पारिवारिक संगठन कैसे स्थिर रहे?

May 1955

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(श्री लालजी पाठक, लामटा)

श्रीमद्भगवद्गीता में श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं :—

यद्ददाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरोजनः। स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥

न मे प्रार्थस्य कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन। नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।

श्रेष्ठ पुरुष जिस रास्ते से चले जाते हैं सब ही निम्न श्रेणी के मनुष्य उसी मार्ग पर चलने लगते हैं। मुझे कोई काम करना शेष नहीं है तथापि मैं इसी हेतु कार्य करता रहता हूँ।

भगवान राम और कृष्ण के अवतारों का एक प्रमुख प्रयोजन लोक शिक्षा भी था। जहाँ उन्होंने अपनी अमृतवाणी बहुमूल्य उपदेश एवं सन्देश दिये हैं, वहाँ अपने आचरण द्वारा ऐसे उदाहरण भी उपस्थित किये हैं जिनको अपना कर मनुष्य जाति सुख शान्तिमय जीवन यापन कर सकती है तथा अपनी अनेकों उलझनों को सुलझा सकती हैं।

श्री रामचन्द्रजी के अनेकों आदर्श गुणों में एक गुण यह भी था कि वे अपने परिवार का समुचित रखते थे, उनकी कठिनाइयों को सरल बनाने, सन्न रखने तथा सुख दुख में साथ रहने में किसी प्रकार की कमी नहीं रखते थे। जिनमें यह गुण होता है उन्हीं का परिवार उनके पीछे चलता है और प्रेम पूर्वक संगठित रहता है। आजकल घरों के पारिवारिक मुखिया तथा किन्हीं संगठनों के संचालक प्राप्त गुण को अपनाने की कमी करत हैं। इसी से उनके आश्रित या अनुयायी असंतुष्ट रहते हैं और आये दिन कलह मचा रहता है।

श्री रामजी की मुखियागीरी से उनका परिवार ही नहीं प्रजाजन भी संतुष्ट थे। यहीं तक नहीं वन पर्वतों के निवासी भील, कोल, रीछ, बानर आदि के साथ भी उनका व्यवहार आत्मीयता का होने के कारण वे दूरवर्ती होते हुए भी कुटुम्ब की सी स्थिति अनुभव करते थे। रामायण में इसका वर्णन इस प्रकार है:−

प्रभु तरु तर कपि डार पर किये ते आप समान। तुलसी कहूँ न राम से साहब सील निवान॥

श्री रघुनाथ जी ने भीलों के प्रति चित्रकूट में क्या बर्ताव किया। जब भी कोई खबर मिली कि रामचन्द्र जी इस पर्वत पर हैं।

यह सुधि कोल किरतान पाई। हरषे जनु नव निधि घर आई॥ कंदमूल फल भरि भरि दोना। चले रक जनु लूटन सोना॥ करहि जुहार भेट धरि आगे। प्रभुहि विलोकहि अति अनुरागे॥ राम स्नेह मगन सब जाने। कहि प्रिय वचन तबहि सन्माने॥ प्रभुहिं जोहार बहोरि बहोरी। वचन विनीत कहहिं कर जोरी॥ हम सब भाँति करब सेवकाई। करि केहरि अहि बाध बराई॥ हम सेवक परिवार समेता। नाथ ने सकुचव आयसु देता॥

वेद वचन मुनि मन अगम ते प्रभु करुणा ऐन। वचन किरातन के सुनत, जिमि पितु बालक बैन॥

राम सकल वनवर परितोषे। कहि प्रिय वचन प्रेम परिपोषे॥

अब रीछ बानरों पर प्रभु का कितना प्रेम था वह नीचे की चौपाइयों से विदित होगा।

तुम्हरे बल मैं रावण मारयो। तिलक विभीषण कहं पुनि सारयो॥ निज निज गृह अब तुम सब जाहू। सुमिरहु मोहिं डरहु जनि काहू॥ परम प्रीति समीप बैठारे। भगत सुखद मृदु वचन उचारे॥ तुम अति कीन्ह मोरि सेवकाई। मुख पर केहि विधि करहुँ बड़ाई॥ ताते तुम्ह मोहि अति प्रिय लाग। मम हित लागि भवन सुख त्यागे॥ अनुज राज संपति वैदेही। देह गेह परिवार सनेही॥ सब मम प्रिय नहिं तुमहिं समाना। मृषा न कहों मोर यह बाना॥

