राष्ट्र निर्माण के लिए चरित्र बल चाहिए।

May 1955

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(श्री लालचन्द्रजी)

सत्य का आचरण ही सदाचार है। सदाचार अमृत का अवलंबन है, अनृत की अवहेलना न केवल अवहेलना, अनृत का ध्यान तक भी नहीं। सदाचारी मनुष्य ऋतु और सत्य का मूर्त उदाहरण है।

सदाचार में ऋजुता, सरलता और साधुता का वेश है। सदाचारी ही दक्ष है, उसी का जीवन सुन्दर है। सदाचारी का जीवन यज्ञमय है। यज्ञ−भावना दिव्य है। यज्ञ−भाव सदाचार का मूल भी है और मध्य भी। सदाचार की पराकाष्ठा यज्ञ में हुई है। सत्यकर्म यज्ञ से ही पैदा होता है, यज्ञ ही स्थिर रहता है और यज्ञ में ही उसकी पूर्णता है।

यज्ञीय जीवन निर्माणात्मक होता है। संसार में जब-जब सर्वहित की भावना से, सर्वोन्नति की कामना से क्रान्ति हुई है, तो उसी युग में निर्माण−कार्य भी विपुल हुए हैं। साहित्य, कला आदि सभी पर सार्वजनिक क्रान्ति का प्रभाव हुआ है। मनुष्यों के हृदयों में सर्वहित का संकल्प दृढ़ हो, इसके लिए विशिष्ट आचरण की, ऐसे आचार−व्यवहार की नितान्त आवश्यकता रहती है, जिसमें सब प्रेमसूत्र में ओत−प्रोत हुए, सहयोग करते हुए, आगे बढ़ें। सदाचार पर ही यज्ञक्रिया निर्भर है और यज्ञ भावना से सदाचार उन्नत होता है। बिना ध्येय के कोई भी कार्य लगन से नहीं होता। राष्ट्रोन्नति, सार्वजनिक विकास सब की बढ़ती की महत्वाकाँक्षा मनुष्य के अन्दर उदारता को, परस्पर हित के लिए आत्मत्याग को प्रोत्साहन देती है। उदारता की स्थिरता के लिए आचरण अत्यन्त आवश्यक है। सत्याचरण से परस्पर विश्वास, स्नेह और सौहार्द के भाव उदय होकर दृढ़ होते हैं और मनुष्यों में उद्देश्य पूर्ति के लिए तन, मन, धन लगाने की उत्कट कामना होती है। जो उन्हें अपने ध्येय की पूर्ति के लिये उत्साह से भर देती है। उनका साहस कम नहीं होने देती। इस प्रकार यज्ञ भावना में सदाचार पनपता है और सदाचार में ही यज्ञ भावना की पूर्ति है। यज्ञ भावना में अवश्य ही आपस की सद्भावना बढ़ती है। सद्भावना में निर्माणात्मक शक्ति है। सत है ही निर्माण की क्रिया का भाव। ऋत और सत्य जब भगवन् के संकल्प से प्रेरित हुए, तो सफल सृष्टि की उत्पत्ति आरम्भ हुई। सद्भावना, सत्य−संकल्प, सत्य−विचार, ये सत कर्म के आधार−स्तंभ हैं। सत्कर्म ही प्रशस्त कर्म है। वही यज्ञ है। इसलिए यज्ञ से निर्माण−क्रिया को अवश्य प्रोत्साहन मिलता है। इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। संसार का इतिहास स्वयं इस सिद्धान्त का साक्षी हैं।

