हिंदू धर्म में यज्ञों का स्थान तथा प्रयोजन

July 1955

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(श्री दीनानाथ शर्मा शास्त्री सारस्वत, देहली)

‘नायं लोकोऽस्त्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम!’

गीता 4।31

[यज्ञहीन को ऐहिक लोक भी नहीं मिलता, परलोक भला क्या मिलेगा।]

सनातन हिन्दू धर्म में यज्ञों का बड़ा महत्व माना गया है। इस धर्म में वेदों का जो महत्व है, वही महत्व यज्ञों को भी प्राप्त है क्योंकि वेदों का प्रधान विषय ही यज्ञ है, जैसे कि देखिये इस पर न्यायदर्शन (4।1।63), मनुस्मृति (1।23), सिद्धान्त शिरोमणि (गणिताध्याय, मध्यमविकारस्थ कालमानाध्याय 9 पद्य) गोपथब्राह्मण (1।4।24), भगवद्गीता (4।32)।

यह याद रखने की बात है कि—अग्नि मानव समाज की एक विशेष विभूति है। प्राणियों में मनुष्य ही केवल अग्नि द्वारा काम लेते हैं। शेष तो अग्नि से दूर रहते हैं। वन में हिंस्र जन्तुओं से अपनी रक्षा का उपाय ही यही है कि−अपने चारों ओर अग्नि जला कर रखी जाय। मनुष्य ही अग्नि द्वारा विविध कृत्यों को पूर्ण करता है। अग्नि द्वारा वह शक्ति उत्पन्न होती है, जिससे रेलगाड़ी चलती है, तार जाते हैं विमान उड़ते हैं। अग्नि द्वारा ही पाकक्रिया सम्पन्न होती है, जिससे मनुष्य जीवन धारण करता है। बहुत कहने से क्या, गर्भाशय की अग्नि द्वारा ही मनुष्य आदि का शरीर पैदा होता है, और पुष्ट होता है। सुवर्ण आदि धातुओं की उत्पत्ति में जिनसे संसार का व्यवहार चलता है कारण भी खान की अग्नि ही है। जैसे कि—ऋग्वेद संहिता में कहा है−‘रत्नाधातमम्’ (1।1।1)

महायुद्धों में जो महान् जन संहार होता है, वह भी अग्नि के ही बल से। उसी के आश्रय से बन्दूक चलती है, तोप चलाई जाती है, सर्व संहारक अस्त्र चलते हैं, गैसें चलती हैं, बम डाले जाते हैं। जिस राजा के पास तेल, कोयला आदि अग्नि का भोजन नहीं होता, वही अन्त में हारता है। इसी कारण आक्रमणकारी राजा दूसरे राष्ट्र के पैट्रोल और कोयले खानें नष्ट करने की चेष्टा करते हैं, जिससे दूसरे की पराजय और अपनी विजय होवे।

अग्नि के उत्पादन और उससे संहार के नवीन प्रकारों का उद्भावन आज की साइन्स ने किया है, परन्तु प्राचीन युग में अग्नि द्वारा दिव्य शक्ति के उत्पादन का अन्य ही प्रकार था। जैसे आजकल विधान विशेष से अग्नि में पैट्रोल और कोयले की आहुति देकर भौतिक शक्ति पैदा की जाती है, वैसे ही पुरा काल में प्राचीन ऋषि−मुनि विधान विशेष एवं मन्त्र विशेष से द्रव्य विशेष की आहुति देकर दिव्य शक्ति को उत्पन्न करके अपने तथा दूसरों के मनोरथ को पूर्ण करते थे। आजकल यद्यपि उसका प्रचार लुप्तप्राय है, तथापि सर्वथा अभाव नहीं हुआ। अर्वाचीन जड़ विज्ञान जिन बाधाओं को हटाने में सर्वथा असमर्थ है, प्राच्यविज्ञान उन बाधाओं को यज्ञ के द्वारा तथा उसके अंगभूत जप−पाठ आदि से हटा सकता है। वेदों में यज्ञ विद्या भरी हुई है, कल्पसूत्र में उनके विनियोग दिखलाये गये हैं, अब चाहिये उसके प्रयोगकर्ता।

