यज्ञ द्वारा देव शक्तियों की तुष्टि−पुष्टि

July 1955

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सृष्टि सञ्चालन करने वाली ईश्वर की शक्तियों का नाम देवता है। यह अनेक शक्तियाँ अनेक देवताओं के नाम से कही जाती हैं। इसका समस्त संसार की विभिन्न समस्याओं से तथा मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन की सुख समृद्धि, उन्नति अवनति हानि लाभ, रोग, शोक आदि से अत्यंत घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। इन देव शक्तियों की अनुकूलता प्राप्त करके मनुष्य बड़ी सरलता पूर्वक अपनी उन्नति का द्वार खोल सकता है। और यदि ये देव प्रतिकूल हों तो मनुष्य का कठोर परिश्रम भी निष्फल चला जाता है। देव शक्तियों को अनुकूल बनाने के लिए जितने भी साधन आदि याज्ञिक क्षेत्र में गिनाये गये हैं इनमें यज्ञ सर्वश्रेष्ठ है। यज्ञ से देवता प्रसन्न होते हैं और अभीष्ट परिणाम प्रदान करते हैं, इसके अनेक प्रमाण उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ नीचे दिये जाते हैं:—

मत्स्य उवाच:—

प्रीयतां पुण्डरीकाक्षः सर्वयज्ञेश्वरो हरिः

तस्मिंस्तुष्टे जगत् तुष्टं प्रीणिते प्रीणितं भवेत्॥38॥

—अध्याय 239 श्लो. 38

अर्थ—कमल नयन भगवान विष्णु यज्ञ से प्रसन्न होते हैं, उनके संतोष में जगत् संतुष्ट है उनकी प्रसन्नता में जगत् प्रसन्न होता है।

दैत्यराज बलि के यज्ञ में स्वयं वामन रूप धारण कर भगवान जनार्दन को आना पड़ा। अतिथि रूप में नहीं अपितु अभ्यागत रूप में।

व्रतोपवासैर्विविधैः प्रतिसंग्राह्यते हरिः

स चेद्वच्यति देहीनि गोविन्द किमतोऽधिकम्॥20॥

(अध्याय 246 श्लोक 20)

जो प्रभु नाना प्रकार के व्रत उपवास करने पर दुर्लभता से प्राप्त होता है। वही गोविन्द यदि दान देवे के लिये कहे, इससे अधिक और क्या हो सकता है। यह सब बलि के यज्ञ का ही प्रभाव है।

किन कर्मों से किन फलों की प्राप्ति होती है, ऐसा ऋषियों के पूछने पर हंस ने कहा।

श्लोक :—

यज्ञेनलोकानाप्नोति पाप नाशं हुतेन च।

जप्येनकामानाप्नोतिसत्येनचपराँ गतिम्॥

—विष्णु धर्मोत्तर पुराण, अध्याय 137 श्लो. 3

अर्थ:—“मनुष्य” यज्ञ करने से विष्णु इत्यादि लोकों को प्राप्त करते हैं, हवन करने से पापों का नाश होता है, जप करने से कामादि भोगों को प्राप्त करते हैं और सत्य बोलने से परमपद की प्राप्ति होती है।

