सद्ज्ञान से ही विश्व का कल्याण होगा।

June 1958

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(श्रीराम शर्मा आचार्य)

संसार में जितना भी दुःख, क्लेश, कलह, रोग, शोक, भय, दैन्य, दारिद्र फैला हुआ है उसका मूल कारण अज्ञान है। मानसिक दुर्बलता से विचारों में ग्रसित होकर मनुष्य दुष्कार्य करने में प्रवृत्त होता है और उसके फलस्वरूप नाना प्रकार के दुःख भोगता है। शारीरिक बीमारियों की जड़ पेट में होती है, पेट खराब रहने से नाना प्रकार के रोग पैदा होते हैं, यदि पेट साफ रहे, हलका रहे तो फिर बीमारी का आक्रमण होने की आशंका नहीं के बराबर रह जाती है। इसी प्रकार सारे मानसिक रोगों की, भावनात्मक व्यवस्थाओं की जड़, मस्तिष्क में रहती है। यदि दिमाग सही हो, सोचने का तरीका सुव्यवस्थित हो तो निश्चय ही मनुष्य की इच्छाएँ, आदतें, अभिरुचि और क्रियाएँ इस प्रकार की होंगी, जिससे वह मनुष्य सदा सुखी रहे और अपने निकटवर्ती लोगों को सुखी बना सके। विचारों में गड़बड़ी पड़ जाने से मनुष्य न सोचने लायक बात सोचता है और न करने लायक काम करता है, फलस्वरूप जीवन की गति लड़खड़ा जाती है, अनेक गुत्थियाँ और उलझनें सामने आ खड़ी होती हैं। दुख और सुख का, शान्ति और अशान्ति का यही रहस्य है।

मनुष्य के हाड़-माँस के शरीर में अन्य वस्तुएँ पशुओं से भी घटिया हैं। उसकी एक ही विशेषता है, और उसी के आधार पर वह विश्व का मुकुटमणि बना हुआ है, वह है-ज्ञान। इसी ज्ञान शक्ति के शुद्ध अशुद्ध होने पर जीवन के भले-बुरे-सुखी-दुखी होने की आधार शिला निर्भर रहती है। स्वर्ग और नरक कोई स्थान विशेष नहीं हैं, वरन् मन की दो वृत्तियाँ हैं। दुर्भाग्य युक्त मस्तिष्क सदा ईर्ष्या, द्वेष, चिन्ता, भय, शोक, दीनता और परेशानी में डूबा रहता है, जब कि सद्भावना को अपने स्वभाव में समुचित स्थान देने वाला व्यक्ति अपने चारों और प्रसन्नता, आत्मीयता, स्नेह, शिष्टाचार, सहयोग, उदारता का वातावरण देखता है और सुखी तथा सन्तुष्ट रहता है। यही स्वर्ग-नरक हैं। कुविचारों के फलस्वरूप कुकर्म और कुकर्म का परिणाम दुख यही नरक का मार्ग है। सद्विचारों के फलस्वरूप सत्कार्य और सत्कर्मों का परिणाम सुख यही स्वर्ग की सोपान है। स्वर्ग और नरक दोनों ही अपनी मुट्ठी में हैं, उन्हें कोई दूसरा देता नहीं वरन् हम स्वयं ही अपने लिए जिसे चाहते हैं चुन लेते हैं।

यह सोचना गलत है कि जिसके पास अधिक धन या सुख-साधन होंगे वह अधिक सुखी रहेगा। धनी लोग मोटर, महल, बढ़िया भोजन वस्त्र या विलासिता की वस्तुएँ तो प्राप्त कर सकते हैं, पर इनसे तो केवल 5 प्रतिशत सुख प्राप्त होता है। 95 प्रतिशत सुख तो मानसिक स्थिति पर निर्भर है। जिनमें आत्मिक विवेक की समुचित मात्रा नहीं है, ऐसे धनी लोग तो गरीब लोगों से भी अधिक चिन्तित और परेशान रहते हैं। मनोभूमि को ऊँची रखने वाले त्यागी लोग वस्तुओं का अभाव होते हुए भी स्वर्गीय शक्ति का रसास्वादन करते हैं। ऋषि−मुनियों का जीवन इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है।

