उपनिषदों में यज्ञ—रहस्य का वर्णन

July 1955

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कठोपनिषद् प्रथम प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली में यम और नचिकेता संवाद में यज्ञों को स्वर्ग प्राप्ति का प्रथम साधन बताया गया है—

नचिकेता ने यमराज से पूछा—

स त्वमग्नि स्वर्गम ध्येषि मृत्यो प्रब्रूहित्व श्रद्दधानाय मह्म। स्वर्ग लोका अमृतत्व भजन्ते एतद्द्वितीयेन वृणे वरेण।।13।।

अर्थ—हे मृत्युदेव! स्वर्ग का प्राप्ति के साधन रूप अग्नि को (यज्ञ प्रक्रिया को) भली भाँति जानते हैं अतः आप उस अग्नि विद्या को मुझ श्रद्धालु को अच्छी तरह समझा कर कहिए, जिसे जानकर लोग स्वर्गलोक में रहकर अमृतत्व को प्राप्त होते हैं। यह मैं आपसे दूसरा वर मांगता हूँ॥12॥

तब यमराज बोले—

प्रते ब्रवीमि तदु मे निबोध स्वर्ग्यमग्निंन नचिकेतः प्रजानन। अनन्त लोकाप्ति मथो प्रतिष्ठां विद्धित्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥14॥

अर्थ—हे नचिकेता! स्वर्गदायिनी अग्नि विद्या (यज्ञ विधि) को भली भाँति जानने वाला मैं तुम्हारे लिये उसे अच्छी तरह बतलाता हूँ। उसे मुझसे भली भाँति जान लो। तुम इस विद्या को अनन्त लोक की प्राप्ति कराने वाली, उसकी आधार स्वरूपा तथा बुद्धि रूपी गुहा में निहित (छिपी हुई) जानो।

अग्नि विद्या यानी यज्ञ प्रकरण की सारी विधियाँ बताने के उपरान्त उस अग्नि विद्या का फल यमराज बताते हैं।

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य संधि त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू। ब्राह्मजज्ञं देव मीड्यं विदित्वा निचाय्येमा शान्तिमत्यन्तमेति॥17॥

अर्थ—इस अग्नि का शास्त्रोक्त रीति से तीन बार अनुष्ठान करने वाला पुरुष ऋक्, यजुः साम—तीनों वेदों के साथ सम्बन्ध जोड़ कर, यज्ञ, दान, तप−रूप तीनों कर्मों को करता रहने वाला मनुष्य, जन्म−मृत्यु से उतर जाता है। ब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि को जानने वाले स्तवनीय इस अग्नि को भली भाँति जानकर, इसका ठीक रीति से चयन करके उस अनन्त शाँति को प्राप्त कर लेता है, जो मुझको प्राप्त है ॥17॥

प्रश्नोपनिषद् में यज्ञ को देवताओं, पितरों और ऋषियों का जीवन प्राण बताया गया है।

देवानामसि वह्नितमः पितृणां प्रथमा स्वधा। ऋषीणाँ चरितं सत्यमथर्वांगिरसामसि॥

प्रश्नोपनिषद् द्वितीय प्रश्न, 1 श्लोक 8

अर्थ—(हे यज्ञ! तू) देवताओं के लिये उत्तम अग्नि है, पितरों के लिये प्रथम स्वधा है, अथर्वांगिरस आदि ऋषियों द्वारा आचरित सत्य है।

मुण्डकोपनिषद् द्वितीय खण्ड श्लोक 5

एतेषुं यश्चरते भ्राजमानेषु यथाकालं चाहुतयो ह्य ददायन् तं नयन्त्येताः सूर्यस्य रश्मयो यत्र देवानां परिरेकोऽधिवासः ॥5॥

अर्थ—जो कोई भी अग्निहोत्री इन दैदीप्यमान ज्वालाओं में ठीक समय पर अग्निहोत्र करता है, उस अग्निहोत्री को निश्चय ही अपने साथ लेकर ये आहुतियाँ, सूर्य की किरणें बनकर उस स्वर्ग लोक में पहुँचा देती हैं, जहाँ देवताओं का एक मात्र पति निवास करता है।

एह्येहीति तमाहुतयः सुवर्चसः सूर्यस्य रश्मिभिर्थजमानं वहन्ति। प्रियां वाचमभिवदन्त्योऽर्चयन्त्य एष वः पुण्यः सुकृतो ब्रह्मलोकः ॥6॥

अर्थ—उन प्रदीप्त ज्वाला में दी हुई आहुतियां, आओ, आओ यह तुम्हारे शुभ कर्मों से प्राप्त पवित्र ब्रह्मलोक है, इस प्रकार की प्रिय वाणी बारम्बार कहती, उसका आदर सत्कार करती हुई उस (यज्ञ कर्त्ता) यजमान को सूर्य की रश्मियों द्वारा ब्रह्मलोक में ले जाती हैं।

सरस्वती उपनिषद् 14 में

“यज्ञं बष्टु धिया वसुः” वचन है। जिसका तात्पर्य है—यज्ञ से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। आगे चल कर मन्त्र 17 में “ यज्ञं ‘ दधे सरस्वती” वचन है। जिससे प्रकट होता है कि यज्ञ में ही सरस्वती प्रसन्न होती है।

