(श्री प्रो. लालजीराम शुक्ल)
हमारे मन में दो प्रकार के विचार आते हैं−एक उद्वेग युक्त और दूसरे शान्त। भय, क्रोध, शोक, लोभ आदि मनोवेगों से पूरित विचार उद्वेग युक्त विचार हैं और जिनके विचारों में मानसिक उद्वेगों का अभाव रहता है उन्हें शान्त विचार कहा जाता है। हम साधारणतः विचारों के बल को उससे सम्बन्धित उद्वेगों से ही नापते हैं। जब हम देखते हैं कि कोई व्यक्ति अवश्य ही कुछ कर दिखावेगा। पर क्रोधातुर व्यक्ति से उतना अधिक डरने का कारण नहीं जितना कि शान्त मन के व्यक्ति से डरने का कारण है। भावावेश में आने वाले व्यक्ति यों के निश्चय सदा डावाँडोल रहते हैं। भावों पर विजय प्राप्त करने वाले व्यक्ति के निश्चय स्थिर रहते हैं। वह जिस काम में लग जाता है उसे पूर्ण करके दिखाता है।
उद्वेग पूर्ण विचार वैयक्तिक होते हैं उनकी मानसिक शक्ति वैयक्तिक होती है, शाँत विचार बृहद् मन के विचार हैं, उनकी शक्ति अपरिमित होती है। मनुष्य जो निश्चय शान्त मन से करता है उसमें परमात्मा का बल रहता है और उसमें अपने आपको फलित होने की शक्ति होती है। अतएव जब कोई व्यक्ति अपने अथवा दूसरे व्यक्ति के कल्याण के लिये कोई निश्चय करता है और अपने निश्चय में अविश्वास नहीं करता तो वह निश्चय अवश्य फलित होता है। शान्त विचार सृजनात्मक और उद्वेगपूर्ण विचार प्रायः विनाशकारी होते हैं। किसी भी प्रकार के विचार में अपने आपको फलित करने की शक्ति होती है। पर यह शक्ति सन्देह के कारण नष्ट हो जाती है। जिन विचारों को हेतु वैयक्तिक होता है उनमें अनेक प्रकार के सन्देह उत्पन्न होते हैं। अतएव उनके विचार की शक्ति नष्ट हो जाती है। जब कोई मनुष्य अपने विचारों में किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं लाता तो विचार स्वतः ही फलित हो जाते हैं। सन्देहों को रोकने के लिये अपनी आध्यात्मिक शक्ति में विश्वास होना आवश्यक है।
अपने आपकी ही अनुकूलता ईश्वर और प्रकृति की अनुकूलता के विश्वास के रूप में मनुष्य की भावना के समक्ष आती हैं। ये भावनायें अचेतन मन की अनुभूति के प्रतिभास मात्र हैं। मनुष्य अपनी आन्तरिक अनुभूति के अनुसार अनेक प्रकार की कल्पनाओं को रचता है। इन कल्पनाओं की वास्तविकता उसकी अज्ञात वास्तविक प्रेरणा पर निर्भर करती है। कल्पनायें वैसी ही होती हैं जैसी की आन्तरिक प्रेरणा होती है। मनुष्य की कल्पनायें ही उसे आशावादी ओर निराशावादी बनाती है अर्थात् मन का जैसा रुख होता है उसी प्रकार की कल्पनायें मन करने लगता है। ईश्वरवादी विश्वास में लगता है कि ईश्वर उसे आगे ले जा रहा है और जड़वादी विश्वास करने लगता है कि प्रकृति उसे आगे ले जा रही है। प्रगति और अप्रगति के सभी प्रमाण मनुष्य के रुख पर निर्भर करते हैं।
गम्भीर परिस्थितियों में मन का शाँत रहना इस बात का प्रतीक है कि व्यक्ति को किसी भारी शक्ति का सहारा मिल गया है। शान्त मन रहने से प्रतिकूल परिस्थितियाँ थोड़े ही काल में अनुकूल परिस्थितियों में परिणत हो जाती हैं। शाँत विचारों की शक्ति का दूसरे लोगों के मन पर स्थायी प्रभाव पड़ता है। वास्तव में हमारी ही शक्ति दूसरे की शक्ति के रूप में प्रकाशित होती है। यदि किसी व्यक्ति का निश्चय इतना दृढ़ हो कि चाहे जो परिस्थितियाँ आवें उसका निश्चय नहीं बदलेगा तो वह अवश्य ही दूसरे व्यक्ति यों के विचारों को प्रभावित करने में समर्थ होगा। जितनी ही किसी व्यक्ति की मानसिक दृढ़ता होती है उसके विचार उतने ही शान्त होते हैं। और उसकी दूसरों को प्रभावित करने की शक्ति उतनी ही प्रबल होती है। शान्त विचारों का दूसरों पर और वातावरण पर प्रभाव धीरे−धीरे होता है। उद्वेगपूर्ण विचारों का प्रभाव तुरन्त होता है। हम तुरन्त होने वाले प्रभाव से विस्मित होकर यह सोच बैठते हैं कि शान्त विचार कुछ नहीं करते और उद्वेग पूर्ण विचार ही सब कुछ करते हैं। पर जिस प्रकार किसी बीज को वृक्ष रूप में परिणत होने के लिए शान्त शक्तियों को काम करने की आवश्यकता होती है, इसी प्रकार किसी विचार को फलित होने के लिये शान्त होने की आवश्यकता होती है और दूसरा कार्य दृश्य जगत में होता है।