यों शिक्षा तर्क और चतुरता की दृष्टि से आज लोगों के मस्तिष्कों का भारी विकास हुआ है। एक से एक चतुर और बुद्धिमान लोग चारों ओर देखे जा सकते हैं। पर भावना ही दृष्टि से ऊँचा दृष्टिकोण रखकर जीवन नीति का निर्धारण करने वाले कोई विरले ही दीख पड़ेंगे। कौए जैसी चतुरता बेकार है। इससे कमाई तो की जा सकती है पर इससे आन्तरिक एवं सामाजिक शान्ति उपलब्ध नहीं हो सकती। मनुष्य की व्यक्तिगत तथा सामूहिक उन्नति तभी संभव है, जब ऊँची भावनाओं से अन्तःकरण भरा हो। स्वार्थ और क्षुद्रता में डूबे हुए अनुदार एवं संकीर्ण मस्तिष्क न तो स्वयं चैन से रहते हैं और न दूसरों को रहने देते हैं, उन्हें धरती पर अभिशाप और मानवता का कलंक ही कहना चाहिए। जीवन उन्हीं का सफल है जो ऊँचे उदार और दूरगामी दृष्टिकोण से हर समस्या पर विचार करते हैं और उसी के अनुसार अपनी गतिविधियों का निर्माण करते हैं।

आध्यात्म और कुछ नहीं केवल मनुष्य के दृष्टिकोण को ऊँचा एवं उदार रखने की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। भारतीय मनोविज्ञान का, योग और धर्म का आधार यही है। इसे अक्षुण्य रखने के लिए ब्राह्मण वर्ग अपना सारा जीवन ही उत्सर्ग करता था, उसका प्रयत्न निरन्तर यही रहता था कि लोग घटिया किस्म से विचार करने की भूल न करने लगें। ऊँचे किस्म के विचार जनता के मनः क्षेत्र में भरने के लिए वे अहिर्निश घोर प्रयत्न करते रहते थे। उनके परिश्रम का फल ही था कि भारतीय जन समाज लाखों वर्षों तक अपनी उत्कृष्टता कायम रख सका और उसे जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग सम्पदाओं का स्वामी बनने का सौभाग्य प्राप्त होता रहा। आज अनेक सम्पत्तियाँ और क्षमताएं संग्रह की जा रही हैं, पर आन्तरिक उदारता का स्तर दिन-दिन गिरता जा रहा है। उसे उठाने के सभी प्रयत्न ढीले हो गये हैं। यह गिरावट तेजी से बढ़ रही है। यदि हमें मनुष्य जैसी सुख शान्तिमय जीवन प्राप्त करने की इच्छा हो तो सबसे पहले अपने भावना क्षेत्र को, मस्तिष्क को, सही करना पड़ेगा।

सद्ज्ञान ही हमारे मानसिक परिमार्जन का उपचार है। सद्ज्ञान की जितनी ही गहरी स्थापना हमारे मनः क्षेत्र में होती जायगी, उसी अनुपात से हमारी शारीरिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक गुत्थियाँ सुलझेंगी। कुविचारी एवं कुकर्मी लोग न बीमारी से छूट सकते हैं न गरीबी से, न उनमें संगठन हो सकता है न प्रेम, न वे अच्छी सरकार चुन सकते हैं और न अधिकारियों को बिना रिश्वत लेने वाला रहने दे सकते हैं। पत्तों को छिड़कने से काम न चलेगा पेड़ को हरा रखना है तो जड़ से पानी देना पड़ेगा। अस्पताल खोलकर, बीमारियों के टीके लगाकर, कानून बनाकर, राजनैतिक परिवर्तन लाकर, समाज सुधार के प्रस्ताव पास कर तथा उद्योग धन्धे बढ़ाकर अनेक समस्याओं के हल सोचे जा रहे हैं, पर ये तब तक निष्फल रहेंगे जब तक जनता में नैतिकता न बढ़े, सदाचार, संयम, कर्तव्य परायणता और सद्गुणों को अपनाने की प्रवृत्ति जब तक लोगों में पैदा न होगी तब तक सारे, प्रयत्न पते छिड़कने की तरह मन बहलाव मात्र ही सिद्ध होंगे।

