सुनहु सकल रजनीचर जूथा। हमरे वैरी विबुध वरुथा।। तिन कर मरन एक विधि होई। कहहु बुझाई सुनहु अब सोई।। द्विज भोजन मख होम सराधा। सब कै जाई करहु तुम बाधा।। छुदा छीन बलहीन सुर, सहजेहि मिलिहहिं आइ। तब मारिहउँ कि छाड़िहउँ, भली भांति अपनाइ।।
रावण पंडित भी था, इसीलिये वह भली-भांति जानता था कि यज्ञादि धर्मानुष्ठान, देव गणों का पोषक है, इसीलिए अन्य राक्षसों की अपेक्षा (रावण में) उसमें ऐसे सत्कार्यों को रोकने की अत्यधिक उतावली थी—जैसा निम्नोक्त छन्द से बोध होता है।