साहित्य-सेवा के लिए सदाचार की आवश्यकता

June 1958

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(श्रीमती लीलारानी जैन)

प्रत्येक सार्वजनिक कार्यकर्त्ता के लिए सदाचार की आवश्यकता होती है। वैसे तो सदाचार मनुष्य भाव का भूषण माना जाता है, पर जो व्यक्ति, समाज की सेवा का कोई कार्य करना चाहता है उसे तो सदाचार पर चलना अनिवार्य है अन्यथा जनता की उस पर श्रद्धा न होगी और तब लोग उसकी बातों पर विश्वास भी न कर सकेंगे।

जो बात अन्य सार्वजनिक कार्यों के सम्बन्ध में है वही साहित्य सेवा के लिए भी कही जा सकती है। बहुत से व्यक्ति इसे केवल मनोरंजन या दिमागी कारीगरी का काम समझते हैं। पर ऐसे साहित्य की गिनती निकृष्ट श्रेणी में की जाती है। साहित्य का समाज से बहुत ही प्रगाढ़ सम्बन्ध है और उसकी उत्तमता तथा उपयोगिता का पूरा-पूरा ध्यान रखना परमावश्यक है। उचित तो यह है कि जिन लोगों के हृदय में समाज-कल्याण की वास्तविक भावना नहीं है और जो इस कार्य के अधिकारी नहीं हैं उनको साहित्य क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति ही न दी जाय। इस सम्बन्ध में विचारक का कथन है-

“क्या सदाचार के बिना किसी तरह की सेवा हो सकती हैं? क्या जिस कार्य के मूल में सदाचार न हो अथवा जिसके करने वाले सदाचारी न हों उसे सेवा कह सकते हैं? सेवा का अर्थ है वह काम जिसके द्वारा जन कल्याण हो और सदाचार का अर्थ है ऐसा आचरण जिससे अपना और दूसरों का भला हो। इस दृष्टि से सेवा और सदाचार बहुत भिन्न चीजें नहीं हैं, अर्थात् सदाचार ही सेवा है। जो मनुष्य स्वयं सदाचारी बनने का प्रयत्न करता है वह समाज की सेवा ही करता है। वह अपने को समाज की और भी उच्च सेवा के योग्य बनाता है। इस विवेचन से हम इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि जो साहित्य सेवा सदाचारी होगा वही साहित्य-सेवा कर सकेगा, वही इस कार्य का अधिकारी माना जा सकता है।”

सदाचार के सम्बन्ध में एक विशेष त्रुटि जो आजकल के अनेक साहित्य सेवियों में दिखलाई पड़ रही है वह यह है कि वे व्यक्तिगत सदाचार तथा सामाजिक सदाचार को अलग-अलग चीजें मानने लगे हैं। इस समय ऐसे लेखकों तथा साहित्यकार कहलाने वालों की संख्या कम नहीं है जो लिखने में बड़ी-बड़ी उपदेश पूर्ण बातें लिख डालते हैं, जनता को आदर्श बनने का उपदेश देते हैं, पर स्वयं उल्टे रास्ते पर चलते हैं। ऐसे लोगों का कहना है कि वह हमारा व्यक्तिगत जीवन है जिससे जनता न तो जानती और न उसका उससे कोई खास संपर्क होता है। पर यह विचार अत्यन्त भ्रमपूर्ण हैं।

यह किसी प्रकार संभव नहीं कि हम दुराचार का जीवन बिताते हुये सदाचार का उपदेश दे सकें और जनता पर उसका प्रभाव पड़ सके। हमेशा आन्तरिक मनोभाव हमारी रचना पर अवश्य ही प्रभाव डालेंगे और यदि हम कृत्रिम ढंग से उपदेश देने का प्रयत्न करेंगे तो वह सारहीन ही रहेगा पाठकों के हृदय पर कदापि असर न डाल सकेगा ऐसे ही उपदेशों को लोग एक कान से सुनकर दूसरा से निकाल देते हैं।

यह संभव है कि कोई बहुत बड़ा प्रतिभाशाली व्यक्ति अपनी विद्या के बल से ऊँचे दर्जे की आकर्षण और ज्ञान प्रदायक रचना कर सके, पर वह वास्तव में सदाचारी न हो। जैसे हम अनेक उच्चकोटि उपन्यासकारों और कवियों के लिये सुनते हैं कि शराबी थे, या व्यभिचार करने वाले थे, बहुत से व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो एक क्षेत्र में सचाई तथा त्याग से कार्य करते हैं, पर दूसरे क्षेत्र में उनका आचरण प्रशंसनीय नहीं होता। ऐसे व्यक्ति कुछ समय के लिये नाम पैदा कर सकते हैं और जनता भी उनका सम्मान कर सकती है, पर उनका काम कभी वैसा स्थायी और मानवीय हृदय पर प्रभाव डालने वाला न होगा जैसा एक सदाचारी विद्वान का हो सकता है। इसलिये जन सेवा की भावना रखने वाले और खासकर साहित्य-सेवा जैसे पवित्र कार्य को अपनाने वाले सज्जनों को अवश्य ही अपना चरित्र ऊँचे दर्जे का और निर्दोष रखना अनिवार्य है।


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