इसके विपरीत स्वार्थ में आपस में संदेह−वैमनस्य और बैर विरोध ही बढ़ता है। स्वार्थ में कोई किसी दूसरे की उन्नति देख ही नहीं सकता। सदाचारी पवित्र और दृढ़ प्रतिज्ञा, आचारवान और विश्वासी होता है। परस्पर विश्वास में अभ्युदय निहित है। स्वार्थ से विश्वास का ह्रास होता है, संशय बढ़ता हे और सच तो यह है कि यदि स्वार्थ को स्वतन्त्र रूप से मनुष्य स्वयं ही व्यक्ति गत तथा जातीय हितों को दृष्टि में रखकर नियन्त्रित न करे, तो अकेला स्वार्थ ही व्यक्ति यों क्या, जातियों और राष्ट्र तक में कलह विग्रह बढ़ाकर महायुद्ध करवाता है और मनुष्यों के नाश का कारण बनता है। स्वार्थ में विरोध तो अवश्य ही उत्पन्न हो जाता है। स्वार्थ में सहयोग का तो स्वप्न तक नहीं आने पाता। हाँ, विनाश होने पर पछतावा अवश्य होता है।

वैसे तो स्वार्थ में सद्भावना का अभाव होने के कारण अन्ततोगत्वा स्वार्थ स्वरूप अपनी ही हानि करता है। प्राकृतिक नियम, जिन्हें ऋत कहते हैं अटल हैं। सच्ची स्थिर उन्नति लक्ष्मी और शोभा तो सत्य में ही निहित है। स्वार्थ में कमी स्थायी अभ्युदय नहीं हुआ। स्वार्थ क्षणिक झलक सी चकाचौंध सी दिखाकर मनुष्य को मोहित करके उससे अनर्थ करवाता है। स्वार्थ को मूल काम है, वह काम, जिसमें विकार आ चुका है, स्वार्थ में परिणत होता है। किन्तु जब कामना शुभ हो और शिव−संकल्प में परिपक्व हो जाय, फिर तो मनुष्य का ध्येय श्रेय हो जाता है। स्वार्थ का, काम का संस्कार करो, उसमें से विकार धो−धोकर निकाल दो, फिर वासना नहीं उत्पन्न होगी। लालसा नहीं बढ़ेगी। फिर उदय होगा वह अदम्य संकल्प, जो निर्माणात्मक क्रिया का मूल रूप है और परम कल्याणप्रद है। संस्कार किये बिना काम हानिकर है। सुसंस्कृत होने पर वही काम परम हितकर है। सुसंस्कृत मानव अवश्य सदाचारी होता है। उसमें शिष्टाचार भी होता है उसी से सर्वहित के कार्य हो सकते हैं। संस्कृति का आधार सदाचार ही है।

सदाचार और क्षत्रिय जीवन एक ही बात है। सदाचार की शक्तियाँ देव हैं, दुराचार की दैत्य आसुरी शक्तियाँ प्रबल होकर व्यक्ति तथा जाति, दोनों का विनाश करती हैं। देवी शक्ति यों पर तो सारा विश्व अवलम्बित है। विश्व का आधार सत्य ही तो है। सत्य, धर्म है, और धर्म सत्य है। सदाचारी ही धर्मशील है और जो धर्मात्मा है, वह अवश्य सदाचारी है। पवित्रता और सत्य से ही, जाति का उत्थान हुआ करता है। धर्म में सत्य, पवित्रता, धैर्य, उत्साह आदि सभी दिव्य गुणों का समावेश है। दिव्य गुणों का मूर्त उदाहरण−धर्मशील सदाचारी मनुष्य है। सत्याचरण से व्यक्ति का अभ्युदय यश, और शोभा होती है और उसका कल्याण होता है।

व्यक्ति के जीवन में जितना सत्य अधिक होगा, उसमें उतना ही वीर्य, बल, साहस, तेज, उत्साह और उल्लास अधिक होगा। सदाचारी मनुष्य अपने कर्त्तव्यों को लगन से पूरी रुचि से करते हैं, वे यत्न करने में कोई कसर नहीं रखते। सारी शक्ति अपने उद्योग में लगा देते हैं। सदाचारी ही सावधानता, एकाग्रता, चेतनता और दक्षता से कार्य में सफल होते हैं।

