अनुभव (Kavita)

May 1955

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मैंने केवल इतना जाना!

फूल मानते शूलों को जो मार्ग बना काटों में लेते। गति, लक्ष्य मान जो मस्त सदा, वे लक्ष्य सहज ही पा लेते॥ अक्षय विभूति बनती जगकी, पग−धूलि उन्हीं चरणों की प्रिय। जिनका चलना ही इष्ट रहा, जाना, केवल बढ़ते जाना॥ मैंने केवल इतना जाना!

अभिशाप जिन्हें वरदान सदा वरदानों के अधिकारी वे। हलाहल कटु जिनको अमृत अमरत्व सहज पा लेते वे॥ भू−भाल झुका करता सदैव उस अटल व्रती के सम्मुख ही। जिसके व्रत सीख न पाते, प्रिय सिखलाने पर भी नत होना॥ मैंने केवल इतना जाना!

तुम मान रहे गन्तव्य दूर मैं कहती प्रतिपग लक्ष्य यहाँ। भ्रममात्र भूत−भावी साथी बस वर्तमान ही सत्य यहाँ॥ मिटकर बनते, खोकर पाते मैंने केवल इतना जाना। प्रिय, राह स्वयं ही थक जाती, यदि पथिक सुला दे थक जाना॥ मैंने केवल इतना जाना!


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