कर्त्तव्य और अधिकार

May 1955

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(श्री नेमिशरण जी मित्तल)

कर्त्तव्य में से अधिकार का जन्म हुआ है। एक मनुष्य का कर्त्तव्य दूसरे का अधिकार होता है। माता का कर्त्तव्य है कि शिशु को अपना दूध पिलावे, यही शिशु का अधिकार है कि उसे माता का दूध मिले। कर्त्तव्य और अधिकार के निकटतम सम्बन्ध के रहस्य को भली भाँति समझ लेने पर विश्व में शान्ति स्थापना का कार्य सरल हो जाता है।

आज विश्व में जो हिंसा, घृणा, युद्ध और अशान्ति फैली हुई है उसका मूल कारण इस रहस्य से अनभिज्ञता अथवा इस रहस्य के प्रतिकूल आचरण का ही परिणाम है। सम्भव है कि जब मनुष्य आज के जंगली पशुओं की भाँति संसार में स्वतन्त्र विचरता होगा तब उसे अधिकार और कर्त्तव्य की मीमाँसा करने की आवश्यकता प्रतीत न हुई हो लेकिन आज मनुष्य उन्नति करते−करते पूर्ण रूपेण समाज को प्राणी बन चुका है। शिशु जब माँ की कोख से जन्म लेता है तुरन्त एक समाज के बीच में आ जाता है और उसी समय से उसके पालन−पोषण का जिम्मा उसके चारों ओर स्थित परिवार के ऊपर आ जाता है जो कि बृहत्तर समाज की पहली इकाई है। कुछ बड़ा हो जाने पर उसके समाज का दायरा बढ़ता है घर से निकल कर वह पड़ोस के बच्चों के साथ खेलता है और तनिक बढ़ने पर पाठशाला में प्रविष्ट होता है और वहाँ उसे सहपाठियों और शिक्षकों का और भी बड़ा समाज मिलता है। इसी प्रकार धीरे−धीरे उसकी आयु, योग्यता और ज्ञान के बढ़ने के साथ साथ ही उसके समाज का क्षेत्र भी बढ़ता जाता है।

आरंभ से देखने पर पता चलता है कि जन्म होते ही बच्चे को माता−पिता तथा अन्य व्यक्ति यों की सहायता की आवश्यकता पड़ती हैं। माता−पिता भाई बहिन तथा अन्य सभी कुटुम्बी जन बच्चों के स्वास्थ्य और प्रसन्नता के लिए चौकन्ने रहते हैं, क्योंकि उन्हें ज्ञात है कि यह अबोध शिशु ईश्वर के यहाँ से उसी तरह आया है जिस तरह एक दिन उन्होंने इस संसार में अबोध दशा में प्रवेश किया था और उनके माता पिता तथा अन्य कुटुम्बी जनों ने उनका पालन−पोषण किया था। वह कर्त्तव्य महसूस करते हैं कि जो उपकार उनके साथ किया गया है उन्हें भी अपने कुटुम्बी शिशु के साथ करना चाहिए। इस प्रकार हमने अनुभव किया कि कल जो अधिकार था आज वह कर्त्तव्य में परिणत हो गया है।

यदि हम समाज में उक्त प्रकार अपने कर्त्तव्यों का पालन करते रहें तो समाज में अविकारों के लिए लड़ने की तनिक भी आवश्यकता न पड़े। गीता में गीताकार ने कहा है कि प्राणी मात्र को अपना कर्त्तव्य करना चाहिए वही तो कर्मयोग है। अपने कर्त्तव्य अर्थात् अपने धर्म से डिगना पाप है। फिर हमें अधिकारों की इतनी चिन्ता क्यों? यदि हम अपने कर्त्तव्यों को पूरा करते जावें तो निश्चय है परमपिता परमात्मा जिसने कि हमें कर्म करने के लिए सृजा है, हमारे कर्मानुसार हमें फल देगा।

गीता में गीतकार ने स्पष्ट कहा है कि “जो जैसा कर्म करेगा वैसा ही फल पावेगा” इसके अनुसार यदि हमने निष्काम रहकर अपने कर्त्तव्य को पूरा पूर्ण किया है तो फिर हमें किसी दूसरी चीज की इच्छा ही नहीं होनी चाहिए, हमारे कर्मों का फल हमें अवश्य मिलेगा और हमारा काम तो केवल करना ही है, हमारी निष्कपट बुद्धि हमें जो मार्ग सुझाये उस पर चलना हमारा काम है यह तो ईश्वर का काम है कि वह हमें न्यायपूर्वक फल दे यह जिम्मेदारी उसी पर छोड़ देनी चाहिये।

इस सिद्धान्त को जीवन के हर एक पहलू पर और समाज के हर एक क्षेत्र में लागू किया जा सकता है। कौटुंबिक नागरिक अंतर्राष्ट्रीय सभी समस्यायें इसके द्वारा हल हो सकती है। यदि कुटुम्ब का प्रत्येक सदस्य कुटुम्ब के प्रति, नगर का प्रत्येक नागरिक नगर के प्रति और प्रत्येक नगर राष्ट्र के प्रति तथा प्रत्येक राष्ट्र विश्व के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करें तो मनुष्य का उच्चतम ध्येय शाँति सहज सुलभ हो सकती है।

