भारतीय संस्कृति में गुरु शिष्य परम्परा

May 1955

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(श्री प्रो. लालजीराम शुक्ल)

भारतवर्ष की अपनी अनेक विलक्षणता एवं विशेषताएं है जिनके कारण प्राचीन काल से आज तक वह विश्व के आकर्षण को केन्द्र एवं कई बातों में वह उसका शिक्षक बनता जा रहा हैं। उन अनेक बातों में आध्यात्मिक ज्ञान के विस्तारक हेतु गुरु शिष्य परम्परा भी भारत की एक अपनी वस्तु है और वस्तुतः आध्यात्मिक ज्ञान की ज्योति को जलाये रखने का यही मुख्य आधार है।

आध्यात्म ज्ञान के सागर में आज भाटा आ जाने के कारण गुरु की महिमा तिमिराच्छन्न हो गई है। गुरु पूजा एक व्यक्ति की पूजा सी दिखायी पड़ती है और यह परम्परा व्यक्ति वाद के रूप में सामने आ जाती है। किन्तु यह भ्रम है। गुरु शिष्य परम्परा तो सृष्टि के आदि से चली आ रही है और परम आदि गुरु सृष्टिकर्त्ता ने इसी परम्परा के द्वारा ज्ञान संचार सृष्टि में किया है। अतएव यह भी निश्चय है कि सृष्टि के अन्त तक निरन्तर यह चलती रहेगी। क्योंकि यह परम्परा टूट जाने का अर्थ ज्ञान दीपक का एकाएक बुझ जाना ही होगा। प्रत्यक्ष ज्ञान का एक मात्र साधन यही है।

भ्रम का एक कारण गुरु का तात्पर्य ठीक रूप से बोध नहीं होना भी है। गुरु स्थूल नहीं होते, वह तो सूक्ष्म हैं। जिस तरह अंग्रेजी की एक कहावत है कि “राजा मर गया है राजा चिरायु हो” तथा “राजा कभी नहीं मरता” उसी तरह गुरु कोई व्यक्ति नहीं होते, वह तो अध्यात्मज्ञान का अधिष्ठान हुआ करते हैं, जिस तरह राजा कोई व्यक्ति नहीं होता वह तो एक पद हैं जो ताज धारण करता है। कहने का तात्पर्य कदापि नहीं है कि जैसा आजकल एक प्रचलन हो गया है कि गद्दी पर जो बैठा, वही गुरु बन गया। प्रत्युत तात्पर्य यह है कि शास्त्र ज्ञान तो परोक्ष साधन है, ब्रह्म का साक्षात्कार तो किसी के द्वारा प्रत्यक्ष कराया जाने पर ही सुविधा पूर्वक हो सकता है और इस कार्य के लिए संसार में सदैव चिदानन्द स्वरूप योगिगण विद्यमान रहते हैं जो अपने योग बल से किसी जिज्ञासु रूप उपयुक्त पात्र का ढूंढ़कर उसमें ब्रह्म का भान करा देते हैं ओर शिष्य बन कर वह पुनः उस परम्परा को आगे बढ़ाता है। शास्त्रों के पठन, मनन से भी निश्चय बहुतेरे साधक आध्यात्मवाद की चोटी पर जा पहुँचते हैं, परन्तु उसका राजमार्ग वही है।

यहाँ एक शंका विचारणीय है कि गुरु स्थूल नहीं, सूक्ष्म किस तरह हो सकते हैं। एक चलते फिरते ओर जीवन व्यापार चलाने के लिए प्रायः सारे कार्य करने वाले शरीरधारी को सूक्ष्म क्यों और क्यों कर माना जा सकता है? यह ठीक है कि शरीर रूप से गुरु एक स्थूल व्यक्ति हैं, परन्तु गुरु शिष्य परम्परा शरीर का सम्बन्ध नहीं है, आत्मा का सम्बन्ध है। साधक का जीव गुरु के जीव का शिष्य बनता है। इसलिए गुरु के शरीर के त्याग के पश्चात भी उसको उनसे निर्बाध प्रेरणा मिलती रहती है। गुरु आत्मरूप हैं, देह रूप नहीं।

शरीरधारी किसी अदृष्ट को सहज ग्रहण एवं प्राप्त नहीं कर सकता, इसी से शरीर रूपी कोष के भीतर सच्चिदानंद स्वरूप गुरु शिष्य के सामने उपस्थित होते हैं। जिस प्रकार वर्णमाला के अक्षर नाम रूपी हीन एवं नाशरहित हैं, परन्तु स्थूल दृष्टि से बोधगम्य किया जाने के लिए उसकी लिपि तैयार की जाती है जिस में रूप भी है और मिटाया भी जा सकता है। ‘क’ का रूप भिन्न भिन्न भारतीय भाषा में विभिन्न है, परन्तु मूलतः ‘क’ तो श्रुतिगम्य ध्वनि है।

क्या गुरु कहलाने वाले सभी व्यक्ति ब्रह्म पद प्राप्त ही होते हैं? क्या उस नाम पर दम्भ या पाखण्ड नहीं फैलाया जा रहा है?—आदि प्रश्न यहाँ अप्रासंगिक हैं। “जड़ चेतन गुण दोष मय” तो करतार ने किया ही है कभी दोष की मात्रा अधिक होती है तो कभी गुण की। किन्तु अध्यात्मज्ञान की जिसे एक झलक मात्र भी मिल गयी होती है, उसे इस बात का दृढ़ विश्वास हो जाना आवश्यक है कि परमात्मा उसकी देख रेख करने वाले हैं, और जब एक सच्चे गुरु को उसके पास पहुँचा देना वे आवश्यक समझेंगे तो वैसा संयोग आप ही आप उपस्थित हो आवेगा। गुसाईं जी का कथन है—

—बिनुहरिकृपा मिलहिं नहिं सन्ता।......

