महायज्ञ में एक अनोखी आहुति

May 1955

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(श्री सत्यप्रकाश जी शर्मा)

गायत्री तपोभूमि का आरंभ आत्मत्याग की आधारशिला पर हुआ है। इसकी नींव में ईंट ईंट में आत्म−त्याग एवं महान उद्देश्यों का सम्पुट लगा हुआ है। माता की कृपा से वह परंपराएं आगे ही बढ़ती चली जा रही हैं। अनेक गायत्री उपासक गायत्री मंत्र लेखन आदि अनेक प्रवृत्तियों के द्वारा अपना श्रम, समय और श्रद्धा इकट्ठी कर करके इस तपोभूमि को उसी प्रकार तेजस्वी बना रहे हैं जिस प्रकार त्रेता में असुरता से देवत्व की रक्षा करने के लिए ऋषियों ने थोड़ा थोड़ा रक्त इकट्ठा करके एक घड़ा भरा था और उस घड़े से जगत तारिणी सीता माता उत्पन्न हुई थीं। तपोभूमि को भी एक प्रकार से त्रेता जैसा रक्त घट ही बनाया जा रहा है। उसके निर्माण, पोषण, संचालन, सुव्यवस्था, आदि के लिए अनेकों उच्चकोटि की आत्माएं जिस गम्भीर श्रद्धा भावना एवं अनन्य तत्परता के साथ संलग्न हैं उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि आज ब्रह्म दृष्टि से छोटा सा दीखने वाला यह आश्रम, कल सचमुच ही एक वास्तविक एवं चैतन्य तीर्थ बनकर रहेगा। अब तक अगणित घटनाएं इसके साथ ऐसी ही आत्मत्याग से भरी हुई जुड़ चुकी हैं। उस शृंखला में एक सुनहरी कड़ी अभी इस चैत्र की नवरात्रि के समय और भी जुड़ी है।

प्रो. त्रिलोकचन्द्र जी हिन्दू विश्व विद्यालय में लम्बी अवधि तक दर्शन शास्त्र के प्रोफेसर रहे हैं। उन्होंने दर्शन विज्ञान का सक्रिय जीवन में चरितार्थ करने के लिए उस पद से निवृत्ति ले ली और पिछले तीस वर्षों से धर्म, अध्यात्म, तत्वज्ञान एवं दर्शन की वैज्ञानिक शोध एवं साधना में अनन्य भाव से संलग्न हैं। उनका व्यक्ति गत जीवन इतना उत्कृष्ट है कि उसे देखने और विचारने से अनायास ही बड़ी प्रेरणा प्राप्त होती है। प्रोफेसर साहब की धर्मपत्नी श्रीमती सुशीला देवी उतनी विद्वान तो नहीं हैं, पर साधना, श्रद्धा, तपश्चर्या एवं आदर्शवादिता में अपने पतिदेव से किसी प्रकार पीछे नहीं है। इन थोड़ी सी पंक्ति यों में इन ऋषि दम्पत्ति का परिचय करा सकना कठिन है। यहाँ तो उनकी अनेकों महान् प्रक्रियाओं में से एक का उल्लेख किया जा रहा है जो तपोभूमि के साथ अभी हाल में जुड़ी है।