फलतः जब तक हमें व्यवहार में रहना है, तब तक हमें अग्निचयन करना ही पड़ेगा, अग्नि ही यज्ञ का देव एवं आधार है—‘यज्ञस्य देवम्’ (ऋ॰ 1।1।1) अग्नि का त्याग और व्यवहार का त्याग समान वस्तु है। सम्भवतः इसी व्यवहार त्याग के कारण संन्यासियों का अग्नि−परित्याग शास्त्रों को इष्ट हो।

वेदों का विषय यज्ञ है−यह बतलाया जा चुका है, वेद में उपास्य देवता हैं, यज्ञ में भी उपास्य देवता हैं−‘यज्ञ देव पूजा संगति करणादानेषु’ ऐसा श्रीपाणिनि के धातु पाठ में कहा है। यज्ञ विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए किये जाते हैं, उन कामनाओं की पूर्ति देवता लोग करते हैं। ऋग्वेद संहिता में कहा गया है—‘न मर्डिता विद्यते अन्य एभ्यो, देवेष में अधिकाया अयंसत (10।64।2) अर्थात् देवताओं से भिन्न अन्य कोई सुख प्रदाता नहीं, अतः मेरी कामनाएं भी देवताओं में नियमित होती हैं।

देवता परमात्मा के ही अंग होते हैं, जैसे कि अथर्व वेद संहिता में कहा है—‘यस्य त्रयस्त्रिंशद् देवा अंगे गात्रा विभोजिरे’ (10।7।26) अंगों के बिना अंगों की पूजा हो नहीं सकती। अंश के बिना भला अंशी की पूजा किस प्रकार हो? इस कारण देव पूजन यज्ञ रूप भगवान का आराधन ही है, यह सिद्ध हुआ। यही बात ब्राह्मणभागात्मक वेद में भी लिखी है−‘तद् यद् इदमाहु−अमुंजय अमुंजय, इति एकैकं देवम्, एतस्यैव सा विसृष्टि, एव उह्येव सर्वे देवा;’ (14।4।2।12) अर्थात् देवता परमात्मा की ही सृष्टि है, वह परमात्मा सर्व देवमय है। इस प्रकार मनुस्मृति में भी कहा है—‘आत्मैव देवताः सर्वाः, सर्वमात्मन्यवस्थितम्’ (12।119) यहाँ पर श्रीकुल्लूक भट्ट ने ऐसी ही व्याख्या की है—‘इन्द्राद्याः सर्वदेवताः परमात्मैव सर्वात्मात्वात् परमात्मनः’।

अब यह प्रश्न उठता है—जो देव पूजनात्मक यज्ञ है, वह अग्नि द्वारा ही कैसे होता है? इस पर उत्तर ऋग्वेद संहिता में कहा गया है कि अग्नि के बिना देवता प्रसन्न नहीं होते (ऋ॰ सं॰ 7।11।1) अग्नि में दिया हुआ यज्ञ देवताओं को पहुँचता है−यह भी ऋग्वेद संहिता (1।1।4) में कहा गया है। यही बात ऋ॰ सं. (7।11।5), तथा अथर्ववेद वेद संहिता (5।12।2) में मानी गई है। क्योंकि−अग्नि को देवताओं का मुख कहा गया है (शतपथ 3।7।4।10) यही बात शाङ्खायन ब्राह्मण (3।6) तथा महाभारत आदिपर्व (7।7।10।11) में भी अग्नि के वचन में सूचित की गई है, तब देवताओं की हवि का भी अग्नि में डालना समूल सिद्ध हुआ।