—बिनु गुरु होहि न ज्ञान.......

—सो कि होइ बिनु हरि भगति।.......

अतएव जैसे भगवद् कृपा से मगरमच्छ से भरे नालों को कोई पार कर जाता है, उसी तरह भक्त साधक पाखण्डी ही गुरुओं से बचता हुआ सच्चे गुरु की शरण में जा पहुँचता है। जो अनुभवगम्य है, शब्दों के विस्तार से उसको हृदयंगम कराना दुरूह है।

इसी भाव से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में गुरु की अलौकिक महिमा गायी गयी है। संस्कृत साहित्य से भक्ति काल के हिन्दी कवियों ने अव्यक्त ब्रह्म के पद पर—और किन्हीं ने उनसे श्रेष्ठतर−आसीन कराया है। जैसे:—

गुर्रुब्रह्मा, गुर्रुविष्णुः गुरु र्देवो महेश्वरः। गुरुः साक्षात् पर ब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।

ध्यानमूलं गुर्रुमूर्तिम पूजा मूलं गुरुर्पदम्। मन्त्र मूलं गुरुर्वाक्यम् मोक्ष मूलं गुरु कृपा॥

गोस्वामी तुलसीदास जी रामायण का प्रारम्भ मात्र गुरु वन्दना से करते हैं। वन्दना भी गुरुदेव का नहीं, उनके ‘पद पद्म परागा’ का। इतना साहस कहाँ कि गुरुदेव भर की पूजा करें, जब उनके चरण भी नहीं, उसके रज कण में संजीवनी बूटी की महत्ता है, बल्कि जो ‘शम्भु तनु विभूति’ के समान विमल है। ‘मानस’ में उस रज गण के अलौकिक गुणों का अवलोकन किया जा सकता है। वे गुरुजी कैसे हैं!

“कृपा सिन्धु नर रूप हरि।” बल्कि भक्त शिष्य के दृष्टिकोण से उनमें एक विशेषता भी है कि “महा मोह तमपुञ्ज, जासु वचन रविकर निकर।” स्वयं हरि किसी साधक में अज्ञानतम दूर करने की प्रेरणा देते हैं, परन्तु गुरुदेव तो स्वयं सूर्य के समान उसका कारण बन जाते हैं। बल्कि हरि की पहचान करवाने की शक्ति अथवा कला गुरु के पास ही है:—

वन्दे बोधमंय नित्य गुरुं शंकर रुपिणाम्। याम्यां विना न पश्यन्ति योगिनः स्वान्तस्थमीश्वरम्॥

यहाँ गुरु का एवं शंकर की एक पद मर्यादा तथा एक कार्यभार हो गया है। बिना इन दोनों की कृपा के योगी अपने हृदय में स्थित ईश्वर का भी साक्षात्कार नहीं कर सकते। वस्तुस्थिति का कैसा सच्चा वर्णन है।

इसी भाव से ओत प्रोत होकर महात्मा कबीरदासजी ने खुला फैसला करके तर्क के साथ गुरु को गोविन्द से ऊँचा सिद्ध कर दिखाया—

गुरु गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पांय। बलिहारी गुरुदेव की, जिन गोविन्द दियो बताय॥

गुरु और गोविन्द यदि किसी अवसर पर एक साथ मिल जायं, तो पहले किनका अभिवादन किया जाय! अपने प्रश्न का आप ही उत्तर देते हैं कि गुरु का जय जयकार हो जिन्होंने गोविन्द को प्रत्यक्ष करा दिया । —जिस गुरु की इतनी मर्यादा है, उनके लक्षण भी बनाये हैं—

हरहि शिष्य धन मोहन हरई। सो गुरु घोर नरक महे परई

मनीषिणी एवं बसेन्द्र के तथा उनके गुरु श्रीमती मैडम ब्लाडीवास्की ने गुरु शिष्य के महत्व पर बहुत कुछ लिखा है। भारतीय संस्कृति से परिचित होकर उनने इस महत्व का समझा था।

हिमाचल, तिब्बत आदि में अन्तर्हित महात्मा महात्मागण मशालची की नाई देखते रहते हैं कि अध्यात्म का मशाल जल तो रहा है। मन्द ज्योति होने की दशा में अपने में निहित आध्यात्म शक्ति से उसमें तेल डालते हैं कि वह अनवरत जलता रहे। इनमें अनेकों की आयु सैकड़ों वर्षों का पार कर जाती है।


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