सदाचारी में आत्म−विश्वास होता है। दुराचारी में अभिमान होता है। सदाचारी में आत्म सम्मान होता है। दुराचारी में घमण्ड होता है सदाचारी में पराक्रम होता है। दुराचारी में उद्दण्ड होता है, सदाचारी दृढ़ होता है। दुराचारी ढीठ होते हैं, सदाचारी निर्भय होता है। दुराचारी निर्लज्ज होते हैं। सदाचारी निर्भय होता है। दुराचारी हठी होता है। सदाचारी में निरन्तर मृदुता है, माधुर्य विनय है, नम्रता है। दुराचारी में स्वार्थ पूर्ति तक ही दंभरूप ऊपर का मिठास है, चापलूसी है, खुशामद है। सदाचारी के जीवन में वास्तविकता दुराचारी के बर्ताव में कपट है, स्वार्थपरता है। सदाचारी का जीवन शुद्ध है, दुराचारी छल के लिए भला−सा बना रहता है। सदाचारी कभी देश और जाति से द्रोह नहीं करता, दुराचारी अपने स्वार्थ के कारण देश हित व जाति हित नहीं करता।

सदाचार में परस्पर विश्वास का विकास है, जिससे संसार का व्यवहार उन्नत होता है। व्यवहार वास्तव में सदाचार पर ही अवलंबित है। जिन लोगों में जितना सत्य बढ़ा हुआ है, उतना ही उनका व्यापार सफल है। जातीय सदाचार सारी जाति उन्नत करता है। कोई ऐसी कला नहीं, कोई व्यवसाय नहीं, जिसमें मनुष्यों को एक दूसरे के सहयोग की आवश्यकता न हो। जहाँ व्यवहार सत्य है, सहयोग की दृढ़ता, सत्य और पवित्रता अवलंबित है। खेती, शिल्प, व्यापार, उद्योग, भवन निर्माण सभी कलाएँ सहयोग चाहती हैं। हमारा जीवन−निर्वाह भी तो सहयोग पर निर्भर है। सहयोग का आधार सदाचार है।

शिक्षा, साहित्य, संगीत, कविता, सभी सहयोग चाहते हैं। मनुष्यों के हृदयों को भावों सहयोग। अक्षरों का सहयोग वाक्यों में वाक्यों सहयोग निबन्धों में, चरित्र चित्रण, इतिहास आदि सभी साहित्य में, वाक्यों तथा स्वरों और छन्दों का सहयोग, काव्य और संगीत में। विश्व में सहयोग की ही लीला है। प्रेम का ही विकास है, जो देखने वाले को स्पष्ट दीखता है। मानवी आदर्शों के सहयोग से ही तो संस्कृति का उद्भव तथा विकास है। सहयोग की भित्ति सत्य है और सत्याचरण ही सदाचार है। यज्ञ भावना तो है ही मूर्तिमान सहयोग। जहाँ सत्य है, पवित्रता है, वहाँ ही सहयोग में स्थिरता रहती है। संदेह, सदा अपवित्रता के कारण होता है और संदेह से वैमनस्य तथा बैर विरोध बढ़कर निरन्तर ह्रास होता जाता है। पवित्रता और सत्य का अटूट सम्बन्ध है। अपवित्र हृदय में सत्य−भावना का उद्गम नहीं होता।

क्षुद्रता बुरी है, इससे मनुष्य का विकास नहीं होने पाता। अपवाद, अपयश और निन्दा करने वाले के भावों में संकीर्णता होती है उससे बैर विरोध बढ़ता है। सदाचारी स्वयं उन्नत होगा और दूसरे की उन्नति से प्रसन्न होगा। सदाचारी चोरी नहीं करेगा। किसी से उधार यथा शक्ति नहीं लेगा और यदि उधार लेना ही पड़े, तो सदाचारी मनुष्य धन्यवाद सहित उसे लौटा देगा। दुराचारी लोग ही पराई वस्तु लेकर नहीं दिया करते। सदाचारी, अपने उद्योग से जो प्राप्त करेगा, उसमें संतुष्ट होगा।

जब जातीय जीवन में पवित्रता तथा सत्य ओत−प्रोत हो जाते हैं, तो व्यवसाय, उद्योग, व्यापार सभी बढ़ते हैं और जाति समृद्धि होती है। जातीय समृद्धि और वैभव, जातीय कीर्ति और यश, सारी जातीय उन्नति सदाचार पर निर्भर है।


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