हंस यज्ञ की प्रशंसा वर्णन कर रहे हैं।

श्लोक:—

यज्ञेनदेवा जीवन्ति यतेन पितरस्तथा। देवाधीनाःप्रजासर्वा यज्ञधीनाश्चदेवताः॥10॥

यज्ञोहि भगवान्विष्णुर्यत्र सर्व प्रतिष्ठिम्।

यज्ञार्थ पशवःस्रष्टा देवास्त्वौषधयस्तथा॥2॥

यज्ञार्थ पुरुषाःस्रष्टा स्वयमेवस्वय भुवा।

यज्ञश्च भूत्यै सर्वस्य तस्माद्यज्ञ परो भवेत्॥3॥

यज्ञाशिष्टाशिनःसन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्विषैः।

धनंयद्यज्ञशीलानांदेवस्वं तंविदुवुधाः॥4॥

यज्ञेन सम्यक्पुरुषस्तु नाके

सम्पूज्यमानस्त्रिदशै र्महात्मा।

प्राप्नोति सौख्यानि महानुभावा−

स्त स्मात्प्रत्नेन यजेत यज्ञैः॥7॥

—विष्णु धर्मोत्तर पुराण, अध्याय 162

अर्थ:—यज्ञ देवता जीते हैं तथा पितृ जीते हैं, देवताओं के आधीन सब प्रजा हैं और यज्ञ के आधीन सब देवता हैं। यज्ञ ही भगवान् विष्णु हैं, जिन विष्णु भगवान् में सब प्रतिष्ठित हैं, यज्ञ के लिये देवता तथा औषधियों की सृष्टि की गई है।

स्वयम्भू जी ने यज्ञ के लिये ही मनुष्यों की सृष्टि की, और कहा—यज्ञ सब का कल्याणकारी है इसलिये यज्ञ में तत्पर रहो। यज्ञावशिष्ट का भोजन करने वाले सब पापों से मुक्त हो जाते हैं, यज्ञशीलों के धन को पण्डितों ने देवस्य, दिव्य माना है।

यज्ञ के द्वारा महात्मा पुरुष स्वर्ग में जाकर देवताओं द्वारा अच्छी तरह पूजित होते हैं “हंस ऋषियों से कह रहे हैं” हे महानुभाव ऋषियों! यज्ञकर्ता महात्मापुरुष स्वर्ग में जाकर अनेक सौख्यों को प्राप्त करते हैं, इसीलिये प्रयत्न पूर्वक यज्ञों द्वारा भगवान् का यजन करे।

हंस जी हवन विधि का ऋषियों से वर्णन कर रहे हैं।

श्लोक:—

अग्निर्मुख देवतानाँ सर्वभूत परायणम्।

तस्यशुश्रूणादेव सर्वान्कामान्समश्नुते ॥

सा मुर्तिपरमाविष्णो स्तदत्तं प्राप्नुते रविः।

सूर्याद् बृष्टिस्तत स्त्वन्नात्प्रभवेत जगत्॥

अधःप्रवषिंणोदेवा भौमास्तूध्वं प्रवर्षिणः।

ऊर्ध्व प्रवर्षिणं मुख्यं भौमंदत्तं हुताशने॥

वह्निदत्तेन हविषा तृप्ति मायन्ति देवताः।

तास्तृप्ता स्तर्पयन्त्येनं नरंकामसमृद्धिभिः॥

होमेन पापं पुरुषो जहाति,

होमेन नाकं च तथा प्रयाति।

होमस्तु लोके दुरित समग्रं−

विनाश यत्वेव न संशयोऽत्र ॥

—विष्णु धर्मोत्तर पुराण अध्याय 287 श्लोक−3,4,5,7,15

अर्थ:—सर्वभूतपरायण देवताओं का मुख अग्नि है, देवताओं की शुश्रूषा करने से ही सब कामों की प्राप्ति होती है। यज्ञाग्नि ही विष्णु की परम मूर्ति है, उसी अग्नि में आहुति देने से सर्व हव्य को सूर्य प्राप्त करता है। सूर्य से वृष्टि होती है वृष्टि से अन्न और अन्न से जगत की उत्पत्ति होती है।

देवता नीचे की तरफ वर्षा करते हैं और मनुष्य लोग ऊपर की तरफ वर्षा करते हैं, अग्नि में “भूमि से उत्पन्न” हव्यों का हवन करना मुख्य ऊर्ध्व प्रवर्षण है।

अग्नि में हवि का हवन करने से देवताओं का तृप्ति होती है। वे देवता तृप्त होकर उस मनुष्य को इच्छित समृद्धि के द्वारा सन्तुष्ट करते हैं।