प्राचीन काल में तत्वदर्शी ऋषियों ने मानवीय सुख शान्ति की जड़ को खोज निकाला था और उन्होंने इस बात पर पूरा-पूरा ध्यान दिया था कि मनुष्यों की अन्तरात्मा में किस प्रकार गहराई तक सद् भावनाओं को प्रतिष्ठापित किया जाय। अध्यात्म का सारा ढाँचा इसी समस्या को हल करने के लिए खड़ा किया गया है। दुर्विचारों के, वासना और तृष्णा के, काम, क्रोध, मोह के बन्धनों से मुक्त होना ही जीवनमुक्ति है। कुविचारों के भवसागर और कुकर्मों की वैतरणी में न डूबने देने के लिए ही बार-बार भगवान को पुकारा जाता है, स्तुति प्रार्थना का, पूजा अर्चना का मूल मन्तव्य यही है।

इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हम सद्ज्ञान के महत्व को भूलते जा रहे हैं, उसे व्यर्थ समझते हैं और उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। स्वाध्याय और सत्संग की वास्तविकता एवं महत्ता को विस्मरण सा कर दिया गया है। जहाँ यह होते भी हैं वहाँ एक रूढ़िमात्र पूरी कर दी जाती है। अमुक देवता या अमुक अवतार के चरित्रों की पुस्तक को रोज-रोज पढ़ते रहना और पाठ मात्र से यह मान लेना कि यह कोई बहुत बड़ा पुण्य हो गया यही आज के स्वाध्याय का रूप है। सत्संग में ईश्वर जीव, प्रकृति सृष्टि-रचना, देवता और अवतारों की लीलाओं के ऊहापोह उन्हीं विषयों में बाल की खाल निकालते रहना ही सत्संग बन गया है। व्यक्ति का जीव कैसे ऊँचा उठे, कैसे वह सद्गुणों को धारण कर समाज के लिये अधिक उपयोगी बने इसकी समस्या पर स्वाध्याय और सत्संग में कोई ध्यान नहीं दिया जाता जबकि स्वाध्याय और सत्संग का मूल उद्देश्य यही है।

मानव समाज की सबसे बड़ी आवश्यकता है- सद्ज्ञान। इससे बढ़कर इस विश्व में और कोई विभूति नहीं। गीता में कहा गया है कि- “नहि ज्ञानेन सदृश्य पवित्रमिह विद्यते” अर्थात् इस संसार में ज्ञान से बढ़कर श्रेष्ठ वस्तु और कोई नहीं है यदि मानव जाति को सद्ज्ञान से विभूषित कर दिया जाय तो उसके सुख सौभाग्य की कोई सीमा न रहेगी, इस धरती पर ही स्वर्ग लोक का रसास्वादन किया जा सकेगा। जन मन में सद्ज्ञान की प्रतिष्ठापन करना इतना बड़ा पुण्य कार्य है कि इसमें जो ब्राह्मण लगे रहते थे उन्हें समाज में सर्वोच्च सम्मान प्राप्त था। वह सम्मान अब भी उनके अयोग्य वंशजों तक को प्राप्त होता चला आ रहा है। इससे स्पष्ट है कि भारतीय संस्कृति में सद्ज्ञान को कितनी महत्ता दी गई थी। आज कथा पुराण कहकर धर्म के नाम पर कुछ मनोरंजन तथा झूठा आत्म संतोष कर लिया जाता है पर वह नहीं किया जाता, जिसके बल बूते पर लोगों के अन्तःकरण बदलें और वे उस गति-विधि को अपनावें जो मानवता का गौरव बढ़ाने वाली हो।