इन नीचे की दो चौपाइयों में रामचन्द्रजी ने रीछ वानरों को ही सबसे प्यारे कहा देखिये कितना महान आदर्श है। रघुनाथ जी ने चित्रकूट से वापिस होते समय भरत जी को थोड़े से में अपनी प्रजा पालनादि का भार सौंपते हुए कहा।

मुखिया मुख सो चाहिये, खान पान को एक पाले पोपे सकल अंग, तुलसी सहित विवेक॥

यहाँ पर मुख को मुखिया की उपमा दी है जैसे नाना प्रकार के भोजनों को खाकर मुख अपने अन्दर एक कणिका भी नहीं रखता। इसी प्रकार मुखिया को अपने परिवार के प्रति बर्ताव करना चाहिये। दूसरी बात मुख और शरीर के संबंध की यह है कि जब शरीर के किसी अंग में कोई दर्द होता है तब वह अंग अपनी पीड़ा बिना मुँह के नहीं बता सकता। पर मुँह रोता है कराहता चिल्लाता है और जब तक उस अंग की पीड़ा शाँत नहीं हो जाती, रोता कराहता ही रहता है। इसी तरह मुखिया को अपने परिवार के किसी भी मनुष्य को चाहे वह छोटा हो, बड़ा हो, तरुण हो, वृद्ध हो, ज्ञानी हो, मूर्ख हो, समानता का बर्ताव रखते हुए उसकी तकलीफ में हाथ बंटाना चाहिये।

परिवार के अर्थ घर कुटुम्ब के मनुष्यों के समूह से लेकर और भी कई तरह के समूह हैं। जिन्हें परिवार कहते हैं यथा:—

प्रजा−राजा, सेना−सेनापति, जमात−महंत, विद्यार्थी−अध्यापक, शिष्य−गुरु इत्यादि कई प्रकार के परिवार और मुखिया हैं, और हर प्रकार के मुखिया के वास्ते अपने परिवार के प्रति ऐसी ही भाव रखने का नियम है।

मुखिया को अपने लिए अपने परिवार से बहुत अधिक सुविधा सामग्री प्राप्त करने की चेष्टा न करनी चाहिए। नहीं तो परिजन उससे असंतुष्ट रहने लगेंगे। घर के संचालक का कर्त्तव्य है कि वह अपने भोजन, वस्त्र, शौक, मौज में उतना खर्च न करे जो अपने आश्रितों एवं अनुयायियों के लिए न जुटा सके । अपने परिजनों की अपेक्षा जो स्वयं अधिक शौक, मौज करता है वह गृहपति कभी सफल गृह संचालक नहीं बन सकता।

यों थोड़ी बहुत बुराई सभी परिवारों में होती है। अनुयायी या परिजन भी सर्वथा निर्दोष या सद्गुणी नहीं होते। पर उनमें थोड़ी बुराई रहते हुए भी परिवार का संगठन चलता रह सकता है यदि संचालक में आदर्शवाद की समुचित मात्रा हो। इसके विपरीत संचालक का दोष भी अच्छे परिवार को छिन्न−भिन्न कर देने का कारण बन सकता है। ऐसे अनेकों आधुनिक तथा प्राचीन अनुभव उपलब्ध हो सकते हैं। रामायण में रावण, भागवत में कंस, महाभारत में कौरवों का नाश, कौटुम्बिक विरोध, और मुखिया की त्रुटियों के कारण ही हुआ स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। दैनिक जीवन में भी ऐसे उदाहरण सर्वत्र दीखते हैं।

जिन मुखियाओं को अपना संगठन या परिवार प्रिय है उन्हें रामायण से−श्री रघुनाथ जी के चरित्र से शिक्षा गृहण करनी चाहिए और अपने आश्रितों के साथ समुचित स्नेह, सहानुभूति, उदारता, सहृदयता एवं त्याग का उदाहरण उपस्थित करना चाहिए तब वह संगठन स्थिर रह सकना संभव हो सकेगा।


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