यज्ञ करने से आत्मा का मल दूर होता है, और यज्ञ करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है यज्ञ से लोक के समस्त दुष्कर्म नाश होते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं। दैवेकर्मणियुक्तोहि बिभर्त्तीदं चराचरम॥75॥ अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्य मुपतिष्ठते। आदित्याज्रायते वृष्टिबृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥76॥

—मनुस्मृति तीसरा अध्याय

अर्थात् जो देव−होम कर्म में युक्त है, वह चराचर का पोषण करता है। क्योंकि अग्नि में डाली आहुति आदित्य को पहुँचती है और सूर्य से वृष्टि होती है और वृष्टि से अन्न, अन्न से प्रजा होती है। इसलिए जो यज्ञ करता है, वह सम्पूर्ण प्रजा का पालन करता है।

यज्ञैराप्यापिता देवा वृष्टयुत्सर्गेणवैप्रजाः। आप्याययन्तेधर्मज्ञयज्ञाःकल्याण हेतवः।।8।।

श्री विष्णु पुराण प्र. अंश अध्याय 6

अर्थ—हे धर्मराज! यज्ञ से तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजा को तृप्त करते हैं। यज्ञ सर्वथा कल्याण का हेतु है।

भरद्वाज उवाच—

या यज्ञैरिज्यते देवो वासुदेवः सनातनः।

स सर्वे दैवत तनुः पूज्यते परमेश्वर॥

—कुर्म पुराण पूर्वार्ध अ. 20 श्लो.40

भावार्थ:—जो यज्ञों में सनातन वासुदेव का भजन करते हैं, वह सब देवों के शरीर रूप परमेश्वर का पूजन करते हैं अर्थात् सनातन वासुदेव का यज्ञों में यजन करने से सर्व देवताओं का यजन हो जाता है।

ब्रह्माजी ऋषियों को भगवान शिव के प्रसन्न करने का साधन बताते हैं—

तस्मादीश प्रसादार्थ यूय गत्वा भुव द्विजाः

दीर्घसत्र समाकृध्व यूय वर्ष सहस्रकम्॥1॥

शिवपुराण वि. स. 1 अ. 4

अर्थ−(यज्ञ ही शिव को प्रसन्न करने का श्रेष्ठ साधन है।) इसीलिये हे ऋषिगणों! तुम सभी पृथ्वी पर जाकर एक सहस्र वर्ष तक दीर्घकालीन विशाल यज्ञ करो।

श्रीनारदीयमहापुराण से ये वाक्य लिये गये हैं—

ये विष्णुभक्ता निष्कामा यंजंति परमेश्वरम।

त्रिसप्ताकुला संयुक्तास्ते यांति हरिमंदिरम्॥

बृहद् नारदपुराण अ. 39 श्लो. 61

इसका भाव प्रायशः ऐसा है−

जो निष्काम भाव से यज्ञ के द्वारा परमात्मा का पूजन करता है, वह अपने इक्कीस पीढ़ियों को हरि मन्दिर पहुँचाता है।

1 ये यणांति स्पृहा शून्य हरि भक्तान् हरिं तथा त एवं भुवनं सर्व पुनंति स्वांध्रिपांशुना

पृ. वा. पु. अ. 39 श्लो. 64

सूत जी ऋषियों से कहते हैं—

जो ममता के बिना ईश्वर तथा ईश्वर भक्तों को यज्ञ के द्वारा पूजते हैं, वही अपने चरण रज से सारे संसार को पवित्र बनाते हैं।

श्लोक:—

देव देव पतिः साक्षा द्विष्णुर्वामनरूप धृक् तुष्टाव यज्ञं बहि चयजमानमथर्त्विजः ॥

यज्ञं कर्माधिकार स्थान्सदस्यान्द्रयसंपदः॥

वामन पुराण (37।46)

अर्थ—देवाधि देव साक्षात विष्णु भगवान वामन रूपधारी ने यज्ञ तथा अग्निदेव को सन्तुष्ट किया, जैसे ऋत्विज् यजमान को करता है।