गायत्री परिवार का निर्माण मानव समाज की इसी आवश्यकता को पूरा करने के लिये हुआ है। सद्बुद्धि की देवी गायत्री और सत्कार्यों का पथ प्रदर्शक यज्ञ है। जप और हवन के कर्मकाण्ड के साथ साथ भावना और क्रिया में भी इन दोनों तथ्यों को परिपूर्ण स्थान मिलने का प्रयत्न किया जा रहा है। अनुष्ठानों में जप, हवन की ही भाँति ‘ब्रह्मभोज’ भी एक आवश्यक कर्तव्य है। यह धार्मिक अनुशासन है, गायत्री उपासक उसे छोड़ नहीं सकते। जप हवन पूर्ण कर लें पर ब्रह्मभोज न करे तो अनुष्ठान पूर्ण नहीं कहा जायगा। ब्रह्मभोज का तात्पर्य यहाँ सद्ज्ञान से है। सद्ज्ञान प्रसार के लिये दिन रात लगे रहने वाले उसी पर जीवन उत्सर्ग किये हुए व्यक्ति ब्राह्मण कहलाते हैं, उन्हें भोजन कराना भी ब्रह्मभोजन कहा जा सकता है। पर जो लोग उस कर्तव्य को तो नहीं करते, केवल जाति मात्र से ब्राह्मण हैं, उन्हें मिठाई पूरी खिलाने से ब्रह्मभोज का उद्देश्य किसी भी प्रकार पूरा नहीं हो सकता। भोजन कराना तो एक क्रिया मात्र है, मूल हेतु तो ज्ञान प्रसार है। ज्ञान प्रसार में जिसके द्वारा कोई सहायता न मिले, वह ब्रह्मभोज नहीं हो सकता। अब वह कार्य सत साहित्य के द्वारा हो सकता है। पुराने समय में प्रेस न थे, पुस्तकें तो वर्षों तक श्रम करने पर एक दो लिखी जाती थीं, उस जमाने में ज्ञान प्रसार मौखिक रूप से ही होता था, ब्राह्मण ही निरन्तर भ्रमण करके प्रवचनों द्वारा उस उद्देश्य को पूरा करते थे। इसलिए उन्हें भोजन कराना आवश्यक था। आज उस उद्देश्य की पूर्ति सत् साहित्य से बड़ी सुविधापूर्वक होती है, इसलिये गायत्री परिवार के उपासक अपनी साधना के जप, हवन कृत्यों के साथ ही सद्ज्ञान प्रसार साहित्य द्वारा ब्रह्मभोज करना ही आवश्यक धर्म कृत्य मानते हैं। जहाँ भी ब्रह्मभोज की आवश्यकता हो वहाँ सद् साहित्य प्रसार का कार्य किया जाना चाहिये। लोगों के भावना स्तर को ऊँचा उठाने के लिये यह एक आवश्यक प्रक्रिया है।

ब्रह्मास्त्र अनुष्ठान के होता यजमानों और संरक्षकों के लिये जहाँ जप हवन की शर्त है वहाँ थोड़ा साहित्य वितरण करने का भी बन्धन है। कई व्यक्ति जो ब्रह्मभोज के सच्चे स्वरूप ज्ञान प्रसार का महत्व नहीं समझते वे इस ओर से आँख चुराते हैं, इसमें कुछ पैसे खर्च करने को भार समझते हैं। यह उचित नहीं। ज्ञान की देवी गायत्री का भोग, लड्डू, पेड़ा से नहीं लग सकता, ये सद्ज्ञान के प्रत्यक्ष प्रतीक सत् साहित्य की श्रद्धाँजलि का भोग लेकर ही तृप्त हो सकती हैं। साहित्य प्रसार हर उपासक को करना चाहिये। आर्थिक कठिनाई या अन्य कारणों से निर्धारित पैसों का साहित्य न बाँटा जा सके तो उससे आधे चौथाई का लेना चाहिये, पर सर्वथा उपेक्षा करने से तो उनका साधन ही अधूरा रह जायगा।

पिछले अंक में गायत्री ज्ञान मन्दिरों की आवश्यकता पर जोर देते हुए यह बताया गया था कि उनकी स्थापना घर-घर में होनी चाहिए। प्रत्येक शाखा का एक सामूहिक ज्ञान मन्दिर अवश्य हो। उसमें जहाँ पूजा उपासना के उपकरण रहें वहाँ गायत्री साहित्य भी अवश्य रहे और वह साहित्य मँगाकर रख ही न लिया जाय वरन् संस्थापकों का कर्तव्य है कि जिस प्रकार बीमा कम्पनी के एजेन्ट अपना ग्राहक बनाने के लिए कई-कई चक्कर लोगों के घरों पर लगाते हैं, और बीमा का महत्व समझाते हैं उसी प्रकार गायत्री साहित्य को पढ़वाने के लिए उसके सम्बन्ध से आवश्यक बातें समझाने के लिए धार्मिक अभिरुचि के लोगों के यहाँ कई-कई बार चक्कर लगाने चाहिएं। जिस प्रकार चुनाव जीतने के लिए वोटरों को घर-घर जाकर समझाना और अपने पक्ष में प्रभावित करना पड़ता है, उसी प्रकार गायत्री परिवार के सदस्यों का भी कर्त्तव्य है कि वे सद्ज्ञान की देवी गायत्री और सत्कर्म के देवता यज्ञ का सन्देश घर-घर पहुँचाने में शक्ति भर प्रयत्न करें, उसमें कोई कमी न रहने दें।