कर्त्तव्य−पालन में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता। कर्त्तव्य पालन स्वयं रचनात्मक कार्य है अतएव अहिंसामय है। यदि समाज का एक भाग कर्त्तव्य निष्ठ और दूसरा कर्त्तव्य भ्रष्ट है तो कर्तव्यशील समाज कर्तव्यभ्रष्ट का मार्ग दर्शन अपना कर्त्तव्य पूरा करते हुए करेगा, वह उत्तेजित नहीं होगा, क्योंकि कर्त्तव्य−भ्रष्ट लोगों को ईश्वर उनके कार्य के अनुरूप फल देगा। और वह ईश्वर के न्यायालय में दण्ड के भागी होंगे। किन्तु कर्तव्यशील यह दलील देकर कि कर्तव्यभ्रष्ट, समाज में अभिशाप स्वरूप वे बोझ मात्र है हिंसा करने पर उतारू होता है तो यह भी कर्तव्यभ्रष्टता ही है। क्योंकि पैदा करने और मारने का काम ईश्वर ही करता है और जो भी कोई काम करता है उसे ही उस काम के करने का अधिकार होता है अतः ईश्वर के अधिकार का मनुष्य द्वारा उपयोग अनाधिकार चेष्टा ही होगी। हमें केवल स्वकर्त्तव्य पूर्ति का ही अधिकार है वही हमारा स्वधर्म भी है।

स्वधर्मे निधने श्रेय, परधर्मो भयावहः

गीताकार के इस वचन का अर्थ यह नहीं कि हिन्दू मुसलमान, ईसाई आदि तथा कथित धर्म में ही रहना चाहिये। गीताकार के यहाँ धर्म का निर्णय पैदाइश से नहीं कर्म से होता है। वहाँ आजकल का नामधारी धर्म नहीं है बल्कि ईश्वर ने तुम्हें जैसे कर्म अर्थात् समाज सेवा के लिए बुद्धि और शक्ति दी है उसकी पूर्ति हो यह कर्त्तव्य ही धर्म है।

समाज में भंगी का काम है सफाई, उसका कर्तव्य है कि वह वैज्ञानिक और कर्त्तव्य−निष्ठा बुद्धि से सोचें कि मुझे सफाई का काम मिला है और उसे वह काम ध्यानपूर्वक और मनोयोग से करना चाहिए। इस प्रकार वह अपने धर्म का पालन करेगा समाज में उसका स्थान भिन्न नहीं रहेगा और वह समाज का डाक्टर बनकर समाज में प्रतिष्ठा पायेगा।

इसी प्रकार वैश्य सोचेगा कि समाज में मेरे हिस्से में व्यापार का कार्य आया है। अतः मुझे समाज के हित में व्यापार−धर्म पालन करता है। तब व्यापार में कैसे गन्दगी आ सकती है, वैश्य तो निष्कपट ही बन जायगा। और और उसका आचरण पवित्र होगा। क्षत्रिय के मन में भावना उदय होगी कि उसे समाज रक्षा करनी चाहिए और यही उसका कर्त्तव्य अथवा धर्म है तब फिर समाज अरक्षित कैसे रह सकता है, इस प्रकार शान्ति होना अवश्यम्भावी है। ब्राह्मण अपने को अधर्म का उत्तरदायी समझेगा और शिक्षा व सदाचार को अपना को अपना कर्त्तव्य मानेगा। अपने कार्य को लेखा उसे ईश्वर के सामने देना है वह धोखा नहीं देगा तो नैतिकता की रक्षा पूरी तरह होगी। इस प्रकार प्रत्येक मनुष्य अपने कर्त्तव्य और उससे उत्पन्न अपने उत्तरदायित्व को जो समाज और समाज के न्यायाधीश ईश्वर के प्रति है समझेगा और उसे पूरा करेगा तभी सच्चा सुख और शाँति मिल सकते हैं।

आजकल संस्थाओं के सदस्य पदलोलुप हो रहे हैं। यदि इसके विपरीत वह संस्था के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करें तो संस्था फूले फले और उनका उद्देश्य इसमें पूर्ण हो। कर्त्तव्यों की तो अपनी नियमावली होती है। संस्था के सदस्यों का संस्था के हित में यह भी कर्त्तव्य है कि अधिकतम कर्तव्यशील व्यक्ति यों को ही उत्तरदायित्व मिले और वह उसे निभा सकें। यह तनिक भी कठिन न होगा कि अधिकतम कर्तव्यशील व्यक्ति का पता लगाया जावे क्योंकि सबका काम सामने रहता है झगड़ा तो वहाँ पड़ता है जहाँ कर्त्तव्य पूर्ति तो कोई भी न करे और वर्ति कहें सब। अतः संस्थाओं की उन्नति भी सदस्यों की लगन और कर्त्तव्य पूर्ति पर ही निर्भर है।

उपरोक्त विवेचन से हम इसी परिणाम पर पहुँचे हैं कि मनुष्य को केवल एक अधिकार है कि वह अपने कर्त्तव्य को पूरा करे।


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