प्रोफेसर साहब आज से 1॥ वर्ष पूर्व भी तपोभूमि में कुछ दिनों के लिए पधारे थे। आचार्य जी के व्यक्ति गत संपर्क तथा तपोभूमि के वातावरण में उन्हें परम सन्तोष हुआ। इस बार वे दोनों चैत्र की नवरात्रि में अपनी एक विशिष्ट साधना को पूर्ण करने के लिए एक महीने के लिए फिर पधारे। इन महाभाग की अंतर्दृष्टि बहुत ही पैनी है। उन्हें आर से पार देखने में कुछ भी कठिनाई नहीं होती। गायत्री महायज्ञ का अत्यन्त महान कार्यक्रम, उसमें सहयोग करने की लोगों की कंजूसी, आचार्य जी का अपने आपको सर्वमेध के लिए समर्पण, उनके ऊपर पड़ी हई जिम्मेदारियों का भारी बोझ आदि की विचित्र परिस्थितियों को देख कर इस ऋषि दम्पत्ति की अन्तरात्मा में एक कोलाहल उठ खड़ा हुआ और वे सोचने लगे कि क्या हम लोग आध्यात्मिक सहयोग के अतिरिक्त इस महान आयोजन में कुछ भौतिक सहयोग नहीं कर सकते? अन्ततः उन्होंने एक उपाय सोच निकाला। प्रोफेसर साहब की धर्मपत्नी श्रीमती शुशीला देवी के पास बीस वर्षों से अनेक आग्रहों और अनुरोधों के बाद सौभाग्य चिन्ह स्वरूप बनवाई हुई सोने की चूड़ियां थीं। देवीजी ने अपने पतिदेव से आग्रह किया कि ऐसे पुनीत कार्य से बढ़ कर और कोई सौभाग्य चिह्न चूड़ियां इस महा यज्ञ का सामग्री खर्च चलाने के लिए आचार्य जी को सौंप देनी चाहिए। देवीजी का यह प्रस्ताव उनके पतिदेव को भी उचित लगा और दूसरे दिन दोनों ने वह एक मात्र जेवर आचार्यजी के सामने लाकर रख दिया।

यह प्रस्ताव सामने आने पर आचार्यजी सन्न रह गये। इतने उत्कृष्ट सन्तों का, इतनी महान भावना के साथ किया हुआ, ऐसा दान उन्हें आजतक अपने जीवन में कभी भी नहीं मिला था। उनके हाथ पैर कांपने लगे और इस अनोखे प्रस्ताव के पीछे काम करने वाली भावनाओं को देख कर उनकी आंखों से आंसू बरस पड़े। एकान्त कोठरी में इन तीनों की ही आंखें बरस रही हैं। भाव और दृष्टिकोण भिन्न भिन्न थे, तीनों ही तीन बातें अपने अपने दृष्टिकोण से सोच रहे थे पर अन्तरात्माओं में इतना सात्विक प्रवाह उफन रहा था कि किसी की आंखें बहना बन्द नहीं करती थीं।

आचार्यजी ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया। इतना बड़ा दान लेने का उनमें साहस नहीं हो रहा था। देने वालों का आग्रह अत्यधिक था। तीन दिन तक यह कलह दोनों पक्षों में बराबर चलता रहा। अन्त में विजय देने वालों की हुई, लेने वाला हार गया। चूड़ियां ले ली गईं, पर इस घोषणा के साथ कि इन्हें न तो बेचा जायगा और न हवन आदि में लगाया जायगा वरन् वे अपने पीछे छिपी हुई भावनाओं का प्रतिनिधित्व करती हुई एक स्मारक के रूप में यहां रहेंगी और यहां की अन्य दर्शनीय वस्तुओं की भांति इन्हें भी सदा सुरक्षित रखा जायगा। चूड़ियों का मूल्य रुपये पैसे की दृष्टि से नहीं इनके पीछे छिपी हुई भावनाओं की दृष्टि से आंका जायगा। इस प्रकार यह दान रुपयों की दृष्टि से साधारण होते हुए भी भावनाओं की दृष्टि से महान है। इस दान ने गायत्री तपोभूमि की ईंट-ईंट में सम्पुटित आत्मत्याग की भावनाओं की शृंखला में एक महत्वपूर्ण कड़ी और जोड़ दी है। इससे तपोभूमि की अन्तःशक्ति में वृद्धि ही हुई है। यों सभी उपासक अपने अपने ढंग से महायज्ञ को सफल बनाने के लिए त्याग और सहयोग करते हैं उनकी जितनी प्रशंसा की जाय वह कम है, पर भावना की दृष्टि से यह तो एक अनोखी ही आहुति है।


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