यज्ञ के बहुत से प्रयोजन हुआ करते हैं, उनमें स्वर्ग की प्राप्ति एक पारलौकिक प्रयोजन है, जैसे कि−अथर्व वेद संहिता में कहा है−‘यैरीजानाः स्वर्ग यान्ति लोकम्’ (18।4।2)। इसी प्रकार न्यायदर्शन (5।1।3) ऐतरेय ब्राह्मण (1।2।10) शतपथ ब्राह्मण (12।4।3।7) तथा महाभाष्य (6।1।84) में भी कहा है। यज्ञ में प्रत्येक देवता के नाम से आहुति दी जाती है, यह देवताओं की पूजा होती है। तभी उनकी प्रसन्नता से स्वर्ग की प्राप्ति स्वाभाविक है। तभी भगवद् गीता में कहा है−‘देवान् देवयजो याज्ञि’ (7।23)। देवताओं का निवास होता है स्वर्ग में। जैसे कि वेद में कहा है—‘दिवि देवाः’ (अथर्व 11।7।23), और अथर्ववेद (18।4।3)।

यज्ञ का प्रयोजन केवल स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती, अपितु विविध कामनाओं की पूर्ति भी प्रयोजन हुआ करता है, उसमें भी कारण देर पूजा ही हुआ करती है,क्योंकि—देवता विविध कामनाओं को पूर्ण किया करते हैं। जैसे कि ऋग्वेद संहिता (10।64।2) में कहा है, वह मन्त्र हम पहले लिख चुके हैं। तभी तो ऋग्वेद सं॰ में कहा है—‘यत्कामास्ते जुहुयः, तन्नो अस्तु’ (ऋ॰ 10।121।10) इस मन्त्र में भी हवन से विविध कामनाओं की पूर्ति सूचित की गई है। ‘वयं त्याम पतयो रयीणाम्’ इस उक्त मन्त्र के अन्तिम अंश से यज्ञ से विविध ऐश्वर्यों की प्राप्ति बताई गई है। इस मन्त्र में प्रजापति देवता का वर्णन है, इसीलिए हवन में ‘प्रजापतये स्वाहा’ यह कहा जाता है।

यज्ञों के विविध कामनाओं के पूर्ण करने वाले होने से ही महाभाष्य (1।1।63) में ‘चक्षुष्कामं या जपाञ्चकार’ इस उदाहरण में यज्ञ द्वारा नेत्र शक्ति दान रूप फल भी सूचित किया गया है। न्यायदर्शन के (2।1।68) सूत्र के भाष्य में ‘ग्रामकामा यजेत’ यह वैदिक प्रमाण देकर यज्ञ विशेष का फल ग्रामाधिपति हो जाना भी कहा है। (2।1।57) सूत्र के न्याय दर्शन के भाष्य में ‘ पुकामः पुत्रोष्टया यजेत’ इस वैदिक प्रमाण से यज्ञ विशेष का फल पुत्र प्राप्ति भी सूचित किया गया है। इस प्रकार वृष्टि की कामना से कारीरी इष्टि (यज्ञ ) भी हुआ करती है। इस भाँति शतपथ (13।2।6।3) में अश्वमेध का फल तेज, इन्द्रिय, पशु, ब्रह्महत्या दूर होनी तथा लक्ष्मी की प्राप्ति कही है। राजसूय यज्ञ का फल अकाल मृत्यु निवारण कहा है। यह कामनाएं यदि स्वार्थपूर्ति के लिए न की जाएं, किन्तु प्रजा के लिए वो देश के लिए की जाएँ तब यज्ञ समष्टिगत हो जाने से उसका अतिशयित महत्व हो जाता है।

यज्ञ का प्रयोजन केवल वायु शुद्धि नहीं। केवल वायु शुद्धि ही फल होता तो बहुत महँगे घृत का उपयोग वहाँ पर व्यर्थ था, उससे भी सस्ते उपायों से वायु शुद्धि हो सकती थी, तब तो यज्ञ म्यूनिसिपैलिटी के कूड़े के पात्रों में, पाखानों में, या नालियों के पास ही होना ठीक होता। वहाँ तो वेदमन्त्रों के बिना भी वायु शुद्ध हो जाती।