शान्त विचारों से शरीर में आश्चर्य जनक परिवर्तन हो जाते हैं। लेखक का एक मित्र 20 वर्ष का युवक हो चुका था। इस समय भी वह ऊँचा और मोटाई में एक चौदह वर्षीय बालक के समान लगता था। उसने किसी शुभचिन्तक के सुझाने पर नियमित रूप से व्यायाम करना प्रारम्भ किया। थोड़े ही दिनों में वह चार इंच बढ़ गया और उसका शरीर भी पुष्ट हो गया। उसकी समझ थी कि व्यायाम ने उसे बढ़ा दिया। इसमें कोई सन्देह नहीं कि व्यायाम से उसे लाभ हुआ, पर उससे भी अधिक लाभ उसके निश्चय से हुआ। इस निश्चय के कारण प्रतिदिन के शान्त विचार उसकी भावना को प्रबल करते गये और इस प्रकार उसके शरीर में मौलिक परिवर्तन होते गये।
हम जो कुछ सोचते हैं उसका स्थायी प्रभाव हमारे ऊपर तथा दूसरों के ऊपर पड़ता है। शान्त विचार धीरे−धीरे हमारे मन को ही बदल देते हैं। जैसी हमारे मन की बनावट होती है वैसे ही हमारे कार्य होते हैं और हमारी सफलता भी उसी प्रकार की होती है। हम अनायास ही उन कार्यों में लग जाते हैं जो हमारी प्रकृति के अनुकूल हैं, और उन कामों से डरते रहते हैं जो हमारी प्रकृति के प्रतिकूल हैं। अपने स्वभाव को बदलना हमारे हाथ में है। यह अपने शान्त विचारों के कारण बदला जा सकता है। स्वभाव के बदल जाने पर मनुष्य को किसी विशेष प्रकार का कार्य करना सरल हो जाता है।
जिस काम को मनुष्य अपने आन्तरिक मन से नहीं करना चाहता, पर दिखावे के रूप में उसे करने के लिए बाध्य होता है तो उसे अनेक प्रकार की रुकावटें उसे दर्शाती हैं कि तुम्हारा आन्तरिक मन उक्त काम के प्रतिकूल है। शान्त होकर यदि मनुष्य अपनी किसी प्रकार की भूल अथवा कार्य की विफलता पर विचार करे तो वह इसका कारण अपने आप में ही पावेगा। जो काम अनुद्विग्न मन होकर किया जाता है, उससे आत्म विश्वास रहता है और उसमें सफलता अवश्य मिलती है। शान्त मन द्वारा विचार करने से स्मृति तीक्ष्ण हो जाती है और इन्द्रियाँ स्वस्थ हो जाती हैं।
शान्त विचारों का चेतन मन नहीं होता। शान्त विचार ही आत्मनिर्देश की शक्ति हैं। इन विचारों को प्राप्त करने के लिये वैयक्तिक इच्छाओं का नियंत्रण करना पड़ता है। जिस व्यक्ति की इच्छायें जितनी ही नियंत्रित होती है, जिस मनुष्य में जितनी वैराग्य की अधिकता होती है उसके शान्त विचारों की शक्ति उतना ही अधिक प्रबल होती है। जो मनुष्य अपने भावों के वेगों को रोक लेता है वह उन वेगों की शक्ति को मानसिक शक्ति के रूप में परिणत कर लेता है। इच्छाओं की वृद्धि से इच्छा शक्ति का बल कम होता है और उसके विनाश से उसकी शक्ति बढ़ती है। इच्छाओं की वृद्धि शाँत विचारों का अन्त कर देती है। जिस मनुष्य की इच्छायें जितनी ही अधिक होती हैं उसे भय, चिन्ता, सन्देह और मोह से मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति का ह्रास होता है। अतएव ऐसे व्यक्ति के संकल्प फलित नहीं होते। वह जो काम हाथ में लेता है उसे पूरे मन से नहीं करता। अधूरा काम अथवा आधे मन से किया गया काम कभी सफलता नहीं लाता। आधे मन से किये गये कार्य में मनुष्य का चेतन मन तो कार्य करता है पर अचेतन मन उस की सहायता के लिये अग्रसर नहीं होता। ऐसी अवस्था में मनुष्य के शीघ्रता से थकावट आ जाती है और वह अपने कार्य को अधूरा छोड़ने के लिये बाध्य हो जाता है।
जिस प्रकार शाँत विचार मनुष्य के स्वभाव को बदल देते हैं और संपर्क में आने वाले व्यक्ति यों को प्रभावित करते हैं, उसी प्रकार दूर रहने वाले व्यक्ति के हृदय को भी प्रभावित करते हैं। एकान्त में हर किसी भी व्यक्ति का चिन्तन करके उसके मन से अपने मन का सम्बन्ध जोड़ सकते हैं। ऐसा करने पर हम उससे वही विचार करवा सकते हैं जो कराना चाहते हैं। किसी व्यक्ति के प्रति नित्य प्रति हमारे हृदय में आने वाले विचार उस व्यक्ति को प्रभावित करते हैं वह हमारे विषय में भी वैसा सोचने लगता है जैसे कि हम उसके विषय में सोचते हैं। जितना ही हम इस सिद्धान्त पर विश्वास करते हैं कि रेडियो की लहरों की भाँति विचारों की लहरें दूर−दूर के लोगों को प्रभावित करती हैं उतना ही हम प्रत्यक्ष रूप से अपने विचारों द्वारा दूसरे लोगों को प्रभावित करने में समर्थ होते हैं। दूसरों के कल्याण के विचार जितने बली होते हैं उतने अकल्याण के विचार नहीं होते अतएव कल्याण के सभी विचारों से अवश्य लाभ होता है।