गायत्री-परिवार संगठन का लक्ष

June 1958

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गायत्री परिवार का संगठन इस युग की एक ऐतिहासिक घटना है। कुटुम्ब की शैली, पद्धति और परम्पराओं को सारे समाज में फैलाने का-वसुधैव कुटुम्बकम का, जो महान आदर्श इस प्रकार क्रिया रूप में परिणत करने का एक सुव्यवस्थित ऐसा प्रयत्न निस्संदेह एक युगपरिवर्तन की प्रक्रिया है। पृथकता, व्यक्तिवाद, असुरता, संकीर्णता, स्वार्थपरता एकान्तवाद की घातक प्रवृत्तियों को हटाकर उनके स्थान पर सामूहिकता, सहकारिता, सहयोग, समन्वय, उदारता त्याग एवं सेवा की सद्भावनाओं को बढ़ाना यही कौटुंबिकता का उद्देश्य है। व्यक्तिवाद की, स्वार्थपरता की भावनाएं जिस समाज में, जिस व्यक्ति में बढ़ती हैं वह दिन-दिन पतित होता जाता है। जो समाज एवं व्यक्ति दूसरों की सुख सुविधा का जितनी अधिक ध्यान देता है वह उतना ही फलता फूलता है।

भारतीय संस्कृति के ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के महान् आदर्श को व्यावहारिक क्रियात्मक रूप में लाने का एक आध्यात्मिक प्रयत्न गायत्री परिवार का संगठन है। जिनने इस योजना पर अधिक ध्यान दिया है, अधिक गम्भीरता से विचार किया है वे अनुभव करते हैं कि यह प्रयत्न सफल हुआ तो इस भूतल पर स्वर्ग उतरने की कल्पना सफल हो सकती है।

युग की पुकार ने गायत्री परिवार संगठन को एक अध्याय बनाकर धार्मिक दृष्टिकोण से सारे संसार में आत्मीयता, मानवता, नैतिकता-आस्तिकता एवं सामूहिकता की सत्प्रवृत्तियों को फैलाने का कार्य आरम्भ किया है। विचारवान व्यक्ति अनुभव करते हैं कि राजनैतिक बड़े-बड़े विशाल संगठनों की अपेक्षा यह धर्म संगठन, पीड़ित, मानवता की कहीं अधिक सेवा कर सकता है। नैतिकता का जो अभाव आज सर्वत्र दृष्टिगोचर हो रहा है, उसे रोकने लिए कानून नहीं, मजबूत सामाजिकता ही कारगर हो सकती है। कानून की उपेक्षा करना सहज है पर सारा समाज जिस बात का विरोध करे, जिस तथ्य से घृणा और असहयोग करे, उस मार्ग को अपनाना किसी दुस्साहसी के लिए भी कठिन है।

युग निर्माण की इस बहुत बड़ी जरूरत को पूरा करने के लिए देश भर के विचारशील धर्मप्रेमी कुछ कार्य कर रहे हैं। गायत्री परिवार का इतनी तेजी से निर्माण और विकास होने का यही कारण है। संस्था का संगठन कार्य आरम्भ हुए पूरे दो वर्ष भी नहीं हो पाये हैं कि दो हजार से ऊपर शाखाएं और साठ हजार से ऊपर सदस्य बन गये हैं।

यह संगठन अभी अपने प्रारम्भिक रूप में है। इस समय तक पहला कार्यक्रम धर्मप्रेमियों को सद्बुद्धि की देवी गायत्री और त्यागमय जीवन के प्रतीक यज्ञ का महत्व समझने वाले लोगों को एक संगठन सूत्र में पिरोने का कार्यक्रम पूरा किया गया है। संगठन ही इस युग की शक्ति है। एक व्यक्ति बड़ी से बड़ी योग्यता होने पर भी कुछ नहीं कर सकता यदि उसके पीछे जन शक्ति न हो। संगठन की शक्ति के बिना धर्मयुग की स्थापना भी असम्भव है। दूसरा कार्यक्रम ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान की आध्यात्मिक योजना को पूर्ण करना है। यह अनुष्ठान इस युग का सबसे बड़ा अनुष्ठान कहा जा सकता है। विशाल संगठन की शक्ति को जो लोग समझते नहीं उनके लिए तो इतनी विशाल योजना एक आश्चर्य जैसी लगती है। गायत्री परिवार का तीसरा अगला कार्यक्रम लोगों के विकृत मस्तिष्कों को सही करना है, जीवन की प्रत्येक समस्या एवं गुत्थी पर विवेकपूर्ण मानसिक स्थिति रखने का पाठ जनता को पढ़ाया जायगा। मस्तिष्क के उन केन्द्र बिन्दुओं को सही किया जायगा जिसमें थोड़ी सी गड़बड़ी पड़ने से मानव पथ भ्रष्ट होकर कुकर्म करने पर उतारू हो जाता है और जिस केन्द्र बिन्दु के सही रूप से काम करते रहने से मनुष्य देवत्व की कक्षा में प्रवेश करके स्वर्गीय सुख शान्ति में अवतरण करता है। गायत्री ज्ञान मन्दिर की स्थापना एवं ब्रह्म विद्यालयों का संचालन इसी दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। प्रयत्न यह है कि दस हजार ज्ञान मन्दिरों की स्थापना हो। दस हजार धर्म प्रचारक ‘उपाध्याय’ अपना नियमित समय देकर सद्विचारों से लाखों व्यक्तियों के मनःक्षेत्र को हर साल परिपूर्ण करते चलें। यह शृंखला एक से दूसरे को प्रेरणा प्रदान करती हुई आगे बढ़ती चले और कुविचारों से भरे हुए असंख्य मनों में सात्विकता, विवेकशीलता एवं सद्भावनाओं का प्रकाश उत्पन्न करे। यह नैतिक क्रान्ति गायत्री परिवार का तीसरा कदम है जो आरम्भ किया जा रहा है।