शिवजी कहते हैं—

इज्यया चैव मन्त्रेण मामेव हि यजंति ये।

न तेषां भयमस्तीति भवं रुद्रं यजन्ति यत्॥43॥

मत्स्य पुराण अध्याय 183।1 ला. 43

अर्थ:—यज्ञ व मन्त्र से जो मेरा ही पूजन करते हैं, जो रुद्र का यजन करते हैं वे भय रहित हो जाते हैं।

अविमुक्ते यजन्ते तु मद्भक्ताः कृतनिश्चयाः तेषां पुनरावृत्तिः कल्प कोटिशतैरपि ॥24॥

अर्थ—दृढ़ निश्चययुक्त मेरे भक्त मुक्ति के लिये यदि यज्ञ से मेरा यजन करे तो सैकड़ों, करोड़ों कल्पों तक उनकी संसार में पुनरावृत्ति नहीं होती।

यज्ञाद्देवाः प्रजाश्चैव यज्ञादन्नान्नि योगिनः॥

सर्वयज्ञात्सदाभाविस सर्वयज्ञममज्ज्गत्॥॥140॥

कालिका पुराण अध्याय 3।

यज्ञ से देवता व प्रजा सन्तुष्ट होते हैं। यज्ञ से अन्न की उत्पत्ति होती है। यज्ञ करने से ही संसार हमेशा शोभा पाता है। यह सारा संसार यज्ञ रूप ही है।

यज्ञेषु देवास्तुष्यन्ति यज्ञे सर्वम्प्रतिष्ठित्तम्॥

यज्ञेन ध्रियते पृथ्वीयज्ञस्तारयति प्रजा॥7॥

(अध्याय 32)

यज्ञों से देवता सन्तुष्ट होते हैं यज्ञों में सारा संसार प्रतिष्ठित है। पृथ्वीमाता यज्ञ से धारण की हुई हैं यज्ञ ही प्रजा को तारती है।

कालिका पुराण (अध्याय 32)

भोक्ता स सर्व यज्ञानाँ शंकरः परमार्थतः॥

सौर पुराण अ. 7 श्लो. 14

भगवान शंकर यज्ञ के भोक्ता हैं। अर्थात् भगवान शंकर यज्ञ से प्रसन्न होते हैं।

इज्यते सर्व यज्ञेषु

(सौ. पु. 7।36)

यज्ञ से भगवान शंकर की पूजा होती है।

यज्ञैश्चान्येयजन्त्येवतर्पयन्ति जनार्दनम् ॥ तेनचान्नेनदेवेशतृप्तिंगच्छान्ति देवता॥38॥

पद्म पुराण 5 वाँ खण्ड

सत्पुरुष यज्ञ द्वारा भगवान का पूजन करते हैं जिसके द्वारा देवता तृप्त होते हैं।

यज्ञ के द्वारा उत्पन्न हुई शक्ति देवताओं को सबल बनाती है और उसी से परिपुष्ट होकर वे सृष्टि रचना से लेकर विश्व कल्याण के समस्त कर्मों का आयोजन करते हैं।

श्री पराशर उवाच−मैत्रेयजी की ब्रह्माजी की सृष्टि एवं वर्ण, गुण, कर्म सम्बन्धी जिज्ञासा के उत्तर में पराशरजी कह रहे हैं।

यज्ञ निष्पत्तये सर्वमेतद् ब्रह्मा चकार वै।

चातुर्वर्ण्य महाभाग यज्ञ साधन मुत्तमम्॥7॥

अर्थः−हे महाभाग! ब्रह्मा जी ने यज्ञानुष्ठान के लिये ही यज्ञ के उत्तम साधन रूप इस सम्पूर्ण चातुर्वण्य की रचना की थी।

भगवान ने यज्ञ को मानव का साक्षात धर्म बतलाया है क्योंकि यज्ञ ने सारा संसार धारण किया है इसका प्रतिपादन यजुर्वेद में किया है:—