छान्दोग्योपनिषद् द्वितीय अध्याय, तृतीय खण्ड के श्लोक 1, और 2 में यज्ञ द्वारा वर्षा कराने की विद्या का संकेत किया गया है।

“वृष्टि में पाँच प्रकार के साम की उपासना करें। पूर्व वायु हिकार है, मेघ, यह प्रस्ताव है, बरसता है, यह उदगीथ है, चमकता और गर्जन करता है, यह प्रतिहार है, जल ग्रहण करता है, यह निधन है। इस प्रकार जानने वाला पुरुष वृष्टि में पाँच प्रकार के साम की उपासना करता है, उसके लिये वर्षा होती है और वह स्वयं भी वर्षा करा लेता है।”

छाँदोग्योपनिषद् चतुर्थ अध्याय दशम खण्ड। उपकोशल को अग्नियों द्वारा ब्रह्मविद्या का उपदेश देने तथा यज्ञाग्नि की महानता पर प्रकाश डालने वाला बड़ा ही सार गर्भित उपाख्यान है। जो इस प्रकार है—

“उपकोशल नाम से प्रसिद्ध कमल का पुत्र सत्यकाम जावाल के यहाँ ब्रह्मचर्य ग्रहण करके रहता था। उसने बारह वर्ष तक उस आचार्य के अग्नियों की सेवा की, किन्तु आचार्य ने अन्य ब्रह्मचारियों का तो समापवर्तन संस्कार कर दिया, किंतु केवल इसी का नहीं किया। आचार्य से उसकी भार्या ने कहा—‘यह ब्रह्मचारी खूब तपस्या कर चुका है, इसने अग्नियों की सेवा की है। देखिये, अग्नियाँ आपकी निन्दा न करें। अतः इसे विद्या का उपदेश कर दीजिये।’ किंतु वह उसे उपदेश किये बिना ही बाहर चला गया। उस उपकोशल ने मानसिक खेद से अनशन करने का निश्चय किया। उस आचार्य की पत्नी ने कहा—अरे ब्रह्मचारिन्! तू भोजन कर, क्यों नहीं भोजन करता! वह बोला—इस मनुष्य में अनेक ओर जाने वाली कामनाएं रहती हैं। मैं व्याधियों से परिपूर्ण हूँ इसलिये भोजन नहीं करूंगा।

फिर अग्नियों ने एकत्रित होकर कहा—यह ब्रह्मचारी तपस्या कर चुका है, इसने हमारी अच्छी तरह सेवा की है। अच्छा, हम इसे उपदेश करेंगे।

गार्हपत्याग्नि ने उपकोशल को अपना स्वरूप बताते हुए कहा—पृथ्वी, अग्नि, अन्न और आदित्य ये मेरे चर शरीर हैं। आदित्य के अंतर्गत जो यह पुरुष दिखाई देता है, वह मैं हूँ, वही मैं हूँ। वह पुरुष, जो इसे प्रकार जान कर इसकी उपासना करता है, पापकर्मों को नष्ट कर देता है, अग्निलोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है तथा इसके उत्तरवर्ती पुरुष क्षीण नहीं होते। तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है, उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं।

फिर उसे अन्वाहार्यपचन ने शिक्षा दी—‘जल, दिशा, नक्षत्र और चंद्रमा− ये मेरे चार शरीर हैं, यह जो विद्युत में पुरुष दिखाई देता है, वह मैं हूँ, वही मैं हूँ।’ पुरुष, जो इसे इस प्रकार जानकर इस (चार भागों में विभक्त अग्नि) की उपासना करता है, पापकर्म को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त होता है, उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है। इसके पीछे होने वाले पुरुष क्षीण नहीं होते, तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करते हैं, हम इसका इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं।

त्रयोदश−खण्ड—

तदनंतर उसे आहवनीय−अग्नि ने उपदेश किया− प्राण, आकाश, भूलोक और विद्युत—ये मेरे चार शरीर हैं। यह जो विद्युत में पुरुष दिखाई देता है वह मैं हूँ, वही मैं हूँ। वह पुरुष जो इसे इस प्रकार जान कर इसकी उपासना करता है, (वह) पापकर्म को नष्ट कर देता है, लोकवान होता है, पूर्ण आयु को प्राप्त करता है, और उज्ज्वल जीवन व्यतीत करता है। इसके पश्चात होने वाले पुरुष क्षीण नहीं होते तथा जो इस प्रकार जानकर इसकी उपासना करता है उसका हम इस लोक और परलोक में भी पालन करते हैं।

इसी प्रकार अग्नियों द्वारा भी उपकोशल को अपना स्वरूप बताया है। अन्यान्य उपनिषदों में भी यज्ञ अग्नि की अनिर्वचनीय महत्ता पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है। प्राचीन काल में ऋषिगण इस यज्ञाग्नि को इस लोक का सर्वोपरि तत्व मानते थे और उसके द्वारा समस्त प्रयोजनों को पूर्ण करने में समर्थ होते थे। इस विद्युत का रहस्य जानने वाले के लिए संसार में कोई भी वस्तु दुर्लभ नहीं रहती।


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