गायत्री ज्ञान मन्दिर सेट छपकर तैयार हो गया है। इसमें कुल 52 पुस्तक हैं। 26 पुस्तकों में गायत्री उपासना, एवं उसके तत्वज्ञान संबंधी सभी बातें आई हैं शेष 26 पुस्तकों में गायत्री की व्याहृतियों समेत एक-एक अक्षर की व्याख्या की गई है और उसमें सन्निहित धार्मिक, नैतिक, सामाजिक एवं आध्यात्मिक शिक्षाओं का बहुत ही उत्तम विवेचन किया गया है। चार-चार आना मूल्य की यह 52 पुस्तकें ग्लेज कागज पर छपी, आर्ट पेपर पर तिरंगे टाइटल लगने से और भी सुन्दर बन गई हैं। उच्च कोटि का साहित्य, यह भी अच्छा नयनाभिराम एवं अत्यन्त सस्ता होने के कारण उस उद्देश्य की पूर्ति में बहुत सहायक हो सकता है जिनको लेकर गायत्री परिवार की स्थापना की गई है। सद्ज्ञान से मानव समाज की आत्मा में धर्म का प्रकाश उत्पन्न करना एक महान् लोक सेवा है। इस लोक सेवा साधन रूप में यह ज्ञान मन्दिर साहित्य बहुत उपयोगी सिद्ध होगा।

अखण्ड ज्योति एवं गायत्री परिवार के सदस्य को अपनी कमाई में से कुछ पैसे नित्य ही धर्म प्रचारक के लिए, सद्ज्ञान साहित्य के लिए बचाने चाहिए, यदि एक आना प्रतिदिन इस कार्य के लिए बचाया जा सके तो हर कोई धर्मप्रेमी अपने घर को कुछ ही वर्ष में सरस्वती का केन्द्र सद्ज्ञान का भण्डार बना सकता है। घर के बच्चों के लिए, पड़ौसी रिश्तेदार और दोस्तों के लिए यह साहित्य एक वरदान जैसे सम्पत्ति साबित हो सकती है। घर के जो लोग इसे पढ़ेंगे उनके विचारों और संस्कारों में अच्छे परिवर्तन ही होंगे।

सारे राष्ट्र को सन्मार्ग की ओर प्रेरणा देने के लिए-सद्ज्ञान का प्रकाश उत्पन्न करने के लिए- साहित्य का आश्रय लेना आवश्यक है। गायत्री माता, यज्ञ पिता और भारतीय संस्कृति का संदेश घर-घर पहुँचाने का प्रधान साधन यह सत्साहित्य ही कर सकता है। गायत्री ज्ञान मन्दिरों की स्थापना मानव जाति में सत्प्रवृत्तियाँ उत्पन्न करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण भविष्य बन सकता है। अपने समय और श्रम का थोड़ा सा भाग यदि हर परिजन धर्म-सेवा के लिए लगा सके तो उस दीपक का उदाहरण बन सकता है जो स्वयं प्रकाशित होकर दूसरों को प्रकाश देता है, उस फूल का उदाहरण दे सकता है जो स्वयं खिलकर दूसरों को खिलाता है। अविवेक पूर्वक अनेक रूढ़ियों के लिए हम ढेरों धन बर्बाद करते रहते हैं पर यदि विवेक पूर्वक दो-चार पैसा रोज इस ज्ञान-दान के लिए ब्रह्मभोज के लिए खर्च करने की उदारता अपना लें तो इससे अपमान और दूसरों का भारी हित साधन कर सकते हैं।

सद्ज्ञान की मानव जाति को भारी आवश्यकता है, उसका भविष्य सद्विचारों पर ही निर्भर है। संसार को सुखी बनाने के लिए गायत्री परिवार ज्ञान की मशाल जलाये रखने का संकल्प किया है। परिवार के हर सदस्य को इस दिशा में कदम से कदम मिलाकर चलना चाहिए और भारत भूमि को सद्ज्ञान से प्रकाशित कर देने के संकल्प की पूर्ति में अपना हिस्सा आगे बढ़कर बंटाना चाहिए।


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