तस्माद्य ज्ञात्सर्वहुतः सम्मृत पृषदाज्यम्।

पशू स्तांश्चक्रे वायव्यानारण्या ग्राम्याश्चये॥

तस्माद्यज्ञात्सर्वहुतऽऋचः सामनि जज्ञिरे।

छन्दसि जज्ञिरे तस्माद्यजुस्तस्मादजायम॥

(यजु. 11−6−7॥)

अर्थ—परमात्मा ने यज्ञ से संसार के सब पशुओं को और ऋचाओं अर्थात् वेद ज्ञान ऋग, यजु, साम, अथर्व से ही रचा और प्रकट किया और यज्ञ से ही इनको धारण कर रक्खा है।

यज्ञ द्वारा देवताओं का जब उनका भाग प्राप्त नहीं होता, वे दुर्बल हो जाते हैं, फल स्वरूप संसार पर नाना प्रकार की आपत्तियाँ आती हैं। यथा:—

कालिका पुराण

मार्कण्डेयउवाच:—

यज्ञाभावातु देवनामन्नं सर्वक्षयंगतम्॥ पर्जन्याश्च ततोनष्टा स्ततोनष्टास्ततो वृष्टिर्न्नवाभवत् ॥112॥

वृष्टयेभावेतु लोकानामाहाराः क्षीणतांगता॥ दुर्भिक्ष व्यसनोपेते सर्व लोके द्विजोत्तमा॥।13॥

कालिका पुराण अध्याय 20

अर्थ:—मार्कण्डेयजी कहते हैं कि यज्ञ के अभाव से देवों के अन्न का क्षय होता है। फिर बादलों के नष्ट होने से वर्षा का होना बन्द हो जाता है। वृष्टि के अभाव होने से मनुष्यों को भोजन की कमी हो जाती है और सब लोक अकाल−दुर्भिक्ष से ग्रस्त हो जाते हैं।

यज्ञे विनष्टे सकलाः प्रजाः क्षुद्भयकातराः॥

वृष्टयभावान्महद्दु खम्वाप्येष्टाश्चाम्बन ॥16॥

(कालिका पुराण अध्याय 20)

यज्ञों के बन्द होने पर सारी प्रजा भय से दुखी हो जाती है। और वर्षा के अभाव से प्रजा बहुत कष्ट पाकर नष्ट हो जाती है।

नयज्ञा सम्प्रवर्त्तन्तेनतपस्यान्ति तापसाः॥ आहार दुःखानि श्री काः प्रजाः क्षीणाभयातुराः॥19

यज्ञों और तपस्या के न करने से प्रजा आहार की कमी से उत्पन्न दुख से, धन की कमी से तथा भय से व्याकुल हो जाती है।

यज्ञ की महिमा अपार है। उसको विश्व क्षेत्र में विचरण करने वाला एक निर्द्वन्द साँड़ कहा गया है। इसकी शक्ति की सर्वत्र विजय घोष हो रहा है। यह यज्ञ रूपी साँड़ अपनी दहाड़ से संसार को कम्पायमान करता रहता है:—

चत्वारि श्रंगा त्रमो अस्म पादा द्वे शीर्ष सप्तहस्ता सो अस्म।

त्रिधा बद्धो बृषभो रोरवीति महोदेवो मर्त्या अविशेषे॥

(गो. ब्रा.3।7)

अर्थ—ऋग् यजुः, साम एवं अथर्व चारों वेद इसके चार सींग हैं। प्रातः मध्याह्न और सायं-सवन ये तीन सवन इसके तीन पैर हैं। व्रह्मादन प्रवर्ग्य दो मस्तक हैं। मन्त्र, कल्प, ब्राह्मण इन तीनों से यह मर्यादित है। इसके सात हाथ गायत्री आदि सातों छन्द हैं। ऐसा यज्ञ−वृषभ संसार में रोर कर रहा है।


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