वस्तुतः यज्ञ देवताओं का पूजन वा तर्पण हुआ करता है−यह पहले कहा ही जा चुका है। देवताओं का भक्ष्य घृत होता है। जैसे कि−स्वर्गलोक से यहाँ आई हुई उर्वशी ने पुरूरवा को कहा था−‘घृतं में वीर! भक्ष्यं स्यात्, (श्रीमद्भागवत् 9।14।22) केवल पुराण में ही नहीं, ब्राह्मणभागात्मक वेद में भी कहा है—‘घृतस्य स्तोकँ सकृद् अह्न आश्नाम, तादेव इदं तातृयाण चरामि’ (शतपथ॰ 11।5।1।10) यहां भी उर्वशी कहने वाली है। केवल ब्राह्मणभागात्मक वेद में ही नहीं, प्रत्युत मन्त्रभागात्मक वेद में भी उर्वशी ने यही कहा है—‘घृतस्य स्तोकं सकृद् अह्न आश्नाम्’ (ऋ॰ 10।95।16) इस मन्त्र में उर्वशी और पुरूरवा ऋषि−देवता हैं। उर्वशी देव−अप्सरा थी, इस कारण घृत उसका भक्ष्य माना गया है।

इसी कारण देव पूजनात्मक यज्ञ में भी घृत अपेक्षित होता है। तभी शतपथ ब्राह्मण में कहा है—एतद् वै देवानाँ प्रियं धाम यद् आज्यम्’ (घृतम्)’ (13।3।6।3) ‘आज्येन जुहोति’ (13।36।2) इसी कारण यज्ञ के अंग हवन में—जिसका उद्देश्य देवताओं का पूजन वा तर्पण है—घृत डाला जाता है। यहाँ मुख्य कारण देवताओं की प्रसन्नता है, केवल वायु शुद्धि नहीं।

इसके अतिरिक्त यज्ञ में वेद मन्त्र भी इसीलिए पढ़े जाते हैं, क्योंकि−यज्ञ वेद का विषय है और यज्ञ होता है देव पूजार्थ, इस कारण उसमें वेद मन्त्रों की आवश्यकता भी पड़ती है, क्योंकि वेद मन्त्रों के उपास्य वा विषय भी देवता ही होते हैं इस कारण यज्ञ के समय के लिए निरुक्त में कहा है−‘यस्यै देवतायै हविर्गृहीतं स्यात्, ताँ मनसा ध्यायेत् (8।22।11) अर्थात् यज्ञ के समय तत्तद् देवता का मन से ध्यान भी करे। इस कारण वेद मन्त्रों का उच्चारण यज्ञ में सफल है।

यज्ञ से वायु शुद्धि अवान्तर उद्देश्य होता है—साक्षात् नहीं, उसका प्रकार गीता एवं मनुस्मृति में कहा है−‘अन्नाद् भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः। यज्ञाद् भवति पर्जायो यज्ञः कर्मसमुद्भवः’ (गीता 3।14) ‘अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्वमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजा’ मनु 37॰) अर्थात् यज्ञ करने पर उसे अग्नि, सूर्य चन्द्र आदि आकृष्ट कर लेंगे, उससे मेघ बनेंगे, जिससे वृष्टि होगी, वृष्टि से अन्न भी होगा, वायु शुद्धि भी होगी। प्रणियों की तृप्ति भी होगी।। वेद में भी कहा है−‘अहं वृष्टिं (वर्षणं, मनोरथवर्षणं) [हविः] दाशुषे मर्त्याथ [अददाम्]’ (ऋ. 4।26।2)।

