मानते ही हैं, पर नास्तिक भी, अगर उसके भीतर विवेक और बुद्धि का अंश है तो, इस बात से इनकार नहीं कर सकता कि हम जैसा बीज बोयेंगे वैसा ही फल पायेंगे। जैसा आचरण करेंगे वैसा ही नतीजा भी मिलेगा।

इस प्रकार कर्म फल के सम्बन्ध में दो प्रकार के सिद्धान्त प्रचलित हैं। एक तो यह कि मनुष्य के कर्म एक भाग्य की पुस्तक में लिखे जाते हैं। इस्लाम, पारसी व ईसाई मजहब के अनुसार दो फरिश्ते मनुष्य के साथ रहकर उसके कर्म लिखते रहते हैं। दूसरा सिद्धाँत यह है कि मनुष्य के कर्मों का प्रभाव उसके मन के ऊपर पड़ता है और इससे मन में जो परिवर्तन होता है उसी का नाम संस्कार हैं। इस प्रकार मनुष्य का प्रत्येक कार्य ही संस्कार के रूप में अंकित हो जाता है। यह सिद्धान्त जैन, बुद्ध और सिक्ख धर्म में पाया जाता है। हिन्दू धर्म में दोनों प्रकार के सिद्धान्त माननीय हैं। एक के अनुसार कर्म फल देने वाले देवता यानी यमराज के यहाँ भाग्य की पुस्तक में सब मनुष्यों के कर्म लिखे जाते हैं। मृत्यु के बाद जब मनुष्य यमराज के सामने जाता है तो उसी लेखे के अनुसार वे उसका न्याय करते हैं और कर्मानुसार नरक या स्वर्ग देते हैं। परन्तु इससे अधिक मान्य यह सिद्धाँत समझा जाता है कि प्रत्येक कर्म का फल किसी न किसी प्रकार का संस्कार और मनुष्य का अगला जीवन उसी संस्कार के अनुसार होता है।

नर्क और स्वर्ग का सिद्धाँत प्रायः सभी प्राचीन मजहबों में पाया जाता है। इनमें से पहला लोक सुन्दर, लाभदायक, तेजोमय शक्तियों या देवताओं के निवास-स्थान स्वर्ग के रूप में और दूसरा भयानक क्रूर, कष्टदायक शक्तियों के निवास-स्थान नर्क के रूप में माना जाता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि अच्छे या बुरे काम करने वालों को अपने अपने कर्मों का फल भोगने के लिए इन लोकों में जाना पड़ता है। इस जन्म में ही सबको अपने पापों या पुण्यों का फल मिल जाता हो ऐसी बात नहीं। अनेक पापी सुखी जीवन व्यतीत करते दिखलाई देते हैं और अनेक सज्जन पुरुष बड़े-बड़े कष्ट सहते हैं। यदि कर्मों की यह शृंखला यही समाप्त मानली जाय तो यह बड़ा अन्याय होगा। इसलिए विचारकों ने इस जीवन के बाद एक दूसरे जीवन की कल्पना की जिसमें यहाँ की त्रुटियाँ पूरी हो सकें। उस अगले जीवन में मनुष्य अपने कर्म के अनुसार नर्क या स्वर्ग में जाता है।

संस्कार के सिद्धान्त को मानने वालों का कहना है कि स्वर्ग या नर्क लोक कोई दूसरे नहीं हैं, इसी संसार में दुःख और सुख प्राप्त करना ही नर्क और स्वर्ग हैं। संसार में ही अनेक प्रकार के कष्ट हैं और अनेक प्रकार के सुख हैं। यह मनुष्य को पूर्व जन्म के कर्मानुसार मिलते हैं। नर्क का कौन सा ऐसा कष्ट है जो संसार में न हो। लोग आग में जल जाते हैं, शस्त्रों से भी मरते हैं, राध में सड़ते हैं और बड़े-बड़े असह्य कष्ट पाते हैं। इसी प्रकार स्वर्ग के सब प्रकार के सुख संसार में भी उपलब्ध हैं। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में पाप और पुण्य दोनों ही बन जाते हैं। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को सुख मिलता हुआ देखते हैं, वह उसके पूर्व जन्म के किसी पुण्य के प्रभाव से होता है, परन्तु उसकी पाप प्रवृत्तियाँ इस जन्म में और भी बलवान होकर अगले जन्म में दुख देंगी। इसी प्रकार जो धर्मात्मा कष्ट सहन करता है वह भी पूर्व जन्म के किसी न किसी पाप का फल भोगता है। पर इस जन्म में धार्मिक वृत्ति पर अचल रहने से वह अगले जन्म में सुख की तैयारी करता है।

इसके साथ यह सिद्धान्त भी माना गया है कि इस समय के पाप और पुण्य से पूर्व जन्म के कर्मों के भोग में भी अन्तर पड़ जाता है। यदि कोई पापी मनुष्य अपने किसी पूर्व कर्म के बल पर धन और सुख को प्राप्त हो तो वह सुख का पूर्ण उपभोग नहीं करता। उसका मन पाप वृत्तियों से सदा चंचल बना रहता है। धन-सम्पत्ति होने पर भी अनेक इच्छाओं के पूरे न होने से दुखी रहता है। वह अभिमान अथवा राग-द्वेष से भी सदा जलता रहता है। इसलिए उसको सुख का पूरा अनुभव भी नहीं होता। जैसे जल्दी में खाने वाले मनुष्य को भोजन का पूरा स्वाद नहीं आता इसी प्रकार पापी मनुष्य को सुख का पूरा रस नहीं मिलता। दूसरी ओर धर्मात्मा मनुष्य को जो थोड़ा सुख भी हो, वह भी उसे सुख तथा शाँति के होने से अधिक मालूम पड़ता है, पापी मनुष्य अपने वर्तमान जीवन के पापों के कारण अनेक शत्रु तथा कठिनाइयाँ पैदा कर लेता है। उसका द्रव्य नाश होने लगता है, वह किसी न किसी झमेले में पड़ा ही रहता है। उसके शरीर को रोग अधिक होते हैं। अनेक कारणों से उसके सुख की मात्रा कम हो जाती है। जितनी रहती भी है उसको वह अपने अभिमान, चंचलता इत्यादि के कारण पूर्ण तरह से भोग नहीं पाता। इसके विपरीत धर्मात्मा का दुख भी उसके सदाचरण से कम हो जाता है और उसका प्रभाव दूसरों पर भी पड़ता है। उनमें भी सहानुभूति पैदा होती है। जो कष्ट होता भी है वह उसके मन की शाँति के कारण सहने योग्य हो जाता है।

इस प्रकार कर्मों के संस्कार के कारण नये-नये जन्म उस समय तक होते रहते हैं, जब तक मन के पूर्णतया शाँत हो जाने से आगे के लिए कर्मों के संस्कार बनने बंद न हो जायें और मनुष्य मुक्ति प्राप्त न कर ले। इस सिद्धाँत के अनुसार किसी कर्मफल देने वाले देवता की आवश्यकता नहीं है। कर्मफल प्राकृतिक नियमों के अनुसार अपने आप होता रहता है। इस अटल न्याय के अनुसार मनुष्य अपने किसी कर्म से बच नहीं सकता उसके छोटे-छोटे कार्यों का प्रभाव भी संस्कार के रूप में हो ही जाता है।

कर्म-फल के सम्बन्ध में सभी धर्मों में क्षमा और पश्चाताप का सिद्धाँत भी है। ईसाई लोग भगवान ईसा पर विश्वास करते हैं तो उनके लिए दैवी कृपा का द्वार खुल जाता है। इस्लाम के अनुसार मुहम्मदसाहब पर विश्वास करने से पाप क्षमा कर दिये जाते हैं। इसी प्रकार बुद्धदेव की शरण में जाने से, तीर्थंकरों के वचनों पर विश्वास करने से, अथवा ईश्वर से क्षमा प्रार्थना करने से पाप दूर हो जाते हैं। इस सबका रहस्य यही है कि सच्चा पश्चात्ताप होने से, सच्चे मन से शरण में जाने से मन की वृत्ति, अपवित्रता और पाप से फिरकर, धर्म और पवित्रता की ओर मुड़ जाती है और समय पाकर धर्म के अभ्यास से सब पाप दूर हो जाते हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि कहने को तो क्षमा माँगते रहें, पर पाप कर्म करते ही रहें ऐसा होना अर्थात् पाप करते हुए पश्चाताप करना और क्षमा होने की आशा करना, असम्भव है। ऐसी बेईमानी से क्षमा माँगना तो पाप को और बढ़ाता है। किसी अवतार या पैगम्बर पर ईमान लाने या उस पर विश्वास करने का अर्थ तो यही है कि उसके आदेशानुसार सदाचार का पालन किया जाय। यदि ईमान तो लाया जाय, परन्तु सदाचार रूपी धर्म का पालन न किया जाय तो अवश्य नर्क ही मिलेगा।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी धर्म या महापुरुष में केवल विश्वास करने या ईमान लाने से पाप से छुटकारा नहीं मिल सकता। वरन् ईमान लाने से उस महापुरुष के प्रति भक्तिभाव का उदय होता है और उसके उपदेशों पर श्रद्धा होती है। भक्ति से मन शुद्ध होता है। उपदेश किये हुए सदाचार से धर्म की वृत्ति बढ़ती है और पाप वृत्ति शिथिल हो जाती है। यदि कोई मनुष्य सदाचार का पालन करता हो तो वह अवश्य धर्म के फल को प्राप्त करेगा। हिन्दू, जैन, बौद्ध, ईसाई, मुसलमान सभी धर्मों में यह कहा गया है कि धर्मात्मा होने की सर्वप्रथम शर्त सदाचारी और परोपकारी होना है। जो व्यक्ति केवल बाह्य कर्मकाँड कर लेने, माला फेरने, पूजा-पाठ करने से पुण्य मान लेते हैं और सद्गति की आशा करते हैं वे स्वयं अपने को धोखा देते हैं। इन ऊपरी क्रियाओं से तभी कुछ फल प्राप्त हो सकता है जबकि कुछ मानसिक परिवर्तन हो और हमारा मन खोटे काम से श्रेष्ठ कर्मों की ओर मुड़ गया हो। ऐसा होने से पाप-कर्म स्वयं ही बन्द हो जायेंगे और मनुष्य सदाचारी बनकर शुभ कर्मों की ओर प्रेरित हो जायगा।


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