चौथा कदम जिसे गायत्री परिवार उठाने वाला है वह है गायत्री परिवार के सदस्यों को एक आदर्श कुटुम्ब बनाकर दिखाना। इसके सदस्य परस्पर इस प्रकार व्यवहार करें कि उसे देखकर दूसरे लोग प्रेरणा प्राप्त करें और उसके सत्परिणामों को देखकर अनुकरण की इच्छा करें। दहेज, मृत्यु, भोज, माँसाहार, नशेबाजी, जुआ, व्यभिचार आदि सामाजिक बुराइयों को छोड़ने की कठोर प्रतिज्ञायें की जायं और इन पर दृढ़ रहा जाये। इस प्रकार गायत्री परिवार के सदस्य अनेकों बुराइयों से अपने आपको मुक्त करें और परस्पर ऐसा सद्व्यवहार करें, एक दूसरे के सुख दुख में ऐसे प्रेम और सहयोग के साथ तत्परता प्रदर्शित करें जिससे कौटुम्बिकता का आदर्श महत्व एवं न्याय लोगों के समझ में आ सकें एवं सदस्यगण परस्पर संगठन से अधिक सुसम्पन्न एवं सुखी बन सकें। आगरा के दयाल बाग का उदाहरण इस दिशा में बहुत हद तक हमारा पथ प्रदर्शन कर सकता है। परिवार के सदस्यों के लिए सामूहिक कार्य एवं सामूहिक उद्योग धंधे खोलना, निवास के लिए सामूहिक ग्राम मुहल्ले, बसाने और बनाने की व्यवस्था, परिवार के बच्चों और बच्चियों की शिक्षा सच्चे अर्थों में बनाने वाले गुरुकुलों की स्थापना, कौटुम्बिक शासन एवं विभाग के अंतर्गत बड़ी संख्या में लोगों को रखकर जीवन की सुविधाओं का परिचय करना आदि अनेकों कार्यक्रम इस योजना में सम्मिलित हैं।

पाँचवाँ कदम सारे समाज में फैली हुई अनेकों बुराइयों को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ परम्पराओं की स्थापना करने के प्रचारात्मक, निरोधात्मक, असहयोगात्मक, प्रेरणात्मक आयोजन करना। इसमें अमुक बुराइयों को रोकने की लिए शान्त सामाजिक असहयोग एवं सत्याग्रह करना भी शामिल है। जब परिवार का संगठन बढ़ा होगा, उसके पास प्रचार के साधन होंगे और जनमत पक्ष में होगा तो थोड़े से समाज विरोधी और प्रगति विरोधी लोगों को आसानी से नरम किया और झुकाया जा सकेगा। उस स्थिति में सामाजिक दबाव के कारण वे बुराइयाँ आसानी से दूर हो सकेंगी जो आज कानून और राजदण्ड की व्यवस्था की कमजोरी के कारण उद्दण्ड रूप में नंगा नाच कर रही हैं। तब स्वस्थ और सतोयुगी परम्पराओं को स्थापित करके स्वर्गीय एवं सतयुगी समाज का दण्ड आँखों के आगे देखा जा सकेगा।

भारतीय संस्कृति जीवन की वह पद्धति है जिससे मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। यह गुण कर्म और स्वभाव से संबंध रखती है। भारत के महान दार्शनिक, धार्मिक एवं आध्यात्मिक आदर्शों के अनुयायी जन समाज की विचारधारा एवं कार्य पद्धति को बताना ही भारतीय संस्कृति का पुनरुत्थान है। गायत्री परिवार का लक्ष ऐसा ही साँस्कृतिक पुनरुत्थान है। अमुक साम्प्रदायिक प्रथा, परम्पराओं, रीति रिवाजों, तक ही जो लोग संस्कृति को सीमित मानते हैं और नैतिकता के पहलू पर जोर नहीं देते उनकी संस्कृति शब्द की परिभाषा से गायत्री परिवार की परिभाषा भिन्न है। हम मानवता के मूल भूत आदर्शों और सिद्धान्तों को अपनाने पर जोर देते हैं। विभिन्न सम्प्रदायों की मान्यताओं और परम्पराओं से हमारा कोई विरोध नहीं, यदि वे समाज विरोधी न हों।

गायत्री परिवार का संगठन बढ़ना चाहिए और मजबूत होना चाहिए। परिवार के प्रत्येक सदस्य का कर्तव्य है कि वसुधैव कुटुम्बकम् के महान आदर्श को क्रियात्मक रूप देने के लिये संगठन की प्रवृत्तियों में शक्ति भर सहयोग देने का अधिकाधिक समय लगाने का प्रयत्न करें। हम सब के सहयोग से सींचा हुआ यह धर्मतरु कुछ ही दिनों में उस ‘कल्प वृक्ष’ की कल्पना को चरितार्थ कर सकता है, जिसके नीचे बैठकर हम सुखी, स्वस्थ, शान्त और समृद्ध समाज के रूप में जीवन यापन कर रहे होंगे।


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