इस प्रकार में भी स्पष्ट है कि−यज्ञ का मुख्य उद्देश्य वायुशुद्धि नहीं है, किन्तु मुख्य उद्देश्य देवताओं को प्रसन्न करना है, उससे सारे जगत की तृप्ति होती है−यही यज्ञ का महत्त्व है। यही बात ‘ मनुस्मृति’ में कही है−‘दैवे कर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चरारचम्’ (3।75) यज्ञाग्नि में डाला हुआ घृत आदि व्यर्थ नहीं जाता, किन्तु भूमि में बोये हुए बीज की तरह सूक्ष्म होकर अधिक शक्ति सम्पन्न होकर देवताओं के पास जाता है, और अधिक फलप्रद होता है। (भगवद्गीता में यज्ञ को देवताओं की प्रसन्नता के लिए ही माना है जैसे कि—‘सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः। अनेन प्रसविष्यध्वं एव वोस्त्विष्टकामधुक्’ (3।10) देवान् भावयतानेन (यज्ञेन) ते देवा भावयन्तु वः। परस्पर भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ (3।11) इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः। तैर्दत्तान् प्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव स’ (3।12) इससे स्पष्ट सिद्ध है कि—यज्ञ देव पूजा का पर्यायवाचक तथा उसका अन्यतम साधन है। उससे विविध कामनाओं की पूर्ति होती है। शतपथ ब्राह्मण में भी कहा है—‘सर्वाह वै देवता अध्यंयुं हविर्न्तहीषन्तम् उपतिष्ठन्ते−−मम नाम ग्रहीष्यति, मम नाम ग्रहीष्यतीति ‘(1।1।2।18) इससे देवताओं के नाम से आहुति देना देवताओं के प्रसन्नार्थ है, इससे प्रसन्न होकर देवता आहुतिदाता के मनोरथों की पूर्ति करते हैं। इस कारण यज्ञों का हिंदू धर्म में बहुत महत्व माना गया है।

नारायणोपनिषद् में कहा गया है−‘यज्ञेन द्विषन्तो मित्राभवन्ति, यज्ञे सर्वं प्रतिष्ठितम्, तस्माद् यज्ञं परमं वदन्ति’ (79) यहां पर यज्ञ से शत्रुओं का भी मित्र बनना कहा है। श्रीमद्भागवतपुराण में तो यहाँ तक कहा है कि- जिस देश में यज्ञ पुरुष भगवान् कि पूजा होती है, वहां पर भगवान् प्रसन्न होते हैं। भगवान् प्रसन्न हुए, तो कोई वस्तु अप्राप्य नहीं रहती ‘यस्य राष्ट्रे पुरे चैव भगवान् यज्ञ पुरुषः। इज्यते स्वेत धर्मेण जनैर्वर्णाश्रमान्वितैः। तस्य राज्ञो महाभाग। भगवान् भूतभानः। परितुष्यति विश्वात्मा तिष्ठतो निजशासने। तास्मिंस्तुष्टे किमप्राप्यं जगत मीश्वरेश्वरे’ (4।14।18-19-20)। पद्मपुराण सृष्ठि खण्ड में भी कहा है- ‘यज्ञेनाप्यायिता देवा वृष्टयुत्यर्गेण मानवाः। अप्यायनं वै कुर्वन्ति यज्ञाः कल्याणहेतवः’ (3।124) इसी कारण अथर्ववेद संहिता में कहा है- ‘यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः। (9।10।24) यहां यज्ञ को सारे भुवन का केन्द्र कहा है।

यज्ञों के न होने से देवताओं का कोप होता है, उसी से देश में अकाल, युद्ध-महायुद्ध, उनके कारण महर्धता-पिशाची का अकाण्ड ताण्डव हुआ करता है। देवताओं के कोप से अतिवृष्टि वा अनावृष्टि अतिवायु, अतिग्रीष्म, अतिशीत आदि हुआ करती है, जिनसे अकाल की कराल ज्वालाएं फैलती हैं। देवताओं के कोप का दूसरा चिन्ह होता है हमारी बुद्धि का नाश। महाभारत में कहा है- देवता डण्डा उठाकर पुरुषों की रक्षा नहीं करते। जिसकी रक्षा करना चाहते हैं, उसकी बुद्धि बढ़ा देते हैं, जिसे गिराना चाहते हैं, उसकी बुद्धि छीन लिया करते हैं (उद्योग पर्व (34।80।81) कौन नहीं जानता कि−युद्ध−महायुद्ध आदि उसी बुद्धि बुद्धि भ्रंश के परिणाम हैं, जिससे महंगाई फैलती है।

इन्हीं देवताओं के प्रसादनार्थ यज्ञ तथा उसके अंगभूत जपपाठ, देवमूर्ति पूजा आदि आवश्यक सिद्ध होते हैं। उसमें गायत्री के जप से वा यज्ञ से ग्रहों की प्रतिकूलता भी दूर हो जाती है, जैसे कि—महाभारत में कहा—‘ये चास्य दारुणाः केचिद् ग्रहाः सूर्यादयो दिवि। ते चास्यसौम्या जापन्ते शिवाः शिवतराः सदा’। (वनपर्व 200।85)। देवताओं की प्रसन्नता से ही भगवान भी प्रसन्न होते हैं, क्योंकि भगवान् अंगी हैं, देवता अंग हैं। इसी कारण हिंदू धर्म में यज्ञों को स्वीकृत किया गया है। देवगण की सहायता से ही सकल अनर्थकारी अधर्म हटता है, ओर विश्वकल्याणकारी धर्म की स्थापना होती है—‘यज्ञ शिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः। (गीता 3।13)। अधर्म के कारण ही जनपदों का ध्वंस होता है, जैसा कि—सुश्रुतसंहिता के (सूत्र स्थान (6।20) और चरक संहिता ( के विमान स्थान 3।21−22) में भी बड़े स्पष्ट शब्दों में कहा है, उसी को दूर करने के लिए ‘देव−गो−ब्राह्मण, गुरु , वृद्ध, सिद्धाचापनि अर्चयेद्’ अग्निमुचरेत्।(चरकसूत्रस्थान 5।18) ‘जप होमोपहारेज्याञ्जलिनमस्कार तपोनियमदयादानदीक्षाभ्युपगम, देवता ब्राह्मण गुरुपरैर्भवितव्यम्’ (सुश्रुत.सूत्र 6।21) देवपूजनादि कहा है।

यज्ञों में वेदज्ञ ब्राह्मण सम्मिलित होते हैं, तो यज्ञ में जहाँ देवपूजन होता है, उसके साथ ही साथ भू देवों का सत्कार भी हो जाता है, जो वे विविध वृत्तियों को छोड़ कर कर भोग विलासों को दूर करके वेदों की रक्षार्थ कठोर ब्रह्मचर्य कर चुके हैं उन विद्वान् ब्राह्मणों का दर्शन भी हो जाता है। उनकी पूजा से भी देवता प्रसन्न हो जाते हैं। जैसा कि कृष्णयजु−र्वेद तैत्तिरीयारण्याक में कहा है—‘यावतीर्यै देवताः ताः सव वेदविदि ब्राह्मणे वसन्ति। तस्माद् ब्राह्मणेभ्यो वेदविद्भ्यो दिवे दिवे नमस्कुर्याद्, नाश्लीलं कीर्तवेद्, एता देवताः प्रीणति’ (2।15)। तब द्विजों को उचित है कि—देवताओं की कृपाप्रत्यर्थ यज्ञों को करें, जिससे देवताओं के कोप दूर होने से देश में शान्ति रहे, जिससे देशवासी शान्ति का श्वास ले सकें। पुराणों में जो यज्ञों के माहात्म्य कहे गये हैं−उसमें अर्थवाद न समझ कर वास्तविकता ही समझनी चाहिये। सृष्टि के सर्वादिम याज्ञिक काल में ही भारत सुखी एवं समृद्ध था। यह नहीं भूलना चाहिए। इस यज्ञ की ‘अखण्ड ज्योति’ को भारतीय कभी बुझने न दें, कभी बुझने न दें, यह उन्हें हमारी प्रेरणा है।


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