कौन आपसे घृणा करता है? और क्यों?

May 1955

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

(श्री प्रो. पी. रामेश्वरम)

जब आप अपना अध्यापन समाप्त करके कक्षा से बाहर निकल आते हैं तो विद्यार्थी चैन की साँस लेते हैं। आपके नौकर चाकर आपके सम्मुख आने से कतराते हैं। पता नहीं किस बात पर और कब आप बिगड़ खड़े हों। मित्रों और परिचितों को आम शिकायत है कि आप अपनी धाँय−धाय के सम्मुख किसी अन्य को बोलने का अवसर ही नहीं देते। पड़ौसी सभी इस बात पर एक मत हैं कि यह प्रोफेसर सदा सर्वदा अपने ही अपने मतलब की बात कहते हैं, और किसी पर क्या गुजरती है इसका कोई भी ध्यान नहीं रखते। मुस्कराहट आपके मुख पर आने से डरती है। वैसे भी बातचीत करते समय मुस्कराना आप ‘बेअवसर की बात’ मानते हैं। घर में चरण कमल रखते ही आपके बच्चों इधर उधर छिपने लगते हैं। पत्नी भयातुर हरिणी की भाँति मन ही मन परमात्मा से प्रार्थना करती हैं ‘अब की राखि लेहु भगवान’। न जाने किस बात पर बरस पड़े ये पति महाशय! क्या घर क्या बाहर, क्या दुकान पर, क्या मित्र मंडली में आपसे मन ही मन घृणा करने वालों की बाढ़ सी आ गई है। आखिर यह सब कैसे हो गया? और फिर कैसे इस घृणा को प्रेम व प्रशंसा में बदला जा सकता है? आइये विचारें।

दूसरों में अरुचि:—

आपको अपनी चिन्ताओं और समस्याओं से अवकाश ही नहीं मिलता, अतः आप दूसरों में आवश्यक रुचि का प्रदर्शन नहीं कर पाते। बदले में अन्य व्यक्ति यों की रुचि आपकी ओर नहीं होती। दूसरों के लाभ, एवं हित में अपनी रुचि दिखाना उसके हृदय को जीतने की पहली शर्त है। उदाहरण के लिये कुत्ता पर ध्यान दीजिये। उससे हमें क्या मिलता है। अरे मुर्गी अण्डे देती है तब उसे चुगा दिया जाता है, भैंस अथवा गाय दूध देती हैं और इसीलिए उन्हें चारा देते हैं पालते हैं मगर−सोचने की बात है। क्या कुत्ता भी कुछ देता है अथवा करता है अपनी रोटी कमाने के लिये? जी नहीं! वास्तव में कुत्ता अकेला जानवर है जिसे अपनी रोटी कमाने के लिये कोई भी काम नहीं करना पड़ता। वह अपना प्रेम, अपनी रुचि आपके प्रति सफलतापूर्वक प्रकट करता है। दूर से ही देखकर उल्लास प्रकट करेगा, आगे पीछे घूमेगा, पूँछ हिलाएगा। मानो उसे आपको देखकर अतीव प्रसन्नता हुई और बस। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि दूसरों में अपनी वास्तविक रुचि प्रकट करने से, उनके हृदयों में अपने प्रति प्रेम और आकर्षण उत्पन्न किया जा सकता है। दूसरे व्यक्ति हमारी ओर तभी आकर्षित होंगे जबकि पहले हम अपनी रुचि उनमें, उनके लाभ व कल्याण में प्रदर्शित करें। प्रत्येक मनुष्य को ‘अहम्’ (मैं) प्यारा होता है, ‘तुम नहीं’। फोटोग्राफ के ग्रुप में सर्वप्रथम दृष्टि अपने ही चित्र पर पड़ती है न कि किसी अन्य पर। मैं और मेरा, मनुष्य को सदैव सर्वोपरि रहा है। इस भाँति अपना नाम प्रत्येक व्यक्ति को संसार भर के सभी शब्दों से अधिक प्यारा होता है। बातचीत करते समय यह तथ्य हमारे मस्तिष्क में विद्यमान रहना चाहिये।

मुँह लटकाए:—

किसी से भी मिलने पर, आपको मुँह लटकाकर माथे पर सिकुड़न डाल कर बातचीत करने का अभ्यास पड़ चुका है। कोई आपकी ओर तभी आकर्षित होगा जबकि आप के हाव भाव से उसे यह मालूम पड़े कि आप कहना चाह रहे हैं “कि मुझे आप से मिलकर अतीव हर्ष हो रहा है। मुझे आप बहुत प्रिय हैं”। अस्पष्ट शब्दों से, हाव भाव से यह बातें अवश्य प्रकट होनी चाहिये बस घृणा का अन्धकार फट जायेगा और प्रेम व प्रशंसा की उषा मुस्कराती दृष्टिगोचर होने लगेगी। इस अप्रयत्न में मुस्कान को जादू आपकी सहायता करेगा। बातचीत प्रारम्भ करते समय, अथवा यथास्थान अनुकूल परिस्थिति देखकर, थोड़ा सा मुस्करा दीजिये। मुस्कान बदले में मुस्कराहट अवश्य लायेगी। अपने पारस्परिक सम्बन्धों पर मुस्कान का प्रत्यक्ष प्रभाव देखिये।

सुनेंगे नहीं:—

वार्त्तालाप करने में, दूसरों को बोलने का अवसर देना आप भूल ही चुके हैं। केवल अपना राग अलापेगें, दूसरे की नहीं सुनेंगे। “मैंने यह किया, यह करूंगा। मैं चाहता हूँ.....” दूसरा व्यक्ति कुछ कहना चाहता है, कुछ कह भी रहा है। मगर कौन प्रतीक्षा करे पूरा सुनने की? काट दी बात और लगे अपनी जड़ने। भला दूसरों की (हित की?) बात सुनने में कौन अपना समय नष्ट करें?

विद्वानों को मत इसके विरुद्ध है। वे कहते हैं “दूसरों को अपनी बात खुलकर कहने का अवसर दीजिये वरन् उन्हें छोटे प्रश्न करके और अधिक बोलने की प्रेरणा दीजिये”। डा. जौन्सन का मत है− एक प्रिय वक्त बनने के लिये आवश्यक है कि अच्छा श्रोता बना जाये। यदि आप दूसरों की बात ध्यान से सुनेंगे तो अपने आप आपसे प्रेम करने लगेंगे और घृणा का भाव कपूर की भाँति उड़ जायेगा।

कौन श्रेष्ठ है?

अपनी महानता व श्रेष्ठता की छाप अन्य व्यक्ति −यों पर थोपना आपकी आदत बन चुकी है। दूसरों की आलोचना करना, उनकी कमियों को प्रकाश में लाना आपको पसन्द हो चला है। आप सही बात (!) कहते हैं, चाहे दूसरों को बुरी ही लगे। काने का काना अवश्य कहेंगे। अलबत्ता उसके गुणों को भूल जाएंगे।

सुप्रसिद्ध विचारक एमर्सन का मत है कि “बातचीत करने में इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि आपकी बातचीत से श्रोता अपने को महत्वपूर्ण व महान समझे” डेल कार्नेगी का कहना है कि श्रोता की आलोचना न करे। उसके अवगुणों को नहीं, प्रत्युत गुणों को प्रकाश में लावे। उसमें अगर कोई विशेष बात है, तो उसकी सत्य−प्रशंसा करे”। पत्नी के सुघड़ कार्यों की, उत्तम भोजन की, आकर्षक मुखाकृति की, तथा लम्बे केशों की प्रशंसा में कहे गये दो शब्द आपके प्रति आकर्षण बढ़ाने में प्रभावपूर्ण सिद्ध होंगे। मित्रों, प्रियजनों, परिचितों, नौकरों तथा अन्य संपर्क में आने वाले व्यक्ति यों में कोई तो गुण होगा ही। उसी को लेकर, सावधानी के साथ उनकी सत्य−प्रशंसा करके, यदि उनके गौरव को जागृत करेंगे, तो आपके प्रति उनके घृणा के भाव प्रेम में बदल जायेंगे, और आप अपने चारों ओर इसी भूतल पर स्वर्ग की स्थापना करने में समर्थ